Saturday, January 25, 2020

तुम्हारे लिए मिथिला का पान होना चाहता हूँ : कुमार सौरभ की कविताएँ



कुमार सौरभ की कविताओं में मनुष्यता के पक्ष में विश्वसनीय गवाहियाँ हैं । इन गवाहियों में एक तर्क-पद्धति है जो कवि के बयान पर यक़ीन पैदा करती है । जिस उम्र में लोग इस विश्वास के साथ जीते हैं कि प्रेम में सबकुछ जायज है उस उम्र में यह कवि प्रेम को लेकर एक नए स्वप्नलोक को गढ़ रहा है । वह प्रेम में कभी मिथिला का पान बन जाने की इच्छा से भरा दिखता है तो कभी प्रेम में वियतनाम हो जाने का संकल्प भी लेता दिखाई देता है । हिन्दी कविता में प्रेम की यह जमीन सर्वथा अलग है जिसमें आवारगी के साथ साथ अनुशासन की प्रस्तावना भी है । यह प्रेम खतरे उठाता है किन्तु डरा हुआ नहीं है । दुनियावी प्रगति के सिद्धांतों में इस प्रेम का विश्वास नहीं है । यह सबकुछ पा लेने की होड़ में शामिल नहीं होना चाहता ।अभावों और संघर्षों की आँच में परवान चढ़ने वाला यह प्रेम हाशिए की जिंदगी की आवाज़ बनता है । सपनों के लिए बड़ी कीमत चुकाने को प्रस्तुत यह प्रेम नुचे पंखों के बावजूद परवाज़ का अदम्य हौसला रखता है ।


हिन्दी में प्रेम कविताओं में भावुकता अधिक स्थान घेरती रही है । एक उदाहरण लेते हैं । जिन दिनों आर्थिक मोर्चे पर उदारीकरण की दस्तक सुनाई देने लगी थी लगभग उन्हीं दिनों हिन्दी में बद्री नारायण की प्रेमपत्र शीर्षक कविता को उस दौर के आलोचकों ने रेखांकित किया । क्या सन्देश है इस कविता में ? प्रेमपत्र पर खतरे ही खतरे दिखाई दे रहे हैं । प्रेमपत्र पर खतरा प्रकारांतर से प्रेम पर खतरा ही है । इस खतरे के सामने कवि खुद को निपट अकेला पाता है और असहाय भी । वह प्रेमपत्र बचाना तो चाहता है लेकिन वह अपने अकेलेपन के आगे असहाय है । एक कवि का निपट अकेलापन कैसा होता है जिसमें कोई उसकी सहायता के लिए उसके साथ खड़ा होने वाला नहीं है । हिन्दी में प्रेम की कविताओं का मूल स्वर इसके आस पास ही ठहरता है । बहुत सारी चीज़ों को कवि बचाना तो चाहता है लेकिन वह इसका मूल्य चुकाने के लिए कितना तैयार है यह सवाल कभी उभर कर सामने आ नहीं पाता । कुमार सौरभ यहाँ इसलिए भी ध्यान खींचते हैं कि यहाँ एक अलग मनोभूमि का कवि हमे देखने को मिलता   है जो प्रेम में वियतनाम और फिलिस्तीन होने की बात कर रहा है ।

कुमार सौरभ के यहाँ कविता अपने स्व की एक तलाश है जिसमें विवेक सम्मत समझदारी कवि के साथ बराबर बनी रहती है । अपनी पहचान को लेकर कवि बेहद सतर्क और सजग है । वह अपने को जीवन और समाज के उन हिस्सों के साथ जोड़ता है जहाँ सन्नाटा और अँधेरा है । यह विच्छिन्नतावाद के विरुद्ध एक सजग प्रतिवाद है । जीवन को समग्रता में जीने की बात करता है कवि, जिसमें अगर कहीं थोड़ी चिकनाई है तो बहुत कुछ खुरदुरा भी है । वह जीवन को इस खुरदुरेपन के साथ जीना चाहता है ।

जीवन में जो कुछ सुंदर है उससे प्रेम तो सामान्य तौर पर कोई भी साधारण व्यक्ति करता ही है । असुंदर के लिए प्रेम का आग्रह एक नई बात है । यह कहना कि मुझे चाहो तो मेरे सुंदर के साथ-साथ मेरे असुंदर को भी चाहो एक ईमानदार अभिव्यक्ति है । ईमानदार इसलिए कि जीवन के असुंदर पक्ष को छुपा लेने अथवा उसे ढक देने की प्रवृत्ति ही हमारे सामान्य अनुभव का हिस्सा बन पाती है । ऐसा नहीं कि जीवन के खुरदुरेपन पर इससे पहले कविता में जगह नहीं मिली थी । खुरदुरी हथेलियों को न छुपाने का आग्रह केशव तिवारी की एक कविता में भी आता है । कुमार सौरभ इसे जीवन दर्शन की ऊँचाई तक ले जाते हैं । और इस अर्थ में कविता विशिष्ट बन जाती है ।

दुनिया को बेहतर बनाने का स्वप्न लेकर कुमार सौरभ की कविता आगे बढ़ती है । भय, पीड़ा और बेबसी को भोगने की कीमत पर दुनिया को संवारने को तैयार नागरिक मन कविता के केंद्र में है । क्षोभ, आक्रोश और विद्रोह को अपने मन में पालने के लिए प्रस्तुत कवि आत्म त्याग के लिए भी स्वयं को प्रस्तुत करता है । संघर्षों में सहभागिता के लिए कवि तैयार है । उसे अपनी ताकत के छोटे होने का अहसास है तो साथ ही छोटी-छोटी ताकतों की सामूहिकता में विश्वास भी है ।

दुनियादार आदमी सुख को ही जीवन का लक्ष्य मानता रहा है । हिन्दी में बहुत सी बढ़िया कविताएँ हैं सुख-दुःख के दार्शनिक पक्ष को लेकर । निराला ने दुःख को ही जीवन की कथा कहा । दुष्यंत कुमार अपनी एक ग़ज़ल में कहते है  - दुःख को बहुत संभाल के रखना पड़ा हमें,  सुख तो किसी कपूर की टिकिया सा उड़ गया । ध्यान देने की बात यह है कि सामान्य तौर पर कवियों में दुःख के प्रति जो स्थायी भाव रहा वह कहीं न कहीं उनको नियतिवादी बनाता है । राजी ख़ुशी दुःख को कुबूलने का साहस विरल है ।

आत्म सजगता को कुमार सौरभ की कविता में रेखांकित किया जा सकता है । कवि अपनी भूमिका के बारे में सचेत है । वह कृतज्ञता के बोझ को नहीं बनना चाहता । वह सहभागिता के सुख का तलबगार है । छोटे-छोटे प्रयासों में ही वह जीवन की सार्थकता की खोज करता है । परदुःखकातरता कविता के केंद्र में है जहाँ कवि किसी की स्मृति में एक साथी और सहृदय की भाँति बना रहना चाहता है और बदले में कसी किस्म की कृतज्ञता या धन्यवाद की सांसारिक आकांक्षा उसे नहीं है | यह कवि कभी किसी के दुखते हुए सिर पर हाथ रखता है तो कभी किसी के साथ घंटों वक़्त बिताता है जब सामने वाले को इसकी बहुत जरूरत होती है | वह किसी की शर्ट से टूट कर गिरा हुआ बटन उसे सौपते हुए खुश हो लेता है और अपनी बोतल में बच गए बहुत थोड़े से पानी को भिकिसी प्यासे के साथ बाँटते हुए अपने होने का अर्थ तलाश लेता है | वह दूसरों के लिए रोशनी किओ परवाह एक ऐसे समय में भी करने के लिए प्रस्तुत होता है जबकि खुद उसके जीवन में अँधेरा है | एक अच्छे मनुष्य के ये उच्चतर मूल्य हैं जिन्हें कवि अपने जीवन में उतारने की बात करता है | उसे इस बात की तनिक भी चिंता नहीं है कि किसी ने उसके इस जीवन-व्यवहार के लिए उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित किया या नहीं |  

कुमार सौरभ की कविता में वैषम्य का दारुण चित्र है । यहाँ दीवाली का अर्थ सबके लिए एक जैसा नहीं रह जाता । गृहदाह में सौंदर्य के माध्यम से कवि इसी विडम्बना की तरफ संकेत करता है । घोंसले के पक्षी के लिए दीवाली आनन्द का पर्व नहीं है , वह इससे कष्ट का अनुभव करता है । एक तरफ वे घोंसले हैं जहाँ अँधेरा ही अँधेरा है तो दूसरी तरफ उन घरों का चित्र है जहाँ काली अमावस के बीच भी सौंदर्य है | यह सौंदर्य कैसा है इसे जानने की जो कुंजी कवि देता है वह है गृहदाह | गृहदाह का आमफ़हम मतलब है घर में आग लगना | सवाल है कि क्या यह आग कबीर वाली आग है ? कबीर कहते हैं जो घर फूँके आपना चले हमारे साथ | यह घर फूँकना अभिधा मेन नहीं बल्कि अपने व्यंजनात्मक अर्थों में खुलता है | कहा जा सकता है कि कुमार सौरभ गृहदाह और अमावस के मेल में जिस सौंदर्य को अभिव्यक्त कर रहे हैं उसके व्यंजनात्मक निहितार्थ हैं | लेकिन कविता में आगे जो सूत्र हाथ लगते हैं वे किसी अप्रत्याशित रोशनी और शहर में व्याप्त शोर और रंगीनीयों से भी जुडते हैं | शहर का कविता में यूं आना अगर कविता के एक ध्रुवान्त पर है तो उसके दूसरे ध्रुवान्त पर सीमान्त के खाली गाँव हैं | इस तरह कविता में एक विडम्बना अपनी कारुणिकता के साथ अभिव्यक्त होती है |

कविता में कवि का अपना आत्मकथ्य भी दर्ज होता है । लोकप्रियता के लिए वह कोई समझौता नहीं करना चाहता बल्कि अलोकप्रियता की कीमत पर अपने को सच के साथ खड़ा देखना चाहता है । उसे अपने बढ़ते शत्रुओं की चिंता नहीं है । जहाँ दुनिया को सुंदर बनाने का स्वप्न ही सबसे बड़ा प्रश्न है वहाँ कवि अपनी सांसरिक उपलब्धियों को दांव पर लगाने को तैयार है | कुमार सौरभ का यह स्वप्न कहीं न कहीं मुक्तिबोध के उस स्वप्न के साथ भी जुड़ता है जिसमें जो है उससे बेहतर का स्वप्न मौजूद है | वह दुनिया को सुंदर बनाने वाले तमाम अवयवों से, विचारों से, प्रयासों से और सबसे बढ़ कर निरंतर खोजे जा रहे सच से प्रेम के लिए बाकी सारी चीजों को छोडने को तत्पर है | ध्यान देने कि चीज़ यहाँ यह है कि सच निरंतर खोजे जाने के क्रम में कवि के पास आता है | यह एक अलग भंगिमा है कविता में क्योंकि कविता के स्टीरियोटाइप में तो सच को पहले ही पा लिया गया होता है | यह कवि को विश्वसनीय बनाने वाली काव्य भंगिमा है |

जहाँ सहजता है वहीं खुलापन भी है । यह खुलापन इतना सहज है कि नग्नता भी एक दूसरे की आत्मा तक पहुँचने का रास्ता मात्र है , अर्थात कुछ भी छुपाने की चतुराई या विवशता यहाँ संबंधों में काम्य नहीं है । कवि का सहज प्रश्न है कि कुछ भी छुपाने की विवशता ही क्यों हो | उसकी चिंता उस जगह कि तलाश भी है जहाँ आदमी सहज होकर अपने को पूरी तरह खोल सके | वह देह तक ही नहीं बल्कि आत्मा तक जाने वाला रास्ता बननाने कि बात भी करता है | यह सहजता आज के जीवनमें इतनी दुर्लभ वस्तु बन चुकी है कि इस मामूली से वक्तव्य में भी कविता का सौंदर्य प्रकट हुए बिना नहीं रह पाता | कवि जीवन में परस्पर उस पारदर्शिता का आग्रही है जहाँ एक दूसरे को ढकने वाले वस्त्र तक अवांछित प्रतीत होते हों | यह एक सरल मन के कवि की निष्कलुष भावना है जो मूलतः अकृत्रिम जीवन के सिद्धान्त पर टिकी है |

कवि , तमाम छल प्रपंच से दूर , सत्य और न्याय के पक्ष में खड़ा है । वह गरिमामय जीवन के संघर्षों में शरीक होने का रास्ता चुनता है । समकालीन साहित्यिक परिदृश्य में यह एक युवा कवि का अपना स्टैंड है । वह अपनी पक्षधरता के प्रश्न पर भी बहुत स्पष्ट और दुविधाओं से मुक्त दिखाई देता है । कवि का आग्रह बारीक पहचान करते हुए लगातार सत्य और न्याय के पक्ष में खड़ा रहना है और इसके निमित्त वह कुसंगति से दूर रहना चाहता है | उल्लेखनीय यहाँ यह है कि यह कुसंगति का मार्ग इस दौर में सफलता के लिए सामान्यतः जरूरी ही मान लिया गया है | एक-एक करके कवि इन कुसंगतियों को रेखांकित करता है | इनमें कविता-कथा-आलोचना पुस्तकों के विज्ञापनों और आत्मप्रचार के तमाम हथकंडे हैं, स्वार्थ-छल-जुगाड़ से प्रपट डिग्रियाँ और तमाम पुरस्कार हैं, झूठे आक्रोश और दिखावटी तेवर वाली व्यर्थ कि बहसें हैं, व्यक्तित्वहीनता के साथ रीढ़ की हड्डियों का आभासी झुकाव है, बदनीयती-बेईमानी-आत्ममुग्धता तथा दुर्भावना-कुंठा-काइयानपन के साथ कायरता है | सफलता की इन संकरी और चोर गलियों से गुजरने के बजाय यह कवि संघर्षों का मार्ग चुनता है और इसीलिए अपने समय में एक मजबूत संभावना बन कर उभरता है |

कविता में ग्लोबल और लोकल के बीच की टकराहट भी दर्ज होती है । स्थानिकता के प्रति कवि का आग्रह रेखांकित करने लायक है । यहाँ स्पष्ट यह भी है कि तथाकथित विकास कैसे स्थानिकताओं को निगल जाता है । कविता में विकास के मौजूदा मॉडल पर एक जिरह भी साथ साथ चलती है । कवि का दुःख यह है कि वह सुपौल का रहने वाला है और महानगरों में उसे सुपौल के नाम से अपनी पहचान कराने में बहुत मुश्किल पेश आती है | इस पहचान को और स्पष्ट करने के लिए उसे कोसी-कछार और मधेपुरा का पड़ोसी बताना पड़ता है खुद को | वह सुपौल कि अपनी निजी पहचान को लेकर व्यथित है और कई असहज करने वाले प्रश्नों के सम्मुखीन होता है | और उसका दुःख यह है कि जिस दिन सुपौल की पहचान ठीक वैसी ही बन जाएगी जैसी कि कोसी या मधेपुरा की है तो उस दिन सुपौल अपनी निजस्वता कहाँ बचा पाएगा | यह स्थानिकता के विलोप का दुःख है जो कवि के हृदय में किसी काँटे की तरह गड़ा हुआ है |  उसकी चिंता यह भी है कि जिस दिन सुपौल भी कोसी-मधेपुरा की पहचान कोरजीत कर लेगा उस दिन सुपौल को याद करते हुए उसकी आँखें कोसी और चेहरा मधेपुरा हो जया करेगा | कवि को अपने सुपौल की पहचान सुपौल की अपनी स्थानिकता और निजस्वता के साथ चाहिए | कहना चाहिए कि ग्लोबल होने के दबाव में यह लोकल को बचा लेने की एक जद्दोजहद है |

कमजोर की उपेक्षा की कीमत पर ताकतवर के विकास के सवाल को कवि संबोधित करता है । वह साफ साफ देख रहा है कि पंजाब, मुम्बई और दिल्ली के बरक्स सुपौल जैसी जगहों की उपेक्षा किस प्रकार होती रही है । कुमार सौरभ अपनी कविता में महानगरों के विकास का मानविक विश्लेषण लेकर आते हैं | यह एक आर्थिक-सामाजिक जिरह है जिसके राजनैतिक सरोकार भी कम महत्वपूर्ण नहीं है | कवि मुम्बई-दिल्ली-पंजाब के बर-अक्स सुपौल का मानचित्र पाठक के आगे रख देता है | वह अपने पाठक को विश्वास में लेते हुए बताता है कि सुपौल को एक छोटी लाइन की रेलगाड़ी सहरसा जंक्शन से जोड़ती है | यहाँ से आगे की यात्रा कठिन है | दूरवर्ती गाड़ियों का लम्बा इंतज़ार है | और यह सब तब है जबकि गाड़ियों का इंतज़ार करते लोगों ने किराये की पूरी रकम चुकाई है | विकास के नक्शे पर इन छोटी जगहों और छोटे स्टेशनों का जिक्र नहीं होता और वे लगातार वंचना के शिकार होते जाते हैं | कवि का आकलन है कि सुपौल जैसी जगहों के हिस्से से चुरा लिए गए संसाधनों से ही दिल्ली-मुम्बई-पंजाब जैसी जगहें विकास की पटरी पर तेज दौड़ पाती हैं | यह समान अवसर के मूलभूत और संवैधानिक अधिकारों की उपेक्षा है | सुपौल और दिल्ली-मुम्बई के द्वैत के बीच शोषण और वंचना को बढ़ाने वाला आर्थिक विकास का मॉडल है जिसपर कुमार सौरभ इस कविता में चोट करते हैं |


कुमार सौरभ की कविताएँ :


1. तुम्हारे लिए

तुम्हारे लिए मिथिला का पान होना चाहता हूँ
आवारगी में लातिनी अमेरिका
अनुशासन में जापान होना चाहता हूँ !

तंगहाल है
ख़तरे में है
डरा हुआ पिट्ठू गुलाम नहीं
ऐसा ही स्वाभिमान
ऐसी ही पहचान होना चाहता हूँ
मैं हो चि मिन्ह का वियतनाम होना चाहता हूँ ।

मेरी प्रगति को दुनियावी मानकों से मत मापना
इस होड़ में मैं शामिल नहीं
हासिल हो जीवन का कुछ
तो यही हो
मैं भूटान होना चाहता हूँ ।

अभावों में रहते हुए भी इसी ने हमें पाला है
हर जगह, हर समय, हर परिस्थिति में जूझता
मैं हाशिये का हिन्दुस्तान होना चाहता हूँ ।

यह सपनों का शहर है
और पंख नोच लिए गये हैं हमारे
बावज़ूद, किसी दूर गंतव्य के लिए 
मैं तुम्हारी उड़ान होना चाहता हूँ !

उग आए मेरी चारो तरफ इजराइल कई फिर भी
फलिस्तीन मैं मेरी जान होना चाहता हूँ !

2. मुझे चाहो तो

मुझे चाहो तो
उस कोने को चाहो
जहाँ सन्नाटा है
घुप्प अंधेरा है !

वे नज़रें किसी और की होंगी
जो सराहेंगी मुझे
साक्षी रख सूरज के सातों घोड़े
तुमने न देखा तो क्या देखा
मुझमें अंतहीन सुरंग
साथ चलती अंधेरी खाइयाँ

मुझे दुलारो तो
उन हिस्सों को दुलारो
जो जले हुए हैं
चूमो तो उन होठों को चूमो
जो फटे हुए हैं !!

3. भोगूँ मैं वे दुख सभी
भोगूँ मैं वे दुख सभी
जो भोगता कोई कहीं है इसलिये
कि नहीं दुनिया है वैसी
जैसी होनी चाहिए !

डराएँ
वे डर मुझे
बेधे मुझे वे वेदनाएँ
और तड़पाएँ मुझे वे बेबसी
जो हैं गुँथते
रोज कितने अनुभवों में इसलिए
कि नहीं दुनिया है वैसी
जैसी होनी चाहिए !

वे क्षोभ
वे आक्रोश
वे विद्रोह
मुझमें पले दहके
जो हैं पनपते
किसी मन में
कहीं क्षण भर के लिए भी इसलिए
कि नहीं दुनिया है वैसी
जैसी होनी चाहिए !

सामर्थ्य भर जो लड़ रहे
लड़ते हुए जो मर गये
जो डर गये
जो अवाक हैं
लाचार हैं
जो निरीह व अनजान हैं
संग उनके मैं भी
अपनी तुच्छ ताक़त जोड़ दूँ
चाहिए वैसी ही दुनिया
जैसी होनी चाहिए !


4. फिर भी किसी को याद आऊँ तो

न रहूँ किसी के धन्यवाद ज्ञापन में
किसी के आत्मकथ्य
में मेरी पैठ न हो
किसी के सुखी दिनों में तो विस्मृत ही रहूँ
शरीक रहूँ किसी के दुखी दिनों में तब भी
उबरते दिनों पर कृतज्ञता का बोझ न बनूँ

किसी को याद आ जाऊँ फिर भी
तो इस तरह आऊँ
कि मैंने कभी किसी के दुखते हुए सिर पर हाथ रखा था
कि किसीके साथ मैंने घंटों तब बिताए थे
जब उसे इसकी जरूरत थी
कि किसी की शर्ट से टूट कर गिरा हुआ बटन
मैंने उठा कर उसे सौंपा था
कि मैंने बोतल के खत्म हो रहे पानी से किसी की प्यास बाँटी थी
कि मैंने किसी के लिए रोशनी की परवाह तब की थी
जब मैं खुद अंधेरा हुआ करता था !!


5. दिवाली रात पंछी

घोंसले दीये नहीं जलाते
कितना तो सुंदर है अमावस
गृहदाह से

यह हस्तक्षेप क्यों?
अप्रत्याशित रोशनी
रंगीनियाँ
शहर भर शोर


आँखें
सीमान्त के खाली गाँव
फेफड़े में भूकम्प

बेचारे, रात भर पंछी !

6. बढ़ती जाए मेरी अलोकप्रियता

मुझे चाहने वाले बहुत कम हों
इज़ाफा होता रहे दुश्मनों में मेरे
यही उचित अनुपात है
बढ़ता जाए मेरा प्यार इस दुनिया से
इसे सुंदर बनाने वाले अवयवों से
विचारों से
प्रयासों से
जीवन से
प्रकृति से
निरंतर खोजे जा रहे सच से
बढ़ती जाए मेरी अलोकप्रियता !


7. एक दूसरे के लिए

कुछ भी छुपाने की
क्यों हो मशक्कत
ऐसी हमारी
विवशता ही क्यों हो !!

हो गुंजाइश इतनी
कि हम खोल पाएँ
समूचा ही खुद को
कोई तो जगह हो
जहाँ हम सहज हों !

करें यत्न
हम ऐसा रस्ता बनाएँ
देह तक ही नहीं
आत्मा तक पहुँच हो !

जब भी मिलें
बिल्कुल नंगे मिलें हम
वो कपड़े जला दें
जो ढँकते हमें हों !!

8. अनिवार्य है

दफा हो जाओ
अपने कविता-कथा-आलोचना संकलनों
विज्ञापनोंऔर
आत्मप्रचार के सारे हथकंडों के साथ

पदप्रच्छालन से प्राप्त डिग्रियों
प्रकाशन के आँकड़ों
घोर स्वार्थ, छल, जुगाड़
पुरस्कारों के साथ

संपादक-उपसंपादक की हैसियत
लच्छेदार बातों के साथ

प्रधानमंत्री की हास्यास्पद हरकतों की
हास्यास्पद आलोचनाओं के साथ

'ठगध्वनि' आठोयाम लाल सलाम
झूठे आक्रोश, दिखावटी तेवर,
व्यर्थ की बहसों
लम्बे फोन कॉल्स के साथ

अपनी व्यक्तित्वहीनता
रीढ़ की हड्डियों के आभासी झुकाव
बदनियती, बेइमानी, आत्ममुग्धता और
अहंकारो के साथ

अपने रद्दी सुझावों
दुर्भावनापूर्ण सहानूभूति
कुंठाओं, काइयांपन
कायरता के साथ

अपनी प्रोफेसरी,पागलपन और
छिछोरेपंथी के साथ

मुझे गरिमामय जीवन के संघर्ष में
शामिल रहना है
बारीक पहचान करते हुए लगातार
सच और न्याय के पक्ष में
खड़ा रहना है
अनिवार्य है कि कुसंगति से दूर रहना है!!

9. सुपौल को नहीं जानते हैं लोग

बताता हूँ, जिला सुपौल का हूँ
तो पूछते हैं लोग - बिहार में कहाँ ?
कोसी-कछार कहने
मधेपुरा का पड़ोसी कहने से
खुलती है इसकी पहचान !

सुपौल की अपनी कोई पहचान नहीं है !!

क्या सुपौल की मिट्टी पैदा न कर सकी
कोई झमटगर गाछ ?
कोसी बहा ले गयी उसे या
उखाड़ कर उड़ा ले गयी मधेपुरा की गर्म हवा ?
क्या सुपौल की मिट्टी कभी चढ़ी नहीं चाक पर ?
गढ़ा न गया कोई बेजोड़ शिल्प या
हमने ही उपेक्षा की शिल्प और शिल्पकार की ?

सुपौल को यह क्या होता जा रहा है !!

कोसी काटती ही जा रही है किनारे की जमीन
यहाँ उगने लगी हैं
कई किसिम की ज़हरीली घासें
पनपने लगे हैं छोटे-छोटे गढ़ मठ*
चेतना तो कभी थी ही नहीं
अब विस्मृति भी फैलती जा रही है


सोचता हूँ ; सुपौल को जानने लगेंगे लोग
जब यह कोसी या मधेपुरा हो जाएगा !
लेकिन तब यह बताते हुए कि जिला सुपौल का हूँ
आँखें कोसी हो जाया करेंगी
और चेहरा मधेपुरा !!
[*
साभार :  मुक्तिबोध की कविता से लिए गए शब्द]


10. सुपौल से छीन लिए गये

छोटी लाइन की सुस्त रेलगाड़ी से
अल सुबह ही जो सुदूर सुपौल से
सहरसा जंक्शन पहुँचे हैं
उन्हें मालूम हो कि
उनकी रेलगाड़ी
अगली सुबह आठ-साढ़े आठ से पहले
नहीं खुलनेवाली !

अपनी तरफ से एक पैसा ढिलाई नहीं
कि पूरा दिन पूरी रात काट लेंगे जंक्शन पर !!

अक्सर ही, सुपौल के हिस्से से चुरा लिए गए
ऐसे दिन-रात का साक्षी  बनता है  
सहरसा जंक्शन
इसे मालूम है
ऐसे न जाने कितने सुपौल हैं
जिनके हिस्से से
ऐसे कई दिन-रात छीन कर ही
पटरी पर रह पाता है पंजाब !
मुम्बई कर पाता है मस्ती !
और दौड़ती रह पाती है दिल्ली !
सहरसा तो महज पूर्वाभ्यास है !!