Friday, December 10, 2021

अदृश्य तनी रस्सी पर बंद आँखों चलना : रंजना मिश्र की कविताएँ

"संगीत कविता की दादी अम्मा है" कहने वाली कवि रंजना मिश्र कविता और संगीत दोनों पर मजबूत पकड़ रखने वाली कवि हैं । "आवाज़ की झुर्रियाँ" कविता से गुज़रते हुए आप इस बात पर इत्मीनान कर सकते हैं । संगीत के सुरों के कुछ अनूठे काव्यात्मक चित्रों से हमारा परिचय होता है इस कविता का आस्वादन करते हुए । "सा" लगाना यहाँ अदृश्य तनी रस्सी पर बंद आँखों चलना है । मंद्र सप्तक का "म" गहरे पानी में उतरने जैसा है, तो "प" पृथ्वी सा अचल । आकाश यहाँ तने हुए सुरों की चादर है ।

रंजना मिश्र की कविताओं में अपने आसपास को देखने परखने का एक ख़ास लहजा है । यह लहजा कवि ने गहन जीवन-बोध से अर्जित किया है, इसमें कोई संदेह नहीं । हर नए दुख को "भाषा की आदि स्मृति" से जोड़ने का काव्यात्मक कौशल बिना इस जीवन-बोध के नहीं हासिल किया जा सकता । तभी इस कवि के यहाँ "हर नया दुख भाषा के प्राचीन शब्दकोश का नया संधान" है । ऊपर रहने वाली किसी अनुष्का की आवाज़ों का टुकड़े टुकड़े कवि की बालकनी तक आना कवि की निर्मिति से जुड़ा सत्य बन जाता है । यह देखना सुखद है कि कवि ने अपने आसपास की सूक्ष्म आवाज़ों को भी अनसुना नहीं गुज़र जाने दिया है और उसे अपने जीवन और अपनी कविता का हिस्सा बन जाने दिया है । 

स्त्री के सवाल भी रंजना मिश्र की कविताओं में दर्ज़ हुए हैं । चालू विमर्श के रेटरिक को दरकिनार करते हुए बड़ी कोमलता के साथ चोट कर पाने में ये कविताएँ सफल रही हैं । "नामकरण" और "दूसरी दुनिया से पहले" जैसी कविताएँ इसका साक्ष्य हैं । "नामकरण" कविता में वह पीड़ा और त्रासदी उभर कर सामने आती है जो "सुचेता" को "धनलक्ष्मी" में बदल देती है । "दूसरी दुनिया से पहले" कविता में उस समय और समाज की स्थितियाँ सामने आती हैं जहाँ सारी भौतिक उपलब्धियाँ हासिल कर ली गई हैं और मनुष्य दूसरी नई दुनिया बसाने की योजनाएँ बना रहा है । एक स्त्री के प्रश्न को यहाँ चुनौती की तरह रख देता है कवि - "बलात्कार क्या दूसरी दुनिया में भी होंगे ?" इस प्रश्न का उत्तर उपलब्धियों के शिखर पर बैठी मनुष्यता के पास नहीं है । इस तरह हम पाते हैं कि स्त्री के सवालों को कोमलता के साथ किन्तु बड़े ही प्रभावी ढंग से कवि ने उठाया है । 

दार्शनिकता में भींगी जीवन-दृष्टि से भी हमारा परिचय रंजना मिश्र की कविताओं से गुज़रते हुए होता है । यहाँ अपनी ही गति में गुज़रती हुई दुनिया है और उसके अपने डायनैमिक्स भी हैं । इस दैनन्दिन जीवन गति में कुछ चीज़ों और घटनाओं का होना व्यतिक्रम की तरह प्रकट होता है - जैसे चींटियों का दीवार पर चढ़ना, जैसे बच्चे का नींद में हँसना, जैसे जंगल में बार-बार बसंत का लौटना । अपने होने और न होने के दरम्यान कवि ने जीवन की इस गति और उसमें घटित हो रहे व्यतिक्रम को बड़ी ख़ूबसूरती के साथ सम्बोधित किया है । 

और "अंजुम के लिए" कविता तो जैसे प्रेम को उसके समूचे सामाजिक यथार्थ की जमीन पर परखने का एक अनूठा उपक्रम है । इस कविता में रुमानियत और कठोर वास्तविकता का जो द्वंद्व कवि ने उभारा है वह कविता को ऊँचाई देता है । यह कविता रेशम के धागे पर स्टील की चादर मढ़ने जितना ही कठिन उद्यम सम्भव करती दिखती है और निश्चित रूप से इधर लिखी गई प्रेम कविताओं में अपने ढंग की अनूठी कविता है । 

काल-बोध और पर्यावरण की चिंताएँ "घड़ियाँ और समय" तथा "पेड़" जैसी कविताओं में लक्षित की जा सकती हैं जहाँ रंजना मिश्र का काव्य-कौशल रेखांकित करने लायक है । इतना ही नहीं "पुरस्कार" कविता के माध्यम से कवि ने अपने समकालीन परिवेश पर भी अर्थपूर्ण टिप्पणी की है । रंजना मिश्र की कविताएँ समकालीन काव्य-परिदृश्य में  कुछ नया और मूल्यवान जोड़ती हुई कविताएँ हैं ।


रंजना मिश्र की दस कविताएँ

1.
आवाज़ की झुर्रियाँ

याद आता है –
‘लम्बी साँस लो और ‘सा’ लगाओ
पहली सीढ़ी पर ठिठकती है आवाज़
पूरी साँस भरती ऊर्जा से थरथराती
नन्हे शिशु का पहला कदम

फेफड़े फैलते हैं हवा को जगह देने
विस्तार देती है धरती उर्जा के साम्राज्य को

रेत की तरह मुट्ठी से फिसलती है साँसें,
जीवन है फिसलता जाता है.

अदृश्य तनी रस्सी पर बन्द आँखों चलना है ‘सा’
एक अनियंत्रित साँस ज़रा सी हलकी या वजनदार
सारा खेल ख़राब - प्रेम की तरह

हर नया ‘सा’ जीवन की ओर फैला एक खाली हाथ
हर नए ‘सा’ के साथ पुराना मृत
हर नए ‘सा’ के साथ खाली होती जाऊँ
पुराना ‘सा’ विस्मृत कर नए सिरे से शुरुआत.

स्मृतियों का क्या? वे किन श्रुतियों सी छिटक आती हैं, बाहर

मन्द्र सप्तक की ‘म’ में ठहर जाना अनोखा है
गहरे पानी में उतरने सा     कोई आवाज़ नहीं 
मौन ऊब डूब होता है     आस पास      भीतर
तुममें गहरे उतरना संदेहों का  छंटना है

प्रतिध्वनियाँ प्रतिध्वनियाँ प्रतिध्वनियाँ
न, यहाँ  कुछ भी नहीं
नाद है - अपने आप पसरता गूँजता

क्यों पृथ्वी की तरह अचल  हो  'प'
पैर नहीं थकते तुम्हारे
अपनी गृहस्थी जमाए ठाठ से खिलते  
चंचल उत्साही स्वर तुम्हारे काँधे पर

सुनो, थक जाओ तो धीमे बजना कुछ देर
आकाश चादर है तने सुरों की
अविजित अचल  साम्राज्य तुम्हारा
ढहेगा नहीं


2.
अंजुम के लिए

(एक)
कितने दिनों से याद नहीं आया
गली के मोड़ पर खड़ा वह शोहदा
सायकिल पर टिककर जो
मुझे देख गाने गाया करता था
कुढ़ जाती थी मैं
उसे देखते ही
हालांकि आगे जाकर मुस्कुरा दिया करती थी
उस की नज़र से परे
सुना है रोमियो कहते हैं वे उसे
मेरे लिए था जो
मेरी नई उम्र का पहला प्रेमी
(दो)
तुम लौट जाओ अंजुम
मेरे युवा प्रेमी
अपनी सायकिल के साथ
तुम मुकाबला नहीं कर पाओगे उन का
जो बाइक पर आएँगे
और तुम्हें बताएँगे
कि अब अच्छे दिन हैं
तुम तो जानते हो
प्रेम बुरे दिनों का साथी होता है अक्सर
जब कोई प्रेम में होता है
बुरे दिन खुद ब खुद चले आते हैं
बुरे दिनों में ही लोग करते है प्रेम
भिगोते है तकिया
खुलते हैं रेशा रेशा और लिखते हैं कविताएँ
बुरे दिन,
उन्हें अच्छा इंसान बनाते है
(तीन)
मेरी एक बहन बोलने लगी थी
धाराप्रवाह अंग्रेज़ी
प्रेमी उस का लॉयला में पढता था
एक मित्र तो
तिब्बती लड़की के प्यार में पड़कर
बनाने लगा था तिब्बती खाना
जानते हो
भीड़ प्रेम नहीं करती
समझती भी नहीं
प्रेम करता है
अकेला व्यक्ति
जैसे बुद्ध ने किया था
वे मोबाइल लिए आयेंगे
और कर देंगे वाइरल
तुम्हारे एकांत को
तुम्हारे सौम्य को
वे देखेंगे तुम्हें
तुम्हारा प्रेम उन की नज़रों से चूक जाएगा
(चार)
जैसे ही उस पार्क के एकांत में
तुम थामोगे अपनी प्रिया का हाथ
सेंसेक्स धड़ से नीचे आएगा
मुद्रास्फीति की दर बढ़ जाएगी
किसान करने लगेंगे आत्महत्या अपने परिवारों के साथ
और चीन डोकलम के रास्ते घुस आएगा तुम्हारे देश में
देश को सबसे बड़ा खतरा तुम्हारे प्रेम से है
तुम्हे देना ही चाहिए
राष्ट्रहित में, एक चुम्बन का बलिदान
इसलिए ज़रूरी है
पार्क के एकांत से
तुम अपने अपने घरों में लौट जाओ
और संस्कृति की तो पूछो ही मत
बिना प्रेम किये भी तुम पैदा कर सकते हो 
दर्जनभर बच्चे
दिल्ली का हाश्मी दवाखाना
तुम्हारी मदद को रहेगा हमेशा तैयार ।

3.
दूसरी दुनिया से पहले

सारी किताबें लिखी जा चुकी थीं
सारा संगीत सुना जा चुका था
सारी यात्राएँ की जा चुकी थीं
सारा विज्ञान पढ़ा जा चुका था
सारे आविष्कार किए जा चुके थे
सारे विचार सोचे जा चुके थे
खोजने वाली हर चीज़ खोजी जा चुकी थी
दर्शन उनकी जीभ की नोक पर बैठा था
इंसान अपने पाँव
से धरती नाप चुका था
और यह साबित हो चुका था कि
ईश्वर नहीं है

दूसरी दुनिया बसाने की सारी तैयारियाँ पूरी थीं
सारे सवाल पूछे जा चुके थे
सारे जवाब थे उनके पास

ठीक तभी
पता नहीं किस सरफ़िरी पागल औरत ने पूछा
बलात्कार क्या दूसरी दुनिया में भी होंगे?

उनके पास कोई जवाब न था ।


4.
नामकरण

ब्याह कर आई थी तो कपास के फूल झरते थे हंसी में
आँखों से झरता था उजली भोर सा उजला जीवन
माँ ने सोचकर नाम धरा होगा - सुचेता - सुन्दर हो चेतना जिसकी

सुबह चले दोपहर तक आ ही गई थी नए घर
मुंबई से पुणे दूर ही कितना ठहरा भला
हाथोहाथ थामा था उसे पति परिवार ने
और नाम धरा - धनलक्ष्मी
कमासुत बहू पहली परिवार की

हुलसकर प्यार में पगी रोज़ सुबह खाना पकाती है
पति बेटे को डब्बा देकर तेज़ तेज़ क़दमों से
धन कमाने को निकलती है धनलक्ष्मी
जाती है दफ्तर 
माँ का धरा नाम याद नहीं उसे अब
सुन्दर चेतना का क्या है
कमाएगी तो घर की किस्तें भरी जाएंगी ।

5.
आवाज़ों के टुकड़े

कभी कभी किसी कविता में अटक जाती हूँ मैं
बजती रहती है वह मेरे भीतर,
सुबह बजने वाली अलार्म सी,
जिसे अनसुना कर वापस सोने को मन होता है
पर कविता है कि बजती रहती है,
उपर रहने वाली अनुष्का सी
जिसकी आवाज़ टुकड़े टुकड़े आती है
मेरी अकेली बाल्कनी में
और मेरे घर में छोटी सी एक खिड़की और खुल जाती है
सोचती हूँ
इन आवाज़ों के टुकड़ें ना हों
तो क्या मैं वही होती जो हूँ?

कविताएँ भी तो बच्चों सी होती हैं
यहाँ से पकडो वहाँ से फिसल भागती है
पीछा करती हैं
फिर किसी दिन
पीछे से आँख मूंद
धप्प कर देती हैं ।


6.
वैसी ही दुनिया

दुनिया वैसी ही थी जैसी थी
अपने होने
और न होने के बीच

कालखंडों के बीच दूरियाँ अनवरत थीं
रफ़्तार से जीते दृश्यों की
आवाजाही से बनती मिटती
छायाओं का दृष्टिभ्रम
तेज़ी से राख़ के धूसर रंगों में
बदलता जाता था
उगते थे कई सूर्य
और ठीक शाम ढले
अस्त हो जाते थे
दुनिया को अंधेरे की बाहों में सौंपकर
बस उस चींटी के सिवा
जो बार बार गिरकर भी
अनवरत उस दीवार पर चढ़ती जाती थी
नींद में मुस्कुराता था कोई बच्चा
और जंगल में फिर से लौटता था बसंत
रात और दिन की परवाह किये बग़ैर

काल की दीवार पर
ठहर गए थे ये दृश्य

दुनिया वैसी न थी
जैसी थी..

अपने होने और न होने के बीच!


7.
पेड़

(एक)

कितने ही डर थे जिनसे गुज़रना था उसे
अपनी ही जड़ें मिट्टी होने का अहसास –
सिर्फ़ एक था
अपने ही तनों को न छू पाना भयावह
बढ़ने और दफ़न होने के सिवा
ज़िंदगी थी क्या?

(दो)

उस दिन कोई मुसाफ़िर
आ बैठा उसकी छाँव तले
रोटियाँ खाईं थोड़ी पेड़ की जड़ में 
घर बनातीं चीटियों को खिलाईं
सो गया फिर
चीटियाँ घर बनाती रहीं
पेड़ ने अपनी रसोई समेटी
और पँखा झलता रहा

(तीन)

अबकी बारिश ज़रा देर से आई
मटके सूखे रहे
कहानियों वाला कौवा भी नहीं दिखा
पेड़ ने आकाश का सीना सहलाया
बादल एक दूसरे को
कुहनियाते, हँसी ठट्ठा करते आए

(चार)

दो पंछी लड़ बैठे उसकी छाँव में
थोड़ी देर बाद उड़ गए
पेड़ ने फिर से स्मृतियाँ सहेज लीं
पेड़ के सपनों में सूखा नहीं आता

(पाँच)

सपने में मैने पेड़ को पुकारा
अपनी फुनगी में लिपटी
रँग बिरंगी पतंगों के साथ
जड़ें समेटे
वह दौड़ा चला आया

(छह)

पेड़ भी सोते हैं कभी
अपनी ही टहनियों से आँखें ढककर
अपनी जड़ें समेटकर अन्जान बन जाते हैं
नहीं पहचानते उस इन्सान को
जो छाँव तले बैठा
बीड़ी फूंकता है.
जिसने बाँध रखी है कुल्हाड़ी
कमर के गमछे से
हाथों का छज्जा बनाकर
जो पेड़ की उँचाई नापता है!

8.
घड़ियाँ और समय

(एक)

घड़ियाँ बातचीत नहीं करतीं
चुपचाप समय को मापतीं
वे अपने काम में लगी रहती हैं
हालांकि घड़ियों में बदलता समय
समय के बदलने की पहचान नहीं होता
और यह भी सच है कि बुरा समय
पुराने नासूर की तरह
बार बार उभर आता है

(दो)

एक समय सूरज की धूप थीं वे
रेत को अपनी डिबिया में उलटती पलटती
रात और दिन का पता देतीं
समय को नहीं पूछता था कोई उन दिनों
एक समय बाद वह समय बीत गया

(तीन)

आनेवाले समय में विजेताओं, बादशाहों और योद्धाओं ने
रेगिस्तानों मैदानों और घाटियों में इतनी धूल उड़ाई
कि समय की पगडंडियाँ धुँधली नज़र आने लगीं
उन्हीं दिनों इंसान ने जाना होगा
समय बलवान है
और रेतघड़ियों की ओर देखते
समय के बदलने का इंतज़ार किया होगा

(चार)

समय पर विजय पा लेने की जिद्दोजहद
इतिहास के पन्नों का पुराना प्रेम है
इसकी ज़द से कोई न बच पाया
हालांकि इंसानी बस्तियाँ हर ज़िद को नकारती
बार बार युद्ध के मैदानों के बेहद करीब और कभी कभी तो
ठीक उन विजेताओं की कब्रों पर उग आती थीं
शहरों के चौक चौराहों घण्टाघरों में लगीं विशाल घड़ियाँ
वह समय कभी न तय कर पाईं जो
इन बस्तियों की उपस्थिति और रुतबे को सहीं सही आँक सके
वे अक्सर गलत समय बताती रहीं और
बाद में कबूतरों ने अपने घर बना लिए उनपर

(पाँच)

वह भी कोई समय था
जब समय की उदास नब्ज़ थामकर
किसी शायर ने धीरे से कहा था -
'इक बिरहमन ने कहा है के ये साल अच्छा है'
इन दिनों वह अक्सर याद आता है
बुझती आँखों से समय को धीमे धीमे ढहते देखा था जिसने

(छह)

यह कुछ बाद की हलचल थी
जब घड़ियाँ चीख चीखकर
इंसानी बस्तियों को फैक्ट्रियों कारखानों
दफ्तरों और बाज़ारों तक बुलाने लगीं
वे हर जगह नज़र आने लगीं
कलाइयों में, घरों की दीवारों पर
यहाँ तक कि इंसानी शरीर में भी वे दहशत की तरह बजने लगीं
और दिमाग भी उनकी गिरफ्त से बच न पाए
यह दीगर बात है कि वह शरीर
इन दिनों रेल की पटरियों पर बिखरा पड़ा है
और वहां घड़ियाँ नहीं रोटियाँ नज़र आती हैं
समय की साँस घुटती है इन दिनों

(सात)

समय इन दिनों अपनी शक्ल ओ आवाज़ घड़ियों को सौंपकर
लौटता है स्मृतियों में
मन ही मन कुछ सोचता धीमे से मुस्कुराता है
उसे याद है घड़ियों को अपनी ताक़त समझने वाले
विजेता तानाशाह शहंशाह और धर्मगुरु
सब के सब उसकी रेत के नीचे दफ़्न हैं
और चूल्हों से उठता धुआँ आकाश छूता है
घड़ियाँ इस पूरे समय
चुपचाप अपने काम में मुब्तिला रहती आई हैं

जैसे मैंने पहले कहा - घड़ियाँ बातचीत नहीं करतीं



9.
दुख 

हर नए दुख के लिए
भाषा के पास कुछ पुराने शब्द थे

हर नया दुख भाषा के प्राचीन शब्दकोश का नया संधान
हर नए दुख के बाद भाषा की अछूती पगडंडियाँ तलाशनी थीं
चलते चले जाना था वन कंदराओं आग पानी घाटियों में
हर अंत एक शुरुआत थी
हर शुरुआत अपने अंत की निरंतरता

कोलाहल भरी लम्बी यात्राओं के बाद
मैने पाया दुख छुपा बैठा था
शब्दों के बीच ठहरे मौन में
आसरा ढूँढता था सबसे सरल शब्दों का

हर नए दुख की उपस्थिति
भाषा की आदि स्मृति थी ।

10.
पुरस्कारों की घोषणा

वे अचानक नहीं आए
वे धीरे धीरे
अलग अलग गली, मोहल्लों, टोलों, कस्बों, शहरों, महानगरों से आए
कुछ - देर तक चलते रहे
कइयों ने कोई तेज़ चलती गाड़ी पकड़ी
वे अपनी दाढ़ी टोपी झोले किताबें बन्डी और
शब्दों की पोटली लिए आए
कुछ के पास तो वाद और माइक्रोस्कोप भी थे
भूख और दंभ तो खैर
सबके पास था
कुछ स को श लिखते
कुछ श तो स
त को द और द को त भी
अपनी जगह दुरुस्त था
कुछ सिर्फ़ अनुवादों पर यकीन रखते
कुछ की यू एस पी प्रेम पर लिखना था
इसलिए वे बार बार प्रेम करते
कुछ हाशिए के कवि थे
वे अपनी कविता हाशिए पर ही लिखते
कुछ कवयित्रियाँ भी थीं
वे अपने अपने पतियों को खाने का डब्बा देकर आईं थीं
वे दुख प्रेम और संस्कार भरी कविताएँ लिखतीं
कुछ अफ़सर कवि थे कुछ चपरासी कवि
अफ़सर कवि चपरासी कवि को डाँटे रहता
और चपरासी कवि, कविता में क्रांति की संभावनाएँ तलाशता
कुछ एक किताब वाले कवि थे
वे महानुभाओं की पंक्ति में बैठना चाहते
दूसरी किताब का यकीन उन्हें वहीं से मिलने की उम्मीद थी कवियों के सूक्ष्म बिंब अक्सर लड़खड़ाकर गिर पड़ते
घुटने छिली कविता ऐसे में दर्दनाक दिखाई देती
सबके अपने अपने गढ़ थे
अपनी अपनी सेनाएँ
वे अपनी अपनी सेनाओं का नेतृत्व बड़ी शान से करते
वे विशेष थे
विशेष दुखी, विशेष ज्ञानी और अधिक ऊँचे थे
इतने ऊँचे
कि अक्सर वास्तविकता से काफ़ी ऊँचाई पर चले जाते
हँसी उनके लिए वर्ज्य थी
उनका विश्वास था हंसते हुए तस्वीरें अच्छी नहीं आतीं
वे थोड़ी थोड़ी देर में मोटी सी किताब की ओर देखते
और बड़े बड़े शब्द फेंक मारते
कुछ कमज़ोर कवि तो सहम जाते
पर थोड़ी ही देर में ठहाका लगाकर हंस पड़ते
ऐसे में दाढ़ी वाले कवि टोपी वाले कवि को देखते
और मुँह फेर लेते
वाद वाला कवि जल्दी जल्दी अपनी किताबे पलटने लगता
माइक्रोस्कोप वाला बड़ी सूक्ष्मता से इसे समझने की कोशिश करता
और कुर्ते वाला झोले वाले को कुहनी मारता
बड़ा गड़बड़झाला था
थोड़ी ही देर में
चाय समोसे का स्टाल लगा
और समानता के दर्शन हुए
पुरस्कारों की घोषणा अभी बाकी थी ।

Friday, September 18, 2020

हुजूर रास्ता बदल दीजिये : अनुज की कविताएँ

 



बेधक और मार्मिक जीवन प्रसंगों का प्रामाणिक दस्तावेज हैं अनुज की कविताएँ जो स्वानुभूति की धीमी लौ में जाने पहचाने सत्य का नये स्तर पर पाठक से साक्षात कराती हैं । अनुज की कविताओं की खासियत यह कि ये एक खास अर्थ में भोक्ता की कविताएँ भी हैं इसलिए इनमें एक तटस्थ जीवंतता भी है । अनुज हाशिये के समाज की चेतना को उसके स्वाभाविक नुकीलेपन के साथ कविता में रखते हैं और यह उनके काव्य संसार को अधिक अर्थवान और प्रामाणिक भी बनाता है ।

मृत्युबोध की रुमानियत को खारिज करती कविता "मौत" में कवि उसकी मर्मान्तक पीड़ा को दर्ज करते हुए निकटतम आत्मीय जनों की मृत्यु को निजी जीवन के उस हिस्से की मृत्यु के रूप में देख रहा है जिस हिस्से में वे किसी न किसी रूप में रहे आये थे । अपनों की मृत्यु कहीं न कहीं अपनी मृत्यु का ही विस्तार है । यह जीवन को उसकी सामूहिकता में देखने की मानवीय दृष्टि है । "अम्मा" और "सब बचा रह जाता है" इसी मृत्युबोध की कविताएँ हैं ।

हाशिए पर जीने वाले मनुष्य के लिए धर्म, ईश्वर, जाति, त्यौहार, नैतिकता आदि के अर्थ और संदर्भ वही नहीं हुआ करते जो आम तौर पर सहूलियतों में जीने वाले मनुष्य के लिए हो सकते हैं । यह बहुजन चेतना अनुज की कविताओं में अपनी वैचारिकी को केंद्र में रखते हुए बहस का आह्वान करती है और अपने पाठक को भी जीवन स्थितियों के प्रति नई दृष्टि के लिए आग्रही बनाती है । "दकियानूसी", "हुजूर रास्ता बदल दीजिए" और "मेरा मानिए मशविरा" जैसी कविताएँ देखी जा सकती हैं ।अनुज की इन कविता में "हैव्स" और "हैव-नॉट्स" का कंफ्लिक्ट प्रखरता के साथ उभर कर सामने आता है ।

दुनिया के मायने एक यथास्थितिवादी व्यवस्था में क्या हो सकते हैं और उसके अंतर्विरोध क्या होते हैं इसे अनुज का कवि अपने अंदाज़ में देखता है । "यह क्रिया चलती रहती है" कविता में कवि एक ख्याली दुनिया की हकीकत से टकराता है जब वह "सब कुछ ठीक है" के ख्याल में जीने वाले आत्मकेंद्रित मनुष्य की इस मिथ्या धारणा को ही खंडित कर देता है । कविता बताती है कि आँख मूँद लेने भर से सबकुछ ठीक है का बोध जिंदा नहीं रह सकता । प्रकारांतर से कविता यह भी कहती है कि दुनिया को ठीक करने की जरूरत है जिसके लिए प्रयत्न करने होंगे ।

बचने बचाने पर हिंदी में बहुत सी कविताएँ लिखी गई हैं । कवि अपनी तरह से चीजों को बचाते रहे हैं । अनुज का बचाने का आग्रह इस रूप में अलग है कि वह इस यथार्थबोध तक जाता है कि "हम जान रहें हों कि हम बचे नहीं रहेंगे, लेकिन जद्दोजहद बची रहे" । वह चीजों को बचाने से अधिक चीजों को बचाने के जद्दोजहद की बात करता है और ऐसा करते हुए हमारा अधिक विश्वसनीय हो उठता है । विसंगतियों और विडंबनाओं पर भी कवि की दृष्टि बनी रहती है । भारतीय किसानों को लेकर बनी रूढ़ि पर चोट करती हुई ऐसी ही कविता है "एक धर्म बाकी जो अभी" जिसमें कवि अत्यधिक विनम्र हो चुके किसान की कमर और छाती पर हाथ रखकर उसकी रीढ़ सीधी करने की जरूरत को एक जरुरी धर्म की तरह तरजीह देता है । सत्ता के विद्रूप को कवि बड़ी बारीकी से उभरता है "ये कौन हैं" जैसे प्रश्न के माध्यम से ।

अनुज की कविताएँ इस बीमार समय की भरोसेमंद डायग्नोस्टिक रिपोर्ट की तरह हैं जिनको बहुत ध्यान से देखे पढ़े जाने की जरूरत है । 


अनुज की दस कविताएँ : 

1. मौत ..

माँ मार्च में गुजरी,
और ढूँढने पर भी एक अच्छी तस्वीर न मिली,
एक जो थी बची,
उसमें वह शाल ओढ़े थी...
मैं तस्वीर देखता और लगता...
कि माँ को मरने से पहले ठंड लग रही होगी.

सब कहते हैं कि माँ सबको एकटक देखने लगी थीं,
होता हो ऐसा,
कि मरने से ठीक पहले हो जाता हो मरने का भान.

मैं जो हूँ, भीरु, रुख्सत हो जाना चाहता हूँ नींद-नींद में,
होश में भाई मरा, माँ मरी
एक तड़पते कहते हुए मरा कि वह जीना चाहता है,
एक तड़पती कहते हुए मरी कि अब जीने को जी नहीं चाहता,
दोनों यह जानते हुए मरे कि उनका मरना तय है.
इस भिज्ञता से बड़ी पीड़ा भला और क्या होगी,
कि साँस अब रूक जानी है, लहू अब जम जाना है.
हरकत जिंदगानी की थम जानी है.

मौत, राजेश खन्ना के आनंद की कोई कविता नहीं है, न कोई रूमानी अदांज-ए-बयाँ
एक गाज है, गिरती है, तबाह करती है.
मौत खालीपन की वह अँधेरी खाई है, जो जाने वाला कभी न भर पाने के लिए छोड़ जाता है.
स्नेह के फेहरिस्त से किसी का भी जाना आपकी भी मौत है...
उस हिस्से की मौत है जहाँ वे थे, भरे-अटे, कब्ज़ा किए, हक़ से ।

2. अम्मा ..

देख आती है कमरा बार-बार,
मेरी भतीजी के हँसने का खिलौना गायब है।
गायब है उसकी तेल मालिश, दुलार, फटकार सब गायब है
गोर-हाथ दबा देने की अरज गायब है।

खूब सरिआया हुआ बिस्तर काटने को दौड़ता हो शायद,
उस बिस्तर को देखते हैं लगातार
बैठ जाती थी, जिसपर दिन भर की लेटी वह
उनके शाम को आने पर,
देखती थी नैन भर
क्षणभर बिना नागा मुस्कराती थी
कम बोलते हैं अब, बोलते हैं खुद से,
वह गायब है

उस फोन को देखता हूँ,
जिसपर देखकर उन्हें अनदेखा किया बार बार
आज नाम खोज, बारहा ठिठक जाता हूँ
उनके रहते कभी न जता पाया
कि अम्मा एक खुली किताब तो केवल तुम्हारे सामने ही हो पाया
और आज तू गायब है।

एक जानेवाला यह ज़रूर जता जाता है
कि वक़्त रहते एक काम ज़रूर करना चाहिए
मसलन प्रेम खूब सारा, चाहिए करना
उसे झुन्नू वाले बाबा की तरह खूब खूब बांट देना चाहिए
वक़्त रहते।

3. सब बचा रह जाता है ..

इस मर्त्य संसार में,
कोई मरता नहीं,
कुछ भी बिसरता नहीं,
न बुरा, न अच्छा
सब बचा रह जाता है

खूब लाड़ पाया पोता
दादा को अपनी अंतिम सांस तक जिलाये रखता है

खूब सताया गया बेटा
क्रूर बाप की स्मृति शेष नहीं कर पाता

बहुत दिन बाद अपने मास्टर को देख
एक प्रौढ़ खाता है भय

यौन शोषण का शिकार एक लड़का
जवानी बाद भी गली बदल, घर को जाता है

प्रेम में नाकाम पुरुष
ताउम्र, इश्क की गुत्थियाँ सुलझाता है

रिश्तों में ठुकराई स्त्री
अपनी तमाम मजबूती के बावजूद, फफक पड़ती है कभी-कभार

पिता का साथ पाई बेटी
जीवन भर, हर किसी में पिता का नेह तलाशती है

माँ की शिकायतों से आजिज़ बेटा
बुढ़ापे में डाँटने वाली माँ की बाट जोहता है

प्रेम के सबसे अंतरंग क्षणों को
जुदा हो गया एक जोड़ा, एक सिम्त मुस्कान के साथ अंत तक जीता है

दोस्ती में ठगा गया साथी
यार की मक्कारी पर उम्र भर शर्मिंदा रहता है

सब खत्म हो जाने का खामख्याल पाले
क्षणभंगुर मनुष्य
महज़ गुज़रे लम्हातों की तपिश को कम या ज़ियादा भर कर सकता है
कि वह अभिशप्त है,
निस्सहाय,
अपना कल ढोने को किंचित मजबूर।

4. दकियानूसी ..

नसें खींचा जाती यह कहते, कि मैं नास्तिक हूँ
वे पीठ थपथपाने लगते,
बोलते, नास्तिक भी तो आस्तिक ही है!

जातिवादी तंज एक दिन मेरी जान ले लेंगी,
वे बोलते, इसमें तुम्हारा क्या दोष ! कहीं तो जन्मना था ही !

मै कहता, तुम्हारे त्यौहार मुझे बिखेर देते हैं, देते हैं शर्मिंदगी,
नज़र फेर लो क्या है, एक दो घंटे भर का तो मामला होता है, वे कहते.

इतना प्रतिक्रियावादी होना ठीक नहीं,
मैं कहता, तुम्हारी नैतिकताओं के बोझ मेरे पुरखों ने बहुत उठाये हैं,
अब और नहीं.

वे अपनी धूर्तताओं में जब शिकस्त खाते तो जैसा हमेशा से कहते आये हैं,
फिर कहते, तुम सठिया गए हो,
मैंने कहता, मुझे साँस खातिर खुला आसमान चाहिए,
अब तुम और तुम्हारा कोई ज्ञान, बिलकुल नहीं,
तुम, तुम्हारी पोथियाँ, तुम्हारे ईश्वर, तुम्हारी आस्तिकता, तुम्हारे त्यौहार, सबने मिलकर बनिये से,
हमें खूब ठगा है.

अब हमारी बारी है..हम एक से दो, दो से चार हैं अब,
वे दिन दूर नहीं जब तुम लाचार होवोगे
तुम्हारी पोथियों का मोल रद्दी होगा और खुदाओं की टकसालों पर जो लगेंगे ताले
वे हम काफिरों के होंगे ।

5. हुजूर रास्ता बदल दीजिये ..

हुजूर !
हमारा कोई दोष नहीं
हजारों सालों से आपकी छत्रछाया ने
हमको ऐसा बना दिया है

आप हमें कितना भी दुत्कारें
हम बड़ा मान देते हैं

गली मोहल्ले में कोई चोरी हो
तो हमारी आँखें हमारी तरफ ही होती हैं।

कोई जनाना बदचलन हुई
निश्चित ही हमारी ही होगी।

कोई लड़की गायब हुई
हमारा लड़का धरा जाएगा।

हुजूर, आप दाँत चियार के सरेआम एलान कर सकते हैं
बाभन हम, हमारे उदर संतुष्ट कीजिये।
जो हम नहीं कर पाते हुजूर!
मत पूछिये !
दुःख से गड़ जाते हैं।
हम तो अपनी क्षीणकाया का सार्वजनिक हवाला भी नहीं दे सकते-
यह दुबरा सरीर भूख और बीमारी की उपज है!

हुजूर ! निश्चिंत रहिये,
आप लोग अब भी बहुत मिहनत करते हैं,
हमारी हीनता ग्रन्थि अब भी बरकरार है
हम अपने काम छोड़ आपकी सेवा-टहल को पुन्न मानते हैं।

हुजूर, एक दिक्कत हो आई है
ये नयका छौरा-छौरी,
कुच्छो नहीं जानता-बूझता
बहुत मूँह जोर है सब।
न बड़-छोट का लिहाज
हुँह! बकलोल सब !

हुजूर, ई सब क्या जानेगा आपकी करुणा!
बोलता है गरुड़ पुराण ठगी है,
रेखा-भाग कुछौ नहीं होता,
बोलता है पंडी जी को बोलिये
कोई दूसरा काम काज ढूँढें,
आएँ, खेत जोतें,
लोहा ढालें,
जजमानी त्यागें,
आकास से जमीन पर उतरें,
बोलता है सादी अब कोरट-कचहरी में कर लेंगे
बोलता है पंडी जी आएँ तो गमछा न लाएँ।

हुजूर इन दुष्टों को देखिए
रास्ता बदल दीजिये
कोई ठौर-ठिकाना नहीं।
का तो बौराये रहता है,
बहुजन बहुजन करता रहता है।
हुजूर ! बड़ा नादान है सब !
इनको छमा कीजिये !

6. मेरा मानिए मशविरा ..

यह देश अब वह देश नहीं रहा,
न रिश्ते रहे पुराने से,
न अब तरकीबें किसी काम की रहीं
अब के जो गिरह पड़ीं,
गाँठ बन के रह गईं

अब कोई नहीं ऐसी जगह
कि ठकठकाये दरवाज़ा कोई मज़लूम
और फैसला उसके हक़ में आ जाय

किसी मंदिर की बुनियाद नहीं मिली ऐसी,
न मस्जिद कोई
इंसान अव्वल हो जहाँ, औ' खुदा दूसरे खित्ते में जाये

अब न धूमिल सा ताव रहा,
न दुष्यंत सी बेचैनी,
न मुक्तिबोध का उजालों की हिम्मत लिए वह अंधेरा
न लाल सिंह दिल की दिलेरी
न पाश का खालिस प्रेम
न वह तल्ख विडम्बना रामदास की रघुवीरी
न परसाई का खंजर सा पैबस्त होता मज़ाक,
न वाल्मीकि की पीड़ा लाचारी
न विद्रोही सा फौलादी धधकता सीना
न राजकमल सी बेबाक ईमानदारी
अब न कबीर कोई, न रैदास, न नानक, न मीरा खुदमुख्तार

नायकों से कंगाल हो रहे इस मुल्क में
अपनी तासीर खो चुकी है ज़बान,
न गुज़रे दौर सा तंज रहा, न बेचैनी,
न हक़ के सवालात रहे, न हैरानी।

एक गुजारिश है,
मेरी राय पर अमल कीजिये
अब समूचे देश को बना दीजिये अखाड़ा
करते रहें नूरा कुश्ती
मेरे वतन के बाशिंदे बदमस्त
गुलाब के अत्तर और शहद में लपेट
बाँटिये मज़हब की भाँग
लिख दीजिये वसीयतें राम के नाम की
नर-मुंडों की ध्वजाएँ-पताकाएँ फहराईये

अब के,
राम भी राम नहीं रहे
फतवा-ए-हिन्द हो गए...
रहीम के ज़िक्र से फिलहाल कर लीजिये तौबा
उनसे किसी का हित नहीं सधता, आज-कल में

अब के
जो उलझ गया है...
उलझे रहने दीजिए ...
उसके सुलझने का सिरा मिलना मुश्किल है।

अब के
कोई मरासिम भी नहीं
कोई गफलत भी नहीं
अब के
बस हम हैं
एक रँगी, एक ख्याल,
खुद से निपटते, खुद को निपटाते।

मेरा मानिए मश्विरा
करते रहिए
झंडा ऊँचा, ऊँचा, थोड़ा और ऊँचा
सबसे ऊँचा। 

7. इतना भर बचा रहना चाहिए ..

इतना बचा रहना चाहिए,
कि अकुराते दूब और बिलकुल नई पत्तियों के हल्के हरे पर विस्मित हो सकें
इतना बचा रहना चाहिए,
कि किसी दुधमुंहे बच्चे की हंसी देख हमारा दिल हल्का हरा हो जाए
इतना बचा रहना चाहिए,
कि बिछड़े यार को देख, हम हँसे तो दिल का रेशा रेशा आंखों की तरह भीग जाए
इतना बचा रहना चाहिये
कि माँ याद आए और माँ की तरह ममता हमारा करेजा छेक ले
इतना बचा रहना चाहिए
कि बादलों को बरसता देख,
मन अनायास ही बच्चे सा घर से बाहर भागने को अकुलाए
इतना बचा रहना चाहिए,
कि किसी के खुरदुरे हाथ देख
आत्मा टीस से भर-भर आये, हृदय दुखाए,
इतना बचा रहना चाहिए,
कि मिटाए जा रहे हों पहाड़ों के नामो निशाँ,
नोची जा रही हो धरती की कोख,
और हमें लगे कि हमारी नसें काट दी गई हों।

इतना बचा रहना चाहिए
कि हम जान रहें हों कि हम बचे नहीं रहेंगे
लेकिन जद्दोजहद बची रहे
इतना भर बचा रहना चाहिए ।

8. यह क्रिया चलती रही ..

रोज़ सुबह तांबे के बर्तन का पानी पिया
रोज़ सुबह घूमा-फिरा, शाम होते टहला
समय पर खाया, सोया
आरोह-अवरोह का ध्यान रखा
और मधुमेह था कि बना रहा ।

मैं सोचता मधुमेह जी का जंजाल है
पर बात और थी, रोग और था,
किससे कहता कि बीमारी असल, नपुंसकता थी
यथास्थिति को नियति मान,
शालीनता, भद्रता और ज़िम्मेदार नागरिक के घटाटोप से अपनी कमी को आच्छादित किये रखता
अप्रिय घटनाओं को पढ़ता-देखता, देख-पढ़ रख देता सैंत
यह क्रिया चलती रही...चलती रही...
रोज सुबह उठता, रोज़ रात घड़ी की सुई देख सो जाता।
समय पर दवाइयां लेता, समय पर सुइयाँ,
सबको राम-राम करता, सबके राम-नाम जाता
सब किया समय पर,
बेटियों को पढ़ाया-लिखाया, नौकरी लायक बनाया
बेटियों का 'आइडियल फादर' बना
जिसने दरअसल
कभी हाथ गन्दे नहीं किए,
पैर क्या खाक कीचड़ से सने होते।
मेरे आस पड़ोस की दुनिया, बलात्कारी दुनिया मे तब्दील होती रही
मैं शुतर्मुर्ग, बिना सड़क पर उतरे इस तसल्ली में खत्म हुआ
कि बेटियां कमाऊ हैं, आत्मनिर्भर हैं इसलिए सड़कों पर बेधड़क जा आ सकेंगी
मर्द होंगे कि उन्हें लालच से देखते हुए नहीं गुज़रेंगे।
बेटियों के बाप को सुकूँ ही सुकूँ होगा।
बिना हुज्जत, बिना यत्न, बिना संघर्ष किये
एक ज़िम्मेदार लाचार बाप
एक ख्याली दुनिया का भरम पाले
दुनिया से रुख्सत हो लिया।

9. एक धर्म, बाकी जो अभी ..

बच्चों,
यह है भारतीय किसान,
जिसके बारे में पढ़ा होगा हर जगह,
मेहनतकश, कर्मठ , दृढ़ प्रतिज्ञ.
जिसका खून गाढ़ा और देह हृष्ट-पृष्ट

बच्चों,
यह सरकारी छत अब या तब गिर पड़े,
उससे पहले तुम्हें जल्दी-जल्दी पढ़ते-पढ़ते होना होगा बड़ा.
करना होगा पुनर्पाठ.
छेनी-हथौड़ा ले, दीवार में करनी होगी छेद,
जो बेहद मोटी है और दफ्न किये हुए है जायज़ आवाजों का गट्ठर, 
तमाम कोशिशों के बाद आज भी न हो पाया कोई छेद,
तुम्हें इस क्लीशे की दुनिया से निकल,
किसान के कमर और छाती पर हाँथ रख सीधी करनी होगी रीढ़,
जो दूसरों की रीढ़ खातिर कुछ जयादा ही विनम्र हो चुका है.
पर चूका नहीं अभी.
रूका ज़रूर है.
तुम्हें फूंकने होंगे प्राण.
यही तुम्हारा ऋण यही तुम्हारा त्राण ।

10. ये कौन हैं ..

एक झूठ बोलने को सौ बार हिचक होती है,
अभी बोलना हो तो सामने वाला बगैर तकलीफ किए धर सकता है,
ये कौन हैं जो बिना पलक झपकाए, यह करामात बड़ी नफासत से कर रहे,
ये कौन हैं, जो तहजीब की दुहाई दिन-रात देते मर रहे,
ये कौन हैं, जिनके लिए सब दुश्मन हैं, सब गद्दार,
ये कौन हैं, जो हमारे हक़ में हैं, और हम हैं कि सांस लेने तक को लाचार,
ये कौन हैं जो गुज़रे दंगों से कुछ हासिल न कर पाए,
ये कौन हैं जो सरहदों की लकीरों के खौफनाक मंजर भूला आए,
ये कौन हैं जो हजारों-लाखों से मेरा झूठा मुस्तकबिल तय कर रहे,
ये कौन है जो मुझसे मेरी पहचान चुरा रहे, मुझे हिन्दू-मुसलमाँ बता रहे,
ये कौन है जो काले दिन का जश्न सा मना रहे, बेवजह हुई मौतों का मज़ाक उड़ा रहे.

कहीं ये मेरे मुंसिफ तो नहीं! कहीं ये हमारे रहबर तो नहीं!
दौलतमंदों के साथ दिखते, पाए गए जो अक्सर
खेल रहे चौसर, बदमस्त होकर,
जो मर रही गोटियाँ, वह मैं ही तो नहीं, वह तुम ही तो नहीं!
जो इनकी नवाज़िश हो, ख़ुदा भी साथ हो,
जो इन्हें नागवार गुज़रे, बद तो हैं, ...और हों जाए बदतर.
और महफूज़ हो कि सो जाएँ पहले ही मौत से गले मिलकर
जनाब ! ये हैं बादशाह इस मुल्क के, इनकी कोई कौम नहीं, न ज़ात कोई, ईमान नहीं.
केवल ठसक इनकी. केवल यही.
बदनीयत, बगैरत, बेशर्म, बदनुमा...लाहौल विला...अब कुछ बचा ही नहीं ।

Monday, September 7, 2020

किसने यह अफ़वाह उड़ाई है : राजेश कमल की कविताएँ






अपनी छोटी कविताओं में पूरे पैनेपन के साथ अपनी बात को रखने वाले कवि हैं राजेश कमल । आकार में छोटी कविताओं से यह अपेक्षा होती है कि वे कथ्य में नुकीली तो हों ही अपने असर में मारक अवश्य हों । राजेश कमल की निगाह अपने समय का एक पैनोरामिक दृश्य खींचती है जिसमें अलग अलग कोनों में कुछ ऐसी छवि जरूर पकड़ में आती है जो उस समूचे फ्रेम को महत्वपूर्ण बनाती है ।

जीवन में बाजार की लगातार गहरी होती पैठ को चिन्हित करते हुए कवि इसबात पर चिंता जताता है कि मनुष्य की रुचि को और उसकी राय को भी बाजार अपनी गिरफ्त में ले चुका है और कुछ भी कहने से पहले वह उसके लिए पहले से तय किया हुआ सा कुछ प्रस्तुत कर देता है और इस तरह सोचने समझने और कहने सुनने की क्षमता के बावजूद मनुष्य को बाजार की ताकत ने खामोश कर दिया है । वह कुछ सोचे या कहे इससे पहले बाजार के विकल्प उसकी गोदी में गिरने लगते हैं और वह अवाक देखता रह जाता है ।

जीवन का बही खाता देखता और खोने पाने का मिलान करता हुआ कवि पाता है कि कुल जमा जीवन जो उसके पास है उसमें कितनी कम चीजों के लिए जगह बची है । वह अपने हिसाब में पाता है कि जीवन का कुल हासिल कुछ कविताएँ, कुछ दोस्त, कुछ चिट्ठियाँ, घर में अतिथियों की तरह रहते आये बुज़ुर्ग, कम बातें करने वाले बच्चे और उदास रहने वाली स्त्री के अलावा कोई हासिल नहीं रहा । एक साधारण भारतीय युवा के जीवन का यही लेखा जोखा है ।

परिदृश्य में लगातार हो रही हत्याओं में अपराधी का हर बार पकड़ में न आना और व्यवस्था की व्यर्थता पर कवि की दृष्टि है । वह अपने चुटीले अंदाज़ में इन तमाम हत्यारों के ईश्वर की अदृश्य लाठी की तरह न दिखाई देने को लक्षित करते हुए इसे हर शुक्रवार रिलीज होने वाला सिनेमा बताता है । इस तरह वह व्यवस्था के विद्रूप को उकेरने की कोशिश करता है ।

दुनियादारी के बरक्स अनाड़ीपन को रखता हुआ यह कवि दुनियावी सफलता की व्यर्थता के सवाल को संबोधित करता है और अपने जीने के तरीके पर शर्मशार है । यह एक तरह का आत्मधिक्कार है जो ऐसी तमाम उपलब्धियों के पीछे जीवन में छीजती आत्मीयता और नष्ट होते कोमल पक्षों की बेचैनी तक जाता है ।

दुःख और सुख की कुछ बेहद आत्मीय छवियाँ हैं राजेश कमल के यहाँ । दुःख यहाँ एक आतंकवादी की तरह आता है और कोई ईश्वर भी उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाता । एक बेरोजगार का दुख अलग है और उसके पिता का दुख अलग । माँ के दुख का रंग इन सबसे अलग है । यह देखना प्रीतिकर है कि दहेज और बेरोजगारी के सवाल इन कविताओं में उभरते हैं ।

छोटे छोटे सुखों के बीच जरा सी नींद पर भी नजरदारी करता हुआ समय जब मनुष्य के सभी कष्टों के लिए उसकी नींद को ही दायी ठहराता है तब वह चीख उठता है इस दुष्प्रचार के खिलाफ । वह बताना चाहता है कि उसकी नींद एक अफ़वाह है । इस तरह राजेश कमल की कविताओं में जीवन के कुछ विश्वसनीय खण्डचित्र अंकित दिखाई देते हैं । आने वाले समय में राजेश कमल की कविताओं से उम्मीद रहेगी । 

राजेश कमल की दस कविताएँ :

1. सब पता है..

इससे पहले कि बोलूँ
मेरी आवाज़ गूँजने लगती है

इससे पहले कि मेरी तस्वीर उतारी जाए
लग जाती है वो शहर के होर्डिंग्स में

इससे पहले की उतारूँ एक निराश चेहरा
एक खिलखिलाता चेहरा दौड़ने लगता है

इससे पहले कि पहनूँ अपना पसंदीदा कुर्ता पजामा
कोई चीख़ता है टीवी पर

उन्हें
उन्हें मेरी राय का पता है
मेरी इच्छा पता है
मेरे विचार मालूम हैं

ऐसे ही थोड़े किया गया है ख़ामोश मुझे
उन्हें सब पता है ।



2. कुल जमा..

कुछ कविताएँ हैं
जो कुछ और भी हो सकती हैं

कुछ मित्र हैं
जो कुछ और भी हो सकते हैं

कुछ पातियाँ हैं प्रेम की
जो किसी का लड़कपन कहा जा सकता है

एक घर है
जहाँ अतिथियों की तरह हैं बुज़ुर्ग

बच्चे हैं ,
जो कम बोलते हैं ,इशारों में करते हैं बातें

एक स्त्री है ,
जो वर्षों से उदास है

यही है
जीवन का कुल जमा ।



3. शुक्रवार कम पड जायेंगे..

गाँधी को संघियों ने नहीं मारा

कलबुर्गी ,दाभोलकर,पानसरे और
गौरी लंकेस को भी संघियों ने नहीं मारा

किसी को उसकी सद्भावना ने ,
किसी को उसकी कलम ने मारा
संघियों ने तो कतई नहीं मारा

किसानों की मौत का कारण कदापि सरकारें नहीं थीं
उन्हें तो नपुंसकता ने मारा

और पहलू खान ?
उसे तो किसी ने नहीं मारा

सुना था ईश्वर का डंडा दिखाई नहीं देता
यहाँ तो हत्यारे की शक्ल ही दिखाई नहीं देती

इश्वर तुम पे भारी है हत्यारा
एक फिल्म थी

'नो वन किल्ड जेसिका'
अब कितनी ऐसी फ़िल्में बनाओगे फिल्मकारों

शायद शुक्रवार कम पड जाय
बहुत ही कम ।



 4. जन्म दिवस..

कायस्थ मनाते हैं राजेंद्र बाबू की जयंती
राजपूत महाराणा प्रताप  की जयंती मनातें हैं

दिनकर जी को भूमिहारों ने आइकॉन बनाया है
और ब्राह्मण समय समय पर अपने आइकॉन बदलते रहते हैं

क्योंकि उनकी जाति ने तो हजारों सालों से नायकों की फौज तैयार की है

भगत सिंह को एक नेता वर्षों राजपूत मानता आया
और हमारे इलाके में उनकी जयंती मनाई जाती रही

जब इल्म हुआ तब बंद हुआ
आजकल बाबू वीर कुंवर सिंह की जयंती मनाई जाती है

शुक्र है कि जातियाँ बची हुई हैं
वरना हम कब के भूल चुके होते अपने नायकों को !



5. कभी कभी सोचता हूँ..

कभी कभी सोचता हूँ
कितना अच्छा होता अगर
यारों के साथ
करता रहता गप्प
और बीत जाता यह जीवन

कितना अच्छा होता अगर
मासूक की आँखों में पड़ा रहता बेसुध
और बीत जाता यह जीवन

लेकिन
वक़्त ने कुछ और ही तय कर रखा था
हमारे जीने मारने का समय

मुंह अँधेरे से रात को
बिछौने पर गिर जाने तक का समय
और कभी कभी तो उसके बाद भी

कि अब याद रहता है सिर्फ काम
काम याने जिसके मिलते है दाम
कि वर्षों हो गए
उस पुराने शहर को गए
जिसने दिया पहला प्रेम

कि वर्षों हो गए
उस पुराने शहर को गए
जिसने दी यारों की एक फ़ौज़
और अब तो भूल गया उस माँ को भी
जिसने दी यह काया

शर्म आती है ऐसी जिंदगी पर
कि कुत्ते भी पाल ही लेते है पेट अपना
और हमने दुनिया को बेहतर बनाने के लिए
ऐसा कुछ किया भी नहीं

कभी कभी सोंचता हूँ
कितना अच्छा होता अगर दुनियादारी न सीखी होती
अनाड़ी रहता
और बीत जाता यह जीवन ।



6. दुख..

बेरोज़गारी है मेरा दुख
पिता का दुख है एक अदद दामाद
और माँ का दुख तो अनंत है

जीवन में नमक की तरह घुस आए
इस आतंकवादी से
कोई नहीं मांगता पहचान पत्र

कहाँ से आते है दुख
कौन देता है इन्हें जन्म
कहाँ है घर इनका

कुछ प्रश्न अनुत्तरित है अभी

लेकिन
यही है परम सत्य
की दुख
अपनी पूरी उम्र जी के जाता है

ईश्वर कभी उसे
अकाल मृत्यु नहीं देता ।



7. बुरे दिनों में..

बहनें मुस्कुराना छोड़ देतीं हैं
उखड़े उखड़े होते है पिता

लड़कियाँ छत पे नहीं आतीं
और पतंग आसमान में नहीं

बुरे दिनों में
दोस्तों के फ़ोन नहीं आते 
पड़ोस की लड़की के गाने की आवाज नहीं आती

और इन दिनों
चांदनी रातें भी उमस से भरी होती है

बुरे दिन पहाडों की तरह होते हैं
इन दिनों सपने भी डरे डरे होते हैं

और हम
जलते हुए शब्दों की बू में जीते हैं

लेकिन 
अच्छे दिनों की
कुछ कतरनें हैं हमारे पास
हम सहेज कर रखते हैं उन कतरनों को

कि बुरे दिन भी महकने लगें
अच्छे दिनों की तरह ।



8. सुख..

मैं सोया हुआ था तब
जब गुनगुना रही थीं तुम

सुख चहुँओर पसरा था
प्रेम बरस रहा था मुझ पर

आँखे भी खुली थीं मेरी
लेकिन मैं सो रहा था

तस्वीरें टँगी हैं दीवारों पे
कितनी मुहब्बत है यहाँ

आने जाने वाले कर रहे हैं रस्क
मैं तस्वीरों का अभिनेता
बेख़बर
कभी की-बोर्ड पर
कभी सिगरेट के कस में
कभी अख़बार के तीसरे पन्ने में
कभी नीली रौशनी में
कभी हज़ारों फ़ुट ऊपर
कभी ज़मीन पर

मेरी नींद की ख़बर फैल रही थी
घर के कोने कोने में
और मैं अचरज में चिल्ला रहा था
मेरी आँखें देखो
खुली हैं
बिलकुल खुली हैं
किसने यह अफ़वाह उड़ाई है
मैं सो रहा हूँ ।



9. सुघड़ कार्यकर्ता..

तानाशाही एक प्रवृति है
एक कवि भी तानाशाह हो सकता है

एक पेंटर भी
एक प्रेमी भी
एक विद्वान भी

भ्रम में था सुघड़ लोगों की बिरादरी में हूँ
इधर
कोई वैसा ना होगा

लेकिन मिले
इधर भी मिले
बात बात पे चूतर लाल कर देने वाले
इधर भी मिले

सपने सारे खेत हुए
हलुवे सारे रेत हुए ।



10. लौटना..

इन्हीं क़दमों से
आबाद था कोई रास्ता

हमने भुला दिया
उसी रास्ते से थी पहचान हमारी

हमने भुला दिया
आज चौड़ी सड़कों की धूल
हमारे तलुवे को गुदगुदाती है

एक बार
जब फिर लौटने की चाह ने
बेचैन किया
मैंने स्वप्न में देखा
पुरानी पगडंडियाँ हमसे पूछ रहीं है

तुम कौन ?


Tuesday, September 1, 2020

इस पार की दुनिया वैसी नहीं है : पूनम विश्वकर्मा 'वासम' की कविताएँ






पूनम विश्वकर्मा की कविताओं में आदिम समाज के बदलते जीवन की धड़कनों को महसूस करना हिंदी कविता के पाठक के लिए अपने पाँवों के तले एक नई जमीन को महसूस करने वाला अनुभव है जहाँ बकौल त्रिलोचन एक "लड़ता हुआ समाज" अपनी "नई आशा अभिलाषा" के साथ जीवंत उपस्थित हो उठता है । भाषा के स्तर पर पूनम विश्वकर्मा की कविताएँ हिंदी कविता की शब्द संपदा को समृद्ध करती हैं और यह एक बड़ा अवदान है जिसे रेखांकित किया जाना जरूरी है । बहुत सारे जीवन प्रसंग, उनकी अलग अलग छवियाँ, उनका भाषिक स्वरूप और इन सबके मिले जुले प्रभाव से बनने वाला कविता का नया वितान पूनम विश्वकर्मा के काव्य संसार को विशिष्ट बनाते हैं । इन कविताओं में जो चरित्र अपने जीवंत रूपों के साथ उभरते हैं उनकी एक अमिट छाप स्मृति पर बनती है । ये जीवन चरित्र इस अर्थ में काव्यात्मक हैं कि ये सिर्फ करुणा नहीं पैदा करते बल्कि जीवन स्थितियों से सीधे टकराते भी हैं ।

पूनम विश्वकर्मा को कवि रूप में अपने पर्यावरण के निर्दोष चितेरे के रूप में देखना इन कविताओं को तंग दायरे में देखने जैसा होगा । इस कवि ने अपनी कविताओं में परिवेश और परिस्थिति के वस्तुगत आकलन से बहुत आगे जाते हुए कार्य कारण सम्बन्धों की व्याख्या करते हुए जीवन के त्रासद चित्रों की परतों को एक कुशल शल्यचिकित्सक की तरह खोलकर रख दिया है । यहाँ जो भोक्ता है वह अपने दुखों को ठीक ठीक जानता है और इसलिए दुखों से प्रतिकार का मार्ग भी उसे पता होता है । वह अपनी लड़ाई में कितना कामयाब होता है इस बात से इतर उसका यूँ लड़ाई के मोर्चे पर होना उसे नायकत्व की ऊँचाई देता है ।

कैसा है पूनम विश्वकर्मा की कविता का लोक ? इस सवाल का पीछा करता हुआ पाठक जिस संसार में प्रवेश करता है उसमें बैलाडीला के पहाड़ हैं, अभिवादन में हाथ जोड़ना छोड़कर जोहार कहना सीखती हुई हथेलियाँ हैं, महुए की गंध है, टोरा के बीज फोड़ते हुए कठोर हाथ हैं, सरई के पेड़ हैं, चापड़ा-लांदा-सल्फी-पेज-ताड़ी का जीवन रस है, जीवन रस से लबालब तूम्बा है, रेलगाड़ी देखने की आस में बूढ़े होते बच्चे हैं, बारूद के पानी पानी होने की कामना में डूबा प्रेम है और जहाँ जाल फेंकती, केकड़े का शिकार करती जलपरियाँ हैं । यह बस्तर का वह लोक है जो जानना चाहता है कि उसके हिस्से के उजालों को किसने ढक रखा है । यह लोक जानता है कि बैलाडीला के सारे लोहे पर उसके "बाप का नाम लिखा है" अर्थात वह अपने हक की बात निष्कंप कण्ठ से कहने का कलेजा भी रखता है । बाप के नाम से पहचानने का अर्थ सीधे सीधे अपने उत्तराधिकार की घोषणा है ।

श्रमजीवी आदिवासी स्त्री के सौंदर्य की कविता है "मिथक नहीं हैं जलपरियाँ" जिनको निहारते हुए सूरज का चेहरा भी शर्म से लाल हो जाता है । संसाधनों के लूट की तरफ इशारा करती कविता है "बीरमैया गुट्टा के उसपार इसपार" जहाँ एकतरफ सुविधा से भरा पूरा समाज है तो दूसरी तरफ वंचित जन की वेदनादायक जीवन स्थितियाँ हैं । इस कविता संसार में धरती को अपने दोनों हाथ उधार देने के लिए तत्पर एक ऐसा मन है जो पेड़ को धरती के चेहरे का काला टीका मानता आया है । आधुनिक मनुष्य जो लाभ के लिए पेड़ों को काटता आया है इस संवेदना को कैसे समझ सकता है ।

प्रेम का जो आदिम चित्र पूनम विश्वकर्मा की कविताओं में अपनी स्वाभाविकता के साथ दर्ज होता है वह दुर्लभ है । यहाँ सीने को चीरती शत्रु की गोली के बारुद को पानी पानी कर देने वाले मंत्र की कामना है । इस प्रेम में औदात्य है , प्रतिहिंसा नहीं है । यह प्रेम मीठे पान का एक टुकड़ा अपनी जीभ पर पाकर रीझना जानता है । यह प्रेम टोरा तेल से चुपड़े बालों के कालेपन को देखकर मुस्कुराता है । कहना चाहिए कि इन कविताओं की सादगी ही उसकी ताकत है ।




पूनम विश्वकर्मा की दस कविताएँ :


1. बैलाडीला के लोहे पर मेरे बाप का नाम दर्ज है ..


बैल के कन्धे का उभरा हुआ हिस्सा जैसी

आकृति लिए तुम लोहे का नहीं हमारे लिए

हिम्मत का पहाड़ हो 

जिसकी सबसे ऊँची चोटी "नंदी राज पर्वत " को पूजते आए हैं हमारे पुरखे !


यूँ ही नहीं पुकारते तुम्हें बस्तर वासी गर्व से 

"बस्तर का मस्तक" कि 

हमारे बच्चे हाथों में पेंसिल का एक टुकड़ा थामे 

तुम्हारी जड़ों में दबी

रानी प्रफुल्ल कुमारी देवी की नार खींच कर 

तुम्हें उनकी शहादत के लहू से रंग सकते हैं 

रानी की कुर्बानियों के किस्से में

बहुत से रंग अभी बाकी हैं !


तुम हमारे लिए खारे पानी की झील हो

जिसके किनारे ,खड़े हो कर हम

बैलाडीला ...बैलाडीला

मय आँय बस्तर चो

आदिवासी पीला जैसा मीठा गीत 

गुनगुना सकते हैं

बावजूद हमारे गले में नहीं उतर सकती तुम 

जून की भरी दोपहर में

ज्वार व मंडिया पेज की तरह !


तुम्हारी देह से सारा लहू चूसने के बाद भी

तुम तन कर खड़ी रहोगी

तुम्हारे पास हरे सोने की खदानें तैयार खड़ी हैं 

तुम्हारी देह का सारा माँस गिध्दों के नोच लेने के बाद भी 

तुम दान कर सकती हो भूखे,नंगों को अपनी हड्डियों का कैल्शियम !


तुम्हारी साँसों को जापान के जंगलों की

हवाओं की आदत नहीं 

नगरनार की जरा सी गर्मी में पिघल 

सकती हो तुम शुद्ध सोने की तरह 

तुम्हें खरीद सकने की जुगत में

रूस की हवाइयाँ निकल गई !

 

तुम मूलधन के किसी ब्याज की तरह 

इसकी उसकी तिजोरी में भले ही जा गिरो 

लोहे की पटरी पर दौड़ती हुई तुम

तड़पती हो लौट-लौट आने की हड़बड़ी में 

जबकि तुम जानती हो

तुम्हारी देह हमारे लिए किसी "नागमणि" की तरह है

तुम्हारी  माँसल देह से नहीं बल्कि तुम्हारी हड्डियों की जोड़ से तैयार किया है हमने 

अपने हिस्से का खुला आकाश !


अच्छा तुम्हें याद है

दीवार पर टंगी हुई  तुम्हारी देह से बनी इस तलवार ने

साफ किया हो कभी अपनी नोंक पर लग आये जंग को किसी भेड़िए के ताजा खून से !


यह तो सब जानते हैं 

तुम्हारी गर्भ में पीढ़ियों तक लोहे का भ्रूण पलेगा

पर यह कोई नहीं जानता 

पैदा होने वाले लोहे पर 

अब किसी अजनबी के बाप होने का

ठप्पा नहीं लगेगा !


हमारी हथेलियों ने अभिवादन में दोनों हाथ जोड़ना छोड़कर जोहार कहना सीख लिया है !



2. सही अंत ..


तुम्हारे शरीर से महुए की गंध आती है

तुम्हारा चेहरा किसी बर्फ़ीली नदी सा सफेद हुआ जाता है

टोरा बीज फोड़ते हुए कठोर हुए जाते हैं तुम्हारे हाथ


तुम लूगा घुटनों तक बाँधती हो

तुम्हारे पैरों के नीचे फूटने वाला कोयला

तुम्हारी देह की गर्मी से आग हुआ जाता है

तुम्हारी फटी हुई एड़ियाँ सोख लेती हैं 

धरती का कसैलापन


तुम्हारा मन पुड़गा के जले हुए पत्ते पर

झर कर बिखर जाता है यहीं कहीं खेत की मिट्टी में


विदा से पहले तुम भर लेती हो आँचल में

मौसमी फलों के बीज


जीवन का सही अंत सिर्फ तुम्हें पता है 

मरने के बाद तुम्हारी आत्मा सरई का पेड़ होना चाहती है 

ताकि किसी मोटियारी के गुदना में 

तुम देख सको संसार का सुख


 ◆


3. मैं  धरती से  क्षमा मांगना चाहती हूँ ..


मैं धरती को अपने दोनों हाथ उधार देती हूँ

बड़ी जोर से धक्का मारकर चाहे तो धरती खुद को धकेल सकती है सालों साल पीछे


जहाँ मेरे  पूर्वज दरवाज़े पर पानी का कसेला लिए इंतजार कर रहे हैं पाँव पखारने का 

जहाँ जंगल के प्रेम में बौराई  प्रेमिका

अपने जूड़े में पके फलों की महक लिए लौटती है

जहाँ हल की नोंक से धरती तोड़ती है अपनी अंगड़ाइयाँ


मैं  धरती से  क्षमा मांगना चाहती हूँ 

टूटे हुए घरों  की कसम खा कर

बोनसाई के पौधों से 

एक्वेरियम में साँस लेती मछलियों से 

पिंजरे में कैद मेरी मैना से

उन तमाम पेड़ों की छालों से जंगली फूलों से 

मधुमक्खी के छत्तों से 

पहाड़ों की घटती हुई उम्र से 


मैं धरती को अपने दोनों हाथ उधार देती  हूँ 

धरती चाहे तो उगा सकती है मेरी हथेलियों पर एक पेड़ 


पेड़  धरती के लिए काला टीका है जिसके होने से उतारी जा सकती है धरती की बुरी से बुरी नज़र



4. ऐसे लोग ..


पेन की निब तोड़कर सजा नहीं दी जाती 

न ही कागज पर लिखी हुई कोई धारा

पढ़कर सुनाई जाती है

गोलियाँ गिन कर नहीं डाली जातीं बन्दूकों में


जिनकी ढिबरी में 

स्याही का रंग घुला नहीं 

उन्हें कागज बनने की प्रक्रिया जान कर क्या करना ?


टेका मराम के पत्तों पर लिखी हो 

जिनकी जन्मकुंडली 

वे लोग पण्डित के पास 

अपनी हस्तरेखा दिखाने नहीं जाते 


कट्टुल पर मरी देह लाद कर 

गाँव से बाहर छोड़ आने वाले

अध्दाझारे के पत्ते चबा,

कडू  तुरइयाँ खाकर शरीर से 

साँपों का जहर उतार आते हैं 

ऐसे लोगों को 

कैंसर की नई दवाइयों की खेप  का क्या वास्ता ?


पंडुम पर जीवाल संग खिली हुई ऐद की ताप में

मिट्टी का मन बूझने वाले  

मिट्टी में दोरसाया होना पसंद करते हैं 


ऐसे अबूझ लोगों को समझाना कितना कठिन काम है !

कि जीता -जागता, बोलता, हँसता, गाता 

रोता, लड़ता- भिड़ता  कोई देश भी है

जिसकी परिधि में उनका भी एक लोन है 


कुछ लोग हवा की तरह नहीं आते 

अपने होने का सबूत लेकर 

कि उनका होना कागज पर छपी हुई कोई लकीर नहीं।


(शब्दार्थ : टेका मरम = सागौन के पेड़ / कट्टुल = खटिया / अध्दाझारे = एक ऐसा वृक्ष जिसकी टहनियों को दातून की तरह इस्तेमाल किया जाता है / जीवाल = जिससे प्रेम होता है / ऐद = धूप / दोरसाया = मिट्टी व धूल से सना हुआ शरीर / लोन = घर) 



5. घूमता है बस्तर भी ...


पृथ्वी घूमती है अपनी धुरी पर 

कि पृथ्वी का घूमना तय क्रम है 

अँधेरे के बाद उजाले के लिए

कि घूमती है पृथ्वी तो घूमता है

संग-संग बस्तर भी

पृथ्वी की धुरी पर !


पृथ्वी घूमती है अपनी धुरी पर तेजी से 

कि घूमता है बस्तर भी उतनी ही तेजी से

इसकी, उसकी तिज़ोरी में

गणतंत्र का उपहास उड़ाता,

काले धन की तरह 

छिपता-छिपाता ।

पहाड़ों की तलहटी और जंगलों की ओट से 

जब भी झांकता, दबोच लिया जाता है

किसी मेमने की तरह !


पृथ्वी घूमती है अपनी धुरी पर 

कि घूमता है बस्तर भी

इसकी, उसकी कहानियों में 

चापड़ा, लांदा, सल्फ़ी घोटुल, चित्रकूट के 

बहते पानी में बनती इंद्रधनुष की 'परछाइयों' सा

जब भी कोशिश की बस्तर ने

सूरज से सीधे सांठ-गाँठ की..

निचोड़कर सारा रस

तेंदू, साल, बीज की टहनियों पर तब-तब

टाँग दिया गया बस्तर को सूखने के लिए !


पृथ्वी घूमती है अपनी धुरी पर 

कि घूमता है बस्तर भी देश-विदेश में

उतनी ही तेजी से 

किसी अजायब घर की तरह..

जिसे देखा ,सुना और पढ़ा तो जा सकता है 

किसी रोचक किस्से-कहानी में 

बिना कुछ कहे निःशब्द होकर !


पृथ्वी घूमती है अपनी धुरी पर

कि घूमता है बस्तर भी 

अपने सीने में छुपाये पक्षपात का ख़ूनी खंज़र !

न जाने वह कौन सी ओजन परत है.. 

जिसने ढक रखा है 

बस्तर के हिस्से का

सारा उजला सबेरा ?



6. मुक़दमा ..

     

हजारों  वृक्षो की हत्या का मुक़दमा

दायर किया बची- खुची सूखी पत्तियों ने 

बुलाया गया उन हत्यारों को 

दी गई हाथ में  गीता

कसम भी खाया भरी अदालत में

कि जो कुछ कहेंगे सच कहेंगे 

कहा भी वही जो सच था !


अदालत ने भी माना कि 

वृक्षों की हत्या कोई सोची-समझी रणनीति नही थी

और नही कोई साज़िश रची थी हत्यारों ने 

क़सूर तो था वृक्षो का जिन्होंने कि थी कोशिश

धरती को सूरज की तपिश से बचायें रखने की 


मूर्ख  थे सारे के सारे वृक्ष

मान बैठें खुद को चाँद की मौन किरणों की भाषा का

सबसे बड़ा अनुवादक !


थी बादलों से भी  इनकी सांठ -गांठ 

इसलिए रोप आते थे धरती की कोख़ में

अंसख्य नन्ही-नन्ही बूंदों को 

नीले समुन्द्र की खेती के लिए 


मूर्ख थे सारे के सारे वृक्ष

कंक्रीट के जंगलों में उगाना चाहते थे गुलमोहर के फ़ूल

मधुक्खियों  से इनकी अच्छी जमती थी

इसलिए बाँट आते थे तितलियों को

उनके हिस्से का दाना-पानी


अपनी हवाओं के बदले 

हमारी सांसे  रखना चाहतें थे गिरवी 

इसलिए उन सारे वृक्षो को उखाड़ कर फेंक दिया

जिनकी जड़े जुड़ी हुई थी हमारे हिस्से की मिट्टी से !


मूर्ख थे सारे के सारे वृक्ष इन्हें शायद पता नही कि

जिन्दा रहने के लिए अब  कृत्रिम हवा ही काफ़ी है 


डाली से अलग हुई सूखी पत्तियों को भी 

उतनी अक़्ल कहाँ कि 

करते विरोध वृक्षो की हत्या का

अच्छा होता ग़र समय रहते सारे के सारे वृक्ष बैठ जाते

बिना कुछ कहें बिना कुछ सुनें अनशन पर



7. तूम्बा गेला फूटी, देवा गेला उठी ..

  

पूजा घर मे रखे ताँबे और काँसे के पात्र से 

कहीं ज्यादा, यूँ कहे कि

रसोईघर के बर्तनों से भी ज्यादा प्रिय है 

हमारे लिए तूम्बा


पेज, ताड़ी, महुआ और दारू 

यहाँ तक की पीने का पानी रखने का सबसे सुगम व सुरक्षित पात्र के रूप में चिन्हाकित है तूम्बा !


तूम्बा का होना हमारी धरती पर जीवन का संकेत है 

जब हवा नहीं थी, मिट्टी भी नहीं थी 

तब पानी पर तैरते एकमात्र तूम्बे को 

भीमादेव ने खींच कर थाम लिया था

अपनी हथेलियों पर  


नागर चला कर पृथ्वी की उत्पत्ति का

बीज बोया भीमादेव ने

तब से पेड़-पौधे, जड़ी-बूटियां, घास-फूस 

इस धरती पर लहलहा रहे है 


वैसे ही तूम्बा हम गोंड आदिवासियों के जीवन में

हवा और पानी की तरह शामिल है 


तूम्बा मात्र पात्र नही, हमारी आस्था का केंद्रबिंदु भी है 


जब तक तूम्बा सही-सलामत 

ताड़ी ,सल्फ़ी, छिंद-रस से लबालब भरा हुआ 

हमारे कांधे पर लटक रहा है

तब तक हमारा कोई कुछ नही बिगाड़ सकता


बचा रहेगा तूम्बा, तो कह सकते हैं

कि बची रहेगी आदि-जातियाँ

गोंड-भतरा, मुरिया

और वजूद में रहेगी जमीन और जंगल की संस्कृति 


खड़ा ही रहेगा अमानवीयता के विरुद्ध बना मोर्चा 

तूम्बा किसी अभेदी दीवार की तरह

कि तूम्बा का खड़ा रहना प्रतीक है मानवीय सभ्यता का 


दुनिया भले ही चाँद-तारों तक पहुँचने के लिए

लाख हाथ-पैर मार ले 

पर हमारे लिए सबसे ज्यादा जरूरी है

तूम्बे को बचाये रखना


हर हाल में, हर परिस्थिति में

क्योकि तूम्बा का फूटना 

अपशकुन है हम सबके लिए !


◆ 


8. बीरमैय्या गुट्टा के उस पार-इस पार ..


उस पार


बीरमैय्या गुट्टा के उस पार स्कूल में बच्चों को अ से अनार आ से आम ही पढ़ाया जाता है 

दिखाई जाती है बड़े पर्दे पर देशभक्ति की फिल्में


बच्चे सीखते है जूते की लेश को कसकर बाँधने के कई तरीके  

सीखते है टाई-बेल्ट लगाने की विधि


फुटबॉल खेलते हुये भीगते हैं बारिश में

क्रिकेट खेलते हुये देखते हैं खुद को सचिन तेंदुलकर की तरह


नन्हें-नन्हें कदमों से फिसलपट्टी पर चढ़कर पैरों के निशान छोड़ आते है धातु की प्लेट पर


अन्तरिक्ष से झाँकती 

सपनो की दो बड़ी-बड़ी आँखों में डुबकी लगाकर 

तय कर आते है अपने हिस्से का धूमकेतु


रेल की पटरियों संग-संग भागता है उनके शहर में निकलने वाला  सूरज  

भागते है बूढ़े, बड़े, जवान 

भागता है शहर का कोना-कोना


गुट्टा के उस पार कभी नहीं डूबता सूरज

कि सबकुछ बिल्कुल वैसा ही होता है जैसा बच्चों की दुनिया मे होना चाहिये ।


इस पार


बीरमैय्या गुट्टा के इस पार

रेलगाड़ी देखने की आस में बूढे हो गये कई बच्चे


इनके पैरों के नाप का जूता अब तक नहीं बना

इनकी पेंट की सिलाई में कच्चे धागे का इस्तेमाल होता है ताकि इन्हें फुलपैंट पहनने की आदत न पड़ जाये


अक्षर के नाम पर लाल स्याही से लिखी 

कुछ अधपकी कहानियों का पुडा संभाल रखा है बच्चों ने अपने स्कूली बस्ते में


बच्चे बैलाडीला की पहाड़ियों को खोदते है जमा करते हैं

अपने हिस्से का 

मुठ्ठी भर लोहे का चूरा 

बारूद की खेती के लिए !


इन्हें कुछ पता हो, या न हो पर यह जरूर पता है 

यहाँ का मौसम बारूद की फसल के लिए अनुकूल है


बंटवारे में बच्चों के हिस्से 

कभी नहीं आया पहाड़ का वह हिस्सा 

जिस पर लोहे की फसल पककर तैयार होती है


बल्कि यह जरूर हुआ  

कच्चे माल को साफ करने के लिए इस्तेमाल की जाती रही

इनके हिस्से की नदी


जंगल से छंटनी कर ली गई सारी जड़ी बूटियां 

लूट लिया लुटेरों ने जंगल का सारा खजाना

 

जिनके दम पर दो वक्त की रोटी का दम्भ भरते बड़े हुये थे इनके पूर्वज !


आदत कभी पड़ी ही नही इन बच्चों को भरपेट खाने की


उम्र से पहले बड़े हो जाने की सारी कलाओं में माहिर है इनकी इंद्रिया

एक दिन में चार गुना बढ़ता है इनका शरीर


गुट्टा के इस पार बच्चों ने 

सूरज को छू कर अब तक दाम बदने को राजी नहीं किया

नाराज सूरज छिपकर बैठा है किसी बड़े से बंगले के पीछे 


अनाड़ी है सारे के सारे बच्चे 

समझतें ही नहीं खेल के नियम

कि इनकी हार में ही छुपा है किसी की जीत का मंत्र !


उपजाऊ जमीनें धीरे-धीरे बंजर हो रही हैं

बीरमैय्या गुट्टा के इस पार बच्चों ने पैदा होने से इंकार कर दिया है


इस पार की दुनिया वैसी नही है 

जैसी बच्चों के लिए होनी चाहिए !


(बीरमैय्या गुट्टा* उस पहाड़ का नाम है जिसके उस पार तेलंगाना राज्य है जहाँ  रोज विकास की नई कहानी लिखी जाती है और गुट्टा पहाड़ के इस पार केवल और केवल उपेक्षा की कहानी ।)



9. बारूद पानी पानी हो जाये ..


तुम्हारा हाथ थामे बैठी हूँ मैं नम्बी जलप्रपात की गोद में जहाँ तितलियाँ  मेरे खोसे में लगे कनकमराल के फूलों से बतिया रही हैं


तुम हौले से मीठे पान का एक टुकड़ा धर देते हो, मेरी जीभ पर 

और मैं अपनी मोतियों की माला को भींचकर दबोच लेती हूँ मुठ्ठी में


तुम कहते हो कानों के करीब आ कर 

चाँद को हथेलियों के बीच रखकर वक्त आ गया है 

मन्नत माँगने का 


टोरा तेल से चिपड़े बालों के कालेपन को देखकर 

तुम मुस्कुरा देते हो 

मेरे खोसे से पड़िया निकालकर प्लास्टिक की कंघी खोंच

प्रेम का इज़हार करते तुम्हे देखकर

मैं दुनिया के सबसे अमीर लोगो की सूची में खोजती हूँ अपना नाम 


खुशी के मारे मेरे हाथ 

गुड़ाखू की डिबिया से निकाल बैठते हैं 

अपने हिस्से का सुकून  

पानी की तेज धार से तुम झोंकते हो अपनी हथेलियों में

मेरा चेहरा धोने लायक ठंडा पानी 


ठीक उसी वक्त 

तुम चाहते हो मेरे साथ मांदर की थाप पर  

कुछ इस तरह नृत्य करना  

कि पिछले महीने न्यूनरेन्द्र टॉकीज की बालकनी में बैठकर देखी गई शाहरुख, काजोल की फ़िल्म का कोई हिस्सा लगे

 

तुम्हारे चेहरे को पढ़ रही हूँ ऐसे 

जैसे ब्लैकबोर्ड पर इमरोज़ की अमृता के लिए लिखी कोई कविता 


तुम हँसते हो जब 

पगडंडियों की जगह मैं दिखाती हूँ तुम्हे 

डामर की सड़कों पर दौड़ती कुशवाहा की बसें 


तुम गुनगुनाने लगते हो तब

तुमसा कोई प्यारा, कोई मासूम नहीं है 

कि तुम जान हो मेरी तुम्हे मालूम नही है


और खिलखिलाहट के साथ लाल हो उठता है मेरा चेहरा शर्म से 


तुम कसकर मुझे बाँहो में धर लेते हो कि

तभी बारूद की तीखी गंध से मेरा सिर चकराने लगता है 

घनी झाड़ियों ऊँचे पहाड़ो को चीरती 

एक गोली तुम्हारे सीने के उस हिस्से को भेदती हुई गुजर जाती है 

स्वप्न की उसी टेक पर जहाँ अभी-अभी मैंने अपना सिर टिकाया था 


यह स्वप्न है या दुःस्वप्न कहना मुश्किल है 


मैं चीख चीख कर तुम्हे पुकारती हूँ तुम कहीँ नहीं हो 


मैं चाहती हूँ लौट आओ तुम पाकलू

किसी ऐसे मंतर जादू टोने के साथ 

कि तमाम बंदूकों का बारूद पानी-पानी हो जाये 



10.  मिथक नही हैं जलपरियाँ ..


जलपरियों ने नहीं छोड़ा इस विकट समय में भी चित्रकूट जलप्रपात का साथ 

कि दिख जाती हैं जलपरियां दिनभर की दिहाड़ी के बाद तेज धूप में झुलसी त्वचा पर खेत की गीली मिट्टी का लेप लगाती 


एक ही बेड़ी से बंधे बालों का जी उकता जाने के डर से 

अपने खोसा के मुरझाये फूलों को पानी की तेज धार संग छिटक कर कहीं दूर बहाती


घुटनों तक लिपटी उनकी लूगा की गाँठ खुलकर 

जब फैल जाती है नदी में,

तब नदी का दिल हल्दी में लिपटी मोटियारिन की तरह धड़कने लगता है. 


लूगा को इस तरह पटक-पटक कर धोती हैं 

कि नदी की सारी मछलियां मदहोश हो उनकी लूगा से लिपटकर 

कोई उन्मादी गीत गुनगुनाने लगती हैं.


इंद्रधनुष की छवियाँ भी देर तक टकटकी  लगाये निहारती है जलपरियों के इस अदभुत सौंदर्य को 


कभी-कभी लकड़ी के भारी गठ्ठर यहीं कहीं किनारे पटक हाथों के छालो को अनदेखा कर

छिंद के पत्तो को चबा-चबा

अपने होठों को लाल कर

नदी के पानी में खुद को निहारती लाल होंठो को धीमे से भींचती बुदबुदाती हुई शर्माती हैं

शायद उस एक वक्त कोई मीठा सपना पल रहा होता है उनकी आँखों में 


अक्सर दिख जाती हैं जलपरियां जाल फेंकती हुई

केकड़े का शिकार करती हुई


हांडी-बर्तन धोती

खेतों की मेड़ों पर नाचती

पत्थरों पर मेहंदी के ताजे पत्तों को पीसती

या फिर आम के वृक्षों से लाल चींटियां इकठ्ठा करती हुई

खोसा के लिए जंगल से पेड़ों की पत्तियां चुनती 


जलपरियों का होना कोई मिथक बात नहीं है कि


सचमुच की होती है जलपरियां !

हिड़मे ,आयति, मनकी ,झुनकी,पायकी की देह के रूप में


'डोंगा चो डोंगी आन दादा रे' गीत गुनगुनाती  

चित्रकुट जलप्रपात के बहते पानी में नृत्य करती 

जलपरियों को निहारते हुये सूरज का चेहरा भी शर्म से लाल हो जाता है


सांझ होने से पहले,

मुठ्ठी भर प्रेम लेकर अपने घरों की ओर भागती 

इन जलपरियों को देखना 

दुनिया की तमाम  खूबसूरत घटनाओं में से एक है ।