याद आता है –
‘लम्बी साँस लो और ‘सा’ लगाओ
पहली सीढ़ी पर ठिठकती है आवाज़
पूरी साँस भरती ऊर्जा से थरथराती
नन्हे शिशु का पहला कदम
फेफड़े फैलते हैं हवा को जगह देने
विस्तार देती है धरती उर्जा के साम्राज्य को
रेत की तरह मुट्ठी से फिसलती है साँसें,
जीवन है फिसलता जाता है.
अदृश्य तनी रस्सी पर बन्द आँखों चलना है ‘सा’
एक अनियंत्रित साँस ज़रा सी हलकी या वजनदार
सारा खेल ख़राब - प्रेम की तरह
हर नया ‘सा’ जीवन की ओर फैला एक खाली हाथ
हर नए ‘सा’ के साथ पुराना मृत
हर नए ‘सा’ के साथ खाली होती जाऊँ
पुराना ‘सा’ विस्मृत कर नए सिरे से शुरुआत.
स्मृतियों का क्या? वे किन श्रुतियों सी छिटक आती हैं, बाहर
मन्द्र सप्तक की ‘म’ में ठहर जाना अनोखा है
गहरे पानी में उतरने सा कोई आवाज़ नहीं
मौन ऊब डूब होता है आस पास भीतर
तुममें गहरे उतरना संदेहों का छंटना है
प्रतिध्वनियाँ प्रतिध्वनियाँ प्रतिध्वनियाँ
न, यहाँ कुछ भी नहीं
नाद है - अपने आप पसरता गूँजता
क्यों पृथ्वी की तरह अचल हो 'प'
पैर नहीं थकते तुम्हारे
अपनी गृहस्थी जमाए ठाठ से खिलते
चंचल उत्साही स्वर तुम्हारे काँधे पर
सुनो, थक जाओ तो धीमे बजना कुछ देर
आकाश चादर है तने सुरों की
अविजित अचल साम्राज्य तुम्हारा
ढहेगा नहीं
◆
कितने दिनों से याद नहीं आया
गली के मोड़ पर खड़ा वह शोहदा
सायकिल पर टिककर जो
मुझे देख गाने गाया करता था
कुढ़ जाती थी मैं
उसे देखते ही
हालांकि आगे जाकर मुस्कुरा दिया करती थी
उस की नज़र से परे
सुना है रोमियो कहते हैं वे उसे
मेरे लिए था जो
मेरी नई उम्र का पहला प्रेमी
(दो)
तुम लौट जाओ अंजुम
मेरे युवा प्रेमी
अपनी सायकिल के साथ
तुम मुकाबला नहीं कर पाओगे उन का
जो बाइक पर आएँगे
और तुम्हें बताएँगे
कि अब अच्छे दिन हैं
तुम तो जानते हो
प्रेम बुरे दिनों का साथी होता है अक्सर
जब कोई प्रेम में होता है
बुरे दिन खुद ब खुद चले आते हैं
बुरे दिनों में ही लोग करते है प्रेम
भिगोते है तकिया
खुलते हैं रेशा रेशा और लिखते हैं कविताएँ
बुरे दिन,
उन्हें अच्छा इंसान बनाते है
(तीन)
मेरी एक बहन बोलने लगी थी
धाराप्रवाह अंग्रेज़ी
प्रेमी उस का लॉयला में पढता था
एक मित्र तो
तिब्बती लड़की के प्यार में पड़कर
बनाने लगा था तिब्बती खाना
जानते हो
भीड़ प्रेम नहीं करती
समझती भी नहीं
प्रेम करता है
अकेला व्यक्ति
जैसे बुद्ध ने किया था
वे मोबाइल लिए आयेंगे
और कर देंगे वाइरल
तुम्हारे एकांत को
तुम्हारे सौम्य को
वे देखेंगे तुम्हें
तुम्हारा प्रेम उन की नज़रों से चूक जाएगा
(चार)
जैसे ही उस पार्क के एकांत में
तुम थामोगे अपनी प्रिया का हाथ
सेंसेक्स धड़ से नीचे आएगा
मुद्रास्फीति की दर बढ़ जाएगी
किसान करने लगेंगे आत्महत्या अपने परिवारों के साथ
और चीन डोकलम के रास्ते घुस आएगा तुम्हारे देश में
देश को सबसे बड़ा खतरा तुम्हारे प्रेम से है
तुम्हे देना ही चाहिए
राष्ट्रहित में, एक चुम्बन का बलिदान
इसलिए ज़रूरी है
पार्क के एकांत से
तुम अपने अपने घरों में लौट जाओ
और संस्कृति की तो पूछो ही मत
बिना प्रेम किये भी तुम पैदा कर सकते हो
दर्जनभर बच्चे
दिल्ली का हाश्मी दवाखाना
तुम्हारी मदद को रहेगा हमेशा तैयार ।
◆
सारी किताबें लिखी जा चुकी थीं
सारा संगीत सुना जा चुका था
सारी यात्राएँ की जा चुकी थीं
सारा विज्ञान पढ़ा जा चुका था
सारे आविष्कार किए जा चुके थे
सारे विचार सोचे जा चुके थे
खोजने वाली हर चीज़ खोजी जा चुकी थी
दर्शन उनकी जीभ की नोक पर बैठा था
इंसान अपने पाँव
से धरती नाप चुका था
और यह साबित हो चुका था कि
ईश्वर नहीं है
दूसरी दुनिया बसाने की सारी तैयारियाँ पूरी थीं
सारे सवाल पूछे जा चुके थे
सारे जवाब थे उनके पास
ठीक तभी
पता नहीं किस सरफ़िरी पागल औरत ने पूछा
बलात्कार क्या दूसरी दुनिया में भी होंगे?
उनके पास कोई जवाब न था ।
◆
ब्याह कर आई थी तो कपास के फूल झरते थे हंसी में
आँखों से झरता था उजली भोर सा उजला जीवन
माँ ने सोचकर नाम धरा होगा - सुचेता - सुन्दर हो चेतना जिसकी
सुबह चले दोपहर तक आ ही गई थी नए घर
मुंबई से पुणे दूर ही कितना ठहरा भला
हाथोहाथ थामा था उसे पति परिवार ने
और नाम धरा - धनलक्ष्मी
कमासुत बहू पहली परिवार की
हुलसकर प्यार में पगी रोज़ सुबह खाना पकाती है
पति बेटे को डब्बा देकर तेज़ तेज़ क़दमों से
धन कमाने को निकलती है धनलक्ष्मी
जाती है दफ्तर
माँ का धरा नाम याद नहीं उसे अब
सुन्दर चेतना का क्या है
कमाएगी तो घर की किस्तें भरी जाएंगी ।
◆
5.
कभी कभी किसी कविता में अटक जाती हूँ मैं
बजती रहती है वह मेरे भीतर,
सुबह बजने वाली अलार्म सी,
जिसे अनसुना कर वापस सोने को मन होता है
पर कविता है कि बजती रहती है,
उपर रहने वाली अनुष्का सी
जिसकी आवाज़ टुकड़े टुकड़े आती है
मेरी अकेली बाल्कनी में
और मेरे घर में छोटी सी एक खिड़की और खुल जाती है
सोचती हूँ
इन आवाज़ों के टुकड़ें ना हों
तो क्या मैं वही होती जो हूँ?
कविताएँ भी तो बच्चों सी होती हैं
यहाँ से पकडो वहाँ से फिसल भागती है
पीछा करती हैं
फिर किसी दिन
पीछे से आँख मूंद
धप्प कर देती हैं ।
◆
दुनिया वैसी ही थी जैसी थी
अपने होने
और न होने के बीच
कालखंडों के बीच दूरियाँ अनवरत थीं
रफ़्तार से जीते दृश्यों की
आवाजाही से बनती मिटती
छायाओं का दृष्टिभ्रम
तेज़ी से राख़ के धूसर रंगों में
बदलता जाता था
उगते थे कई सूर्य
और ठीक शाम ढले
अस्त हो जाते थे
दुनिया को अंधेरे की बाहों में सौंपकर
बस उस चींटी के सिवा
जो बार बार गिरकर भी
अनवरत उस दीवार पर चढ़ती जाती थी
नींद में मुस्कुराता था कोई बच्चा
और जंगल में फिर से लौटता था बसंत
रात और दिन की परवाह किये बग़ैर
काल की दीवार पर
ठहर गए थे ये दृश्य
दुनिया वैसी न थी
जैसी थी..
अपने होने और न होने के बीच!
◆
(एक)
कितने ही डर थे जिनसे गुज़रना था उसे
अपनी ही जड़ें मिट्टी होने का अहसास –
सिर्फ़ एक था
अपने ही तनों को न छू पाना भयावह
बढ़ने और दफ़न होने के सिवा
ज़िंदगी थी क्या?
(दो)
उस दिन कोई मुसाफ़िर
आ बैठा उसकी छाँव तले
रोटियाँ खाईं थोड़ी पेड़ की जड़ में
घर बनातीं चीटियों को खिलाईं
सो गया फिर
चीटियाँ घर बनाती रहीं
पेड़ ने अपनी रसोई समेटी
और पँखा झलता रहा
(तीन)
अबकी बारिश ज़रा देर से आई
मटके सूखे रहे
कहानियों वाला कौवा भी नहीं दिखा
पेड़ ने आकाश का सीना सहलाया
बादल एक दूसरे को
कुहनियाते, हँसी ठट्ठा करते आए
(चार)
दो पंछी लड़ बैठे उसकी छाँव में
थोड़ी देर बाद उड़ गए
पेड़ ने फिर से स्मृतियाँ सहेज लीं
पेड़ के सपनों में सूखा नहीं आता
(पाँच)
सपने में मैने पेड़ को पुकारा
अपनी फुनगी में लिपटी
रँग बिरंगी पतंगों के साथ
जड़ें समेटे
वह दौड़ा चला आया
(छह)
पेड़ भी सोते हैं कभी
अपनी ही टहनियों से आँखें ढककर
अपनी जड़ें समेटकर अन्जान बन जाते हैं
नहीं पहचानते उस इन्सान को
जो छाँव तले बैठा
बीड़ी फूंकता है.
जिसने बाँध रखी है कुल्हाड़ी
कमर के गमछे से
हाथों का छज्जा बनाकर
जो पेड़ की उँचाई नापता है!
◆
8.
घड़ियाँ और समय
(एक)
घड़ियाँ बातचीत नहीं करतीं
चुपचाप समय को मापतीं
वे अपने काम में लगी रहती हैं
हालांकि घड़ियों में बदलता समय
समय के बदलने की पहचान नहीं होता
और यह भी सच है कि बुरा समय
पुराने नासूर की तरह
बार बार उभर आता है
(दो)
एक समय सूरज की धूप थीं वे
रेत को अपनी डिबिया में उलटती पलटती
रात और दिन का पता देतीं
समय को नहीं पूछता था कोई उन दिनों
एक समय बाद वह समय बीत गया
(तीन)
आनेवाले समय में विजेताओं, बादशाहों और योद्धाओं ने
रेगिस्तानों मैदानों और घाटियों में इतनी धूल उड़ाई
कि समय की पगडंडियाँ धुँधली नज़र आने लगीं
उन्हीं दिनों इंसान ने जाना होगा
समय बलवान है
और रेतघड़ियों की ओर देखते
समय के बदलने का इंतज़ार किया होगा
(चार)
समय पर विजय पा लेने की जिद्दोजहद
इतिहास के पन्नों का पुराना प्रेम है
इसकी ज़द से कोई न बच पाया
हालांकि इंसानी बस्तियाँ हर ज़िद को नकारती
बार बार युद्ध के मैदानों के बेहद करीब और कभी कभी तो
ठीक उन विजेताओं की कब्रों पर उग आती थीं
शहरों के चौक चौराहों घण्टाघरों में लगीं विशाल घड़ियाँ
वह समय कभी न तय कर पाईं जो
इन बस्तियों की उपस्थिति और रुतबे को सहीं सही आँक सके
वे अक्सर गलत समय बताती रहीं और
बाद में कबूतरों ने अपने घर बना लिए उनपर
(पाँच)
वह भी कोई समय था
जब समय की उदास नब्ज़ थामकर
किसी शायर ने धीरे से कहा था -
'इक बिरहमन ने कहा है के ये साल अच्छा है'
इन दिनों वह अक्सर याद आता है
बुझती आँखों से समय को धीमे धीमे ढहते देखा था जिसने
(छह)
यह कुछ बाद की हलचल थी
जब घड़ियाँ चीख चीखकर
इंसानी बस्तियों को फैक्ट्रियों कारखानों
दफ्तरों और बाज़ारों तक बुलाने लगीं
वे हर जगह नज़र आने लगीं
कलाइयों में, घरों की दीवारों पर
यहाँ तक कि इंसानी शरीर में भी वे दहशत की तरह बजने लगीं
और दिमाग भी उनकी गिरफ्त से बच न पाए
यह दीगर बात है कि वह शरीर
इन दिनों रेल की पटरियों पर बिखरा पड़ा है
और वहां घड़ियाँ नहीं रोटियाँ नज़र आती हैं
समय की साँस घुटती है इन दिनों
(सात)
समय इन दिनों अपनी शक्ल ओ आवाज़ घड़ियों को सौंपकर
लौटता है स्मृतियों में
मन ही मन कुछ सोचता धीमे से मुस्कुराता है
उसे याद है घड़ियों को अपनी ताक़त समझने वाले
विजेता तानाशाह शहंशाह और धर्मगुरु
सब के सब उसकी रेत के नीचे दफ़्न हैं
और चूल्हों से उठता धुआँ आकाश छूता है
घड़ियाँ इस पूरे समय
चुपचाप अपने काम में मुब्तिला रहती आई हैं
जैसे मैंने पहले कहा - घड़ियाँ बातचीत नहीं करतीं
◆
भाषा के पास कुछ पुराने शब्द थे
हर नया दुख भाषा के प्राचीन शब्दकोश का नया संधान
हर नए दुख के बाद भाषा की अछूती पगडंडियाँ तलाशनी थीं
चलते चले जाना था वन कंदराओं आग पानी घाटियों में
हर अंत एक शुरुआत थी
हर शुरुआत अपने अंत की निरंतरता
कोलाहल भरी लम्बी यात्राओं के बाद
मैने पाया दुख छुपा बैठा था
शब्दों के बीच ठहरे मौन में
आसरा ढूँढता था सबसे सरल शब्दों का
हर नए दुख की उपस्थिति
भाषा की आदि स्मृति थी ।
वे अचानक नहीं आए
वे धीरे धीरे
अलग अलग गली, मोहल्लों, टोलों, कस्बों, शहरों, महानगरों से आए
कुछ - देर तक चलते रहे
कइयों ने कोई तेज़ चलती गाड़ी पकड़ी
वे अपनी दाढ़ी टोपी झोले किताबें बन्डी और
शब्दों की पोटली लिए आए
कुछ के पास तो वाद और माइक्रोस्कोप भी थे
भूख और दंभ तो खैर
सबके पास था
कुछ स को श लिखते
कुछ श तो स
त को द और द को त भी
अपनी जगह दुरुस्त था
कुछ सिर्फ़ अनुवादों पर यकीन रखते
कुछ की यू एस पी प्रेम पर लिखना था
इसलिए वे बार बार प्रेम करते
कुछ हाशिए के कवि थे
वे अपनी कविता हाशिए पर ही लिखते
कुछ कवयित्रियाँ भी थीं
वे अपने अपने पतियों को खाने का डब्बा देकर आईं थीं
वे दुख प्रेम और संस्कार भरी कविताएँ लिखतीं
कुछ अफ़सर कवि थे कुछ चपरासी कवि
अफ़सर कवि चपरासी कवि को डाँटे रहता
और चपरासी कवि, कविता में क्रांति की संभावनाएँ तलाशता
कुछ एक किताब वाले कवि थे
वे महानुभाओं की पंक्ति में बैठना चाहते
दूसरी किताब का यकीन उन्हें वहीं से मिलने की उम्मीद थी कवियों के सूक्ष्म बिंब अक्सर लड़खड़ाकर गिर पड़ते
घुटने छिली कविता ऐसे में दर्दनाक दिखाई देती
सबके अपने अपने गढ़ थे
अपनी अपनी सेनाएँ
वे अपनी अपनी सेनाओं का नेतृत्व बड़ी शान से करते
वे विशेष थे
विशेष दुखी, विशेष ज्ञानी और अधिक ऊँचे थे
इतने ऊँचे
कि अक्सर वास्तविकता से काफ़ी ऊँचाई पर चले जाते
हँसी उनके लिए वर्ज्य थी
उनका विश्वास था हंसते हुए तस्वीरें अच्छी नहीं आतीं
वे थोड़ी थोड़ी देर में मोटी सी किताब की ओर देखते
और बड़े बड़े शब्द फेंक मारते
कुछ कमज़ोर कवि तो सहम जाते
पर थोड़ी ही देर में ठहाका लगाकर हंस पड़ते
ऐसे में दाढ़ी वाले कवि टोपी वाले कवि को देखते
और मुँह फेर लेते
वाद वाला कवि जल्दी जल्दी अपनी किताबे पलटने लगता
माइक्रोस्कोप वाला बड़ी सूक्ष्मता से इसे समझने की कोशिश करता
और कुर्ते वाला झोले वाले को कुहनी मारता
बड़ा गड़बड़झाला था
थोड़ी ही देर में
चाय समोसे का स्टाल लगा
और समानता के दर्शन हुए
पुरस्कारों की घोषणा अभी बाकी थी ।
◆