Tuesday, August 25, 2020

सबसे बंजर हैं प्रार्थना स्थल : अमृत सागर की कविताएँ




अमृत सागर गहरी राजनीतिक चेतना और सुलझे यथार्थबोध के कवि हैं जिनके यहाँ कविता का स्वर तो कोमल है किन्तु उसके अर्थविस्तार की ध्वनि तरंगें दूर तक जाती हैं । समय और समाज का सूरतेहाल अमृत की कविताओं में खूबसूरती के साथ बिना लाउड हुए ही दर्ज हो जाता है जो कवि रूप में उनकी अपनी एक स्पष्ट छाप/ पहचान भी बनाता हुआ नजर आता है । निश्चित रूप से सजग दृष्टि और सघन विचार अमृत की कविताओं को विशिष्ट बनाते हैं ।

ट्रक ड्राइवर राम सिंह की कहानी सुनते हुए आप पाते हैं कि कवि न तो आपको राम सिंह के बारे में बता रहा होता है और न ही ट्रक के बारे में बल्कि वह आपको यह बताने का यत्न कर रहा होता है कि राम से बड़ा तो राम का नाम है । इस तरह कविता मनुष्य राम सिंह की जमीन से उठती हुई आपको ईश्वरीय राम के राजनीतिकरण की प्रक्रिया से जोड़ती है । इसी तरह कवि की यह उक्ति कि "जब मिथक विज्ञान को उल्टा लटका देते हैं तब धर्म की जय होती है" कवि का राजनीतिक बयान भी है ।

एक बहुत ही सामान्य सा वक्तव्य, कोई साधारण सी छवि, कोई बहुत मामूली सा बिम्ब भी कविता में किस तरह अपने प्रभाव में मारक हो सकता है यह देखना हो तो आपको अमृत सागर की कविताओं का सतर्क पाठ करना होगा । आप पायेंगे कि सबसे हरी पत्तियाँ और सबसे लाल लहू से आरम्भ होती हुई कविता जब आगे चलती है तो इंतजार के सबसे गीला होने और आँखों के सबसे सूखे होने की बात करती है और इस क्रम में सबसे उर्वर किसान का सन्दर्भ लेते हुए जहाँ आपको छोड़ती है वहाँ आप सबसे बंजर प्रार्थना स्थलों के निष्कर्ष में कवि के साथ हैं । पाठक को विश्वास में लेते हुए और सहज संवाद करते हुए कोई लक्षित मन्तव्य उसके कान में कह जाने का कौशल अमृत सागर की कविताओं को प्रभावी बनाता है ।

गाय पर लिखी कविता के बहाने यह कवि आपके सामने विकास नाम के गढ़े हुए मिथक के विद्रूप को उभार कर रख देता है जहाँ "कटोरे में भरा रक्त चरणामृत में बदल रहा है" और एक दौर की हिंसक राजनीति का चेहरा उघड़ने लगता है । यहाँ कवि अपनी स्वाभाविक कोमलता को छोड़कर लाउडनेस के साथ अपनी बात रखता हुआ दिखता है । यहाँ यह बात भी बहसतलब हो सकती है कि जब कवि राजनीति के प्रतीक उठाता है तो कोमलता की डोर उसके हाथ से छूटने लगती है । 

पुल एक खूबसूरत बिम्ब में ढलकर अमृत की कविता में दाखिल होता है जो खुद तो खड़ा रहता है लेकिन अपने ऊपर से गुजरने वालों के लिये नदी के दोनों छोरों को जोड़े रहता है । यह अन्य के हित में स्व के त्याग अथवा लोप का विरल वृत्तांत रचता हुआ बिम्ब है । इसी तरह हाथ, बसंत और तितली जैसे बिम्ब अमृत सागर की कविताओं में अर्थ की नई चमक को अर्जित करते हुए पाठक को रस के आस्वाद का समृद्ध करते हैं ।



अमृत सागर की दस कविताएँ:

1. 
रामसिंह ट्रक चलाता है
वह अपने गांव का अकेला नहीं है
जो ट्रक चलाता है

पर राम सिंह इकलौता है अपने गांव का
जिसके नाम में राम का नाम जुड़ा है
वह कभी कभार देर रात की बैठकी में
बहुत पी लेने केबाद बार बार दुहराता है

कि राम से बड़ा राम का नाम

और वह मंडली में अपनी बात का चुनाव
भारी मतों से जीत जाता है !


2. 
इस दुनिया में भारीपन
हल्के पन के सापेक्ष असरदार है
कभी भारी बनने के लिए
शरीर वजनी हुआ करता था
बाहुबल और सेनाएं भारी थीं

फिर युक्तियों और कूटनीति
तय करने लगी भारीपन

इतिहास भारी हो जाने के लिए अभिशप्त है
और आम इंसान हलकेपन के लिए
आज इतिहास उल्टा हो
लटक रहा
न्यूटन का सिद्धांत उल्टा हो गया
जो इतिहास में सदियों से हल्का था
आज वह बहुमत में भारी है

भारीपन साबित कर
समाज शास्त्र ने विज्ञान को कई बार मात दी
पर जब मिथक विज्ञान को उल्टा लटका देते हैं
तब धर्म की जय होती है

धर्म उतना ही हल्का था
कि वह हमारे साथ रहते हुए
भी हमारे पूरे व्यक्तित्व में न दिखाई दे

इसके अनुयाइयो ने उसे पहले सबसे भारी घोषित किया
फिर उसे प्रतीकों के पंख लगाये
धर्म हल्का होने के बजाए इतना भारी हुआ
कि इंसान को लेकर जमीन पर गिर पड़ा

नियम हल्के हो गए, अब भारी हो जाने के ।


3.
सबसे हरी पत्तियां हैं
सबसे लाल लहु
सबसे ऊँचे पिता हैं और सबसे गहरी माँ

सबसे गीला इन्तजार है
और सबसे सूखी आँखे

आजभी सबसे उर्वर किसान है
जबकि सबसे बंजर हैं, प्रार्थना स्थल !


4.
एक गाय अचानक
आदमखोर भीड़ में बदल जाती है
और भीड़ मांस चबा जाने वाले जबड़े में
पूरे मुजफ्फरनगर का गन्ना मांस के लोथड़े में बदल जाता है
और गुजरात मरघट में

आखिर देखते-देखते
एक बड़बोला हत्यारा नायक में बदल गया
और उसकी नफरत, नए-नए लिबास में
जैसे ठीक इससे पहले बदली थी
एक पूरी कसाइयों की जमात संसद में
और हाथों की कलम गले की फांस में

यज्ञ बेदी से निकले धुंए से
पूरी हवा बदल गई है घुटन में
और घुटन घरों में अपनी बारी का इन्तजार कर रहे चुप्पा लोगों में बदल जाएगी
जो लगातार अपना खाना चट करते हुए सोच रहे हैं
वह तो बच ही जायेंगे

अब निश्चिंत रहो सिन्धुघाटी के पहरेदारों
धीरे-धीरे सबकुछ बदल रहा है!
न्याय, बदले में बदल रहा है
और फांसी का फंदा, फूल-माला में
ठीक वैसे ही जैसे मृत्यु, मृत्युदंड में

बोलने और चुप रहने के मौके बदल रहें हैं
सभ्यता और संस्कृति
पालतू हो जाने या बना लिए जाने के उपक्रम में बदल गई है
जैसे बदल गया है अशोक स्तम्भ का चौथा अदृश्य शेर
आदमखोर भेड़िये में !

बदल रहा है वायुमंडल, बदल रही है पृथ्वी
इस पार और उस पार का अंतर बदल रहा
अच्छे दिनों के हाथ में
विकास के नाम पर
कटोरे में भरा रक्त चरणामृत में बदल रहा है
जैसे क्रूरता बदल रही है सम्पूर्णता में !


5.
तुम्हे जब भी याद करूँगा
कविता में अर्थ की तरह याद करूँगा
जो खुद को अदृश्य रखते हुए
कृति को अजर कर देती है!

याद करूँगा
दसियों तने वाले उस बरगद की तरह
जो छांव देने के लिए
अपने अस्तित्व के
कई हिस्से कर लेता है !
उस सूरज की तरह याद करूंगा
जो अपने सौरमंडल के लिए
खुद पर/ कभी नजर नहीं टिकने देता !

हहराती नदी पर बने
उस पुल की तरह तुम्हे याद करूँगा
जो दो किनारों को जोड़ने के लिए
कभी नदी नहीं पार करता !


6.
अक्सर यादों में
सपने बुनते, तुम्हारे हाथ नजर आते हैं
जो थामे दिखते हैं
जिन्दगी की अनगिनत तस्वीरें !

जिसमें दिखते हैं
छोटे बच्चे, रंग-बिरंगे गुब्बारे थामे
एक में टहनियां, अपने अंतिम छोर पर
फूलों को सम्हाले, दिखती हैं !

तभी एक हाथ कड़ाही का कलछुल, थाम लेता है
और एक हाथ अपने उलटे तरफ से
माथे से पसीने को, ऐसे पोंछता है..
मानो ललाट का रंग, सिंदूरी ही सिद्ध कर दे !

एक हाथ, पिता का हाथ थामे
पगडंडियों पर जाता नजर आता है
अगली तस्वीर में दो हाथ
स्कूल ड्रेस पहने कंधों पर ठहर जाते हैं

एक हाथ से पतंग हवा में लहरती है
और एक हाथ मांझे में उलझ जाता है
तभी एक हाथ, जल्दी-जल्दी
घंटी बजाता, साईकिल दौडाता है!
कुछ हाथ हवा में ऊँची उठी गेंद को अंजुरी में
भर लेना चाहते हैं

एक हाथ किसी को सड़क पार
कराते दिखता है
एक हाथ काँटों से बचते हुए
अपने प्रेयस के लिए फूल चुनता है
और एक हाथ माथे को सहलाता
थकता नहीं

शायद पृथ्वी को भी किसी हाथ ने ही थाम रखा है
दूजा सूरज और चाँद को बारी-बारी, हवा में उछालता

असल में जब भी कोई उम्मीद की
पहाड़ी से गिरता है
एक हाथ दूसरे हाथ को सम्हाले नजर आते हैं !
जैसे सपनों में
तुम्हारे हाथ मुझे, अक्सर
एक गहरी खाई में गिरने से बचा लेते हैं !


7.
कई जोड़ी आँखें
रोज ही अल सुबह तोड़ देती हैं
नींद का फरमान
और कदम निकल पड़ते हैं
रपटीली सड़कों पर सपनों को लांघते

ये आँखें सूरज पर रोज ही टिकती हैं इस आस में
कि जुटा सके निवाला
कुचल दिये गये हाथों
और पीठ पर लदी हड्डियां छींट कर

शहर के लेबर चैराहे गवाह हैं
इन उठती आँखों के
झुकने, सूखने और अनंत हो जाने के

आज भी ये मजदूरी आँखे
आस का पानी लिए
एकटक निहारेंगी

उनको नहीं पता है
मार्क्स-एंगल के घोषणापत्रों
और लाल किनारों में
छुपे हसुआ-बाल की परछाईयों का
उनके कान मजदूर दिवस के नारों
में छिपी भाषा के चिपचिपे मिजाज को
अब तलक नहीं समझ पायीं हैं

उनके लिए कैलेण्डर में हर साल
आने वाला एक मई
रोज के कार्य दिवसों पर
खुद को भट्टी पर चढ़ा देने और देर तक सिंझने का
एक सामान्य मौका भर है!

जबकि आज पढ़े जायेंगे
क्रांतियों के इतिहास और आसरों
से बेखबर इन आँखों पर दर्जनों कसीदे
और कुछ बेहद जटिल शब्दों के पीछे ‘वाद’ सटा कर
उगली जायेंगी सपनीली आग
फिर भी रोज की तरह इन आँखों की सुख जाएगी आस
और उनसे चंद क़दमों की दूरी पर
सीसे के ठंढे मर्तबान में
दम तोड़ देगी क्रांति की झाग

पर इन सबसे बेखबर
कुछ और परवान चढ़ जाएगा
इन आँखों के पक्ष में
लड़ा जा रहा आभासी युद्ध !


8.
जिसके लिए
लोहा, बारूद, नागफनी और बंदूक
एक छोटे और मुलायम फूल की तरह हैं !

वह अनाज की बाली को भी खूबसूरत फूल समझती है
और उनके रंग-रूप और सुगंध में अंतर नहीं करती!

आखिर ऐसा क्या है
जो इन तितलियों में भी अंतर करता है ?
वह पहले विभाजित करता है चमड़ी का रंग
फिर जमीन के हिस्सों में विभाजित कर देता संस्कृति
बची-खुची आत्मीयता बाँट देता है बोली और भाषा के आलम्बनो में

वह तब भी नहीं रुकता
टोपी और तिलक से जो बचता है
वह लिंग और चेहरों में बाँट लेता है
जो मन का मतलब दिल या दिमाग समझ लेता है !
वह अंतिम से अंतिम पहचान को भी दो हिस्सों में बाँट सकता है!

जबकि तितली के लिए पूरी दुनिया सिर्फ और सिर्फ एक सूरजमुखी का फूल है!
जो लगातार अपने सूरज को निहार रहा है
और तितली उसे !


9.
जो चाहता हूँ वह नहीं कर रहा
जहां जाना चाहता हूँ वहां नहीं जा रहा
जो होना चाहता हूँ वह नहीं हो पा रहा

न ठहरा हूँ न चल पा रहा
न इंसान ही रह गया न मशीन ही बन पाया

फिर भी दबोच लेती है हर मोड़ पर
घात लगाए एक नई उम्मीद
और किसी भी क्षण मुझपर
आसमान से टपक पड़ता है एक बून्द बसंत !


10.
नहीं है अश्लील किसी माँ के स्तन
सड़कों पर चूमना और कपड़े उतार देना
कतई अश्लील नहीं रहा
अब अश्लीलता न बीच सभा से उठ के चले जाने में रही
न ही अश्लील रही दुःशासन की करामात

बावजूद इसके
पता नहीं कौन भूसा भरी जानवरों की खालों को
अश्लील होने से रोक रहा
बन्दूक और खून जिनके निशान हैं
वह अब भी अश्लीलता को तोहमत लगा
मंचों पर चढ़ जाते हैं

जिनके लिए फब्तियां या इशारे
अब कोट के गुलाब हैं
जूते चला देना और थूकना
अश्लीलता के विरोधी तत्व
जबकि तस्वीरें और चलचित्र
खुद को अश्लीलता के दीवारों में चिनवा चुकी हैं!

अब भी सबसे अश्लील नहीं है, बच्चों की लाशें
नेताओं के बयान कतई अश्लील नहीं
जिसमें वह कहते हैं
सबसे अश्लील है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
और बिन पुरुष की स्त्री

अश्लीलता पर सोचते हुए
चाहता हूँ इन मुद्दों पर चुप रहूँ
पर किसान के गले में फंदा
देश का झंडा
बेटे के हाथ में डंडा
और नई सदी में विकास का फंडा
को अगर अश्लील नहीं कह पाया
तो यह और भी अश्लील होगा

यह सिर्फ तुकबंदी नहीं
क्योंकि वहीं अटके रहना भी उतना ही अश्लील है
जितना किसी भूखे पेट को ज्ञान देना !

Friday, August 21, 2020

गिरा हुआ फूल किसी दोस्त की तरह होता है : मृत्युंजय प्रभाकर की कविताएँ




मृत्युंजय प्रभाकर अपने समय और समाज के प्रति एक चौकन्ने कवि का नाम है जिसमें सतह पर कौंधती घटनाओं की पड़ताल के लिए गहराई में उतरने का साहस भी है और आसन्न चुनौतियों से मुठभेड़ का असंभव धैर्य भी | वह अपने समकाल का महज एक रिपोर्टर भर नहीं बल्कि एक सचेष्ट अन्वेषक है | कविता इस कवि के हाथ में आया वह जादुई पत्थर है जिसकी रोशनी में वह अपने समय की सच्चाई को ढूँढ़ता है |


अभाव को जीवन का स्थायी भाव कहने वाले इस कवि का मानना है कि गीता का उपदेश और संतोष रूपी बाघ पर सवार भारतीय जीवन श्रम की प्रतिमूर्ति रहे श्रमण समाज के नायकों का वध अनादिकाल से लेकर अबतक करता आया है | मृत्युंजय के यहाँ सुबह एक अलसाई सी उनींदी आँखों वाली अंगड़ाइयाँ लेती हुई किशोर लड़की सी दिखती है | यह एक ताज़ा बिम्ब है कविता में |


सिर्फ लोग ही घरों में नहीं बसते बल्कि घर भी लोगों में बसते हैं | घर की स्मृतियों के साथ ही कविता की परम्परा में घर पर लिखी तमाम कविताएँ याद हो आती हैं | मृत्युंजय प्रभाकर की कविता में घर का आना एक साथ केदारनाथ सिंह और विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं में घर की स्थापना की याद दिलाता है |
जब एक लड़की मरती है अकाल मौत तब एक स्त्री का जन्म होता है , कवि का ऐसा कहना स्त्री विमर्श की उस स्थापना के साथ जुड़ता है कि स्त्री पैदा नहीं होती बल्कि उसे बनाया जाता है | बनाने से अभिप्राय स्त्री की कंडीशनिंग से है |


कवि की दृष्टि में देश का अर्थ है धन कुबेरों के लिए कच्चा माल मुहैया करने वाला भूगोल | यह एक ऐसी जगह है जिसमें गरीब बुधुआ जिस तिरंगे को लेकर अपने खेत की क्यारियों पर बचपन में दौड़ता है उसी तिरंगे का डंडा उन्हीं खेतों को न छोड़ने के जुर्म में आज उसकी पीठ पर छप चुका है | देश का मतलब गरीब के लिए वही नहीं है जो एक धन कुबेर के लिए है | चुनाव की फैलेसी पर व्यंग्य करता हुआ कवि कहता है कि सारे नेताओं को चोर बताने वाला आदमी सबसे पहले जाकर वोट डाल आता है और इस तरह एक चोर को चुन लेता है |


गिरा हुआ फूल किसी दोस्त की तरह होता है, जमाने की आँधियों का शिकार | जब बढ़ाता है वह अपना हाथ वह बिलकुल गिरे हुए फूल की तरह पुकार रहा होता है हमें | दोस्ती की यादों के साथ बैठक खाने की रौनकों की यादें जुड़ी होती हैं | समय के थपेड़ों से परेशान दोस्त का हाथ बढ़ाना कविता में एक गिरे हुए फूल की याद दिलाता है जो कभी कोई प्रेमिका हुलास उठती थी,जिसे देख कभी कोई बच्चा मचल उठता था | कवि की समझ है कि टुच्ची ईर्ष्याओं और एकजुटता के अभाव में जरूरी लड़ाइयाँ लड़ी न जा सकीं | वह इसके लिए अपने बच्चों से क्षमा याचना करता है | यह जवाबदेही कवि की ईमानदारी और उसकी नैतिकता से वाबस्ता है | अनावश्यक ग्लोरीफिकेशन का जाल यह कवि नहीं रचता |


यह कवि अपनी पृथ्वी से भी क्षमा याचना करता हुआ दिखाई देता है, वह भी इस स्वीकारोक्ति के साथ कि ओ मेरी माँ पृथ्वी मुझे माफ कर देना, मैं तुम्हें झुलसने से बचा सकूँ इतना सक्षम आज भी नहीं हो पाया |इसके कारणों पर बात कराते हुए कवि कहता है, समय ने मेरी पीठ पर उकेर दी हैं कई लकीरें, वे आज भी शिकार की कहानियाँ बयान करती हैं प्रागैतिहासिक भित्तिचित्रों की तरह | यहाँ कोई शहीदाना अंदाज़ नहीं है बल्कि एक गहरा अवसाद है | फ़र्जी क्रांतिकारियों को संबोधित एक कविता में कवि कहता है, यह कोई कविता नहीं बल्कि तनी हुई मुट्ठी और तने हुए शिश्न में फ़र्क न करने वालों के नाम एक खुला पैगाम है | यह हिन्दी में धूमिल के करीब खड़ा होता हुआ मुहावरा है | स्वप्न भंग और यथार्थ के विद्रूप से उपजी भाषा में कवि की भाषा ऊँचे तापमान को छूती है |

मृत्युंजय प्रभाकर की दस कविताएँ :

1. अभाव ..

नाटकों में कुल जमा नौ भाव
पढ़ता-पढ़ाता रहा हूँ
लेकिन जब से होश संभाला है
जीवन में बस एक ही स्थायी भाव को
निरंतर जीता चला आ रहा हूँ
और वो भाव है अभाव

कई बार सोचता हूँ
किताबी बातें इतनी किताबी क्यूँ होती हैं
नाटक इतने नाटकीय क्यूँ होते हैं
साहित्य में जाकर शब्द खोखले क्यूँ हो जाते हैं
संगीत की लय में राग क्यूँ खो गए हैं
और जीवन में दूसरे भाव क्यूँ गौण हो गए हैं

यूँ सोचना कोई सकारात्मक क्रिया नहीं है
फिर भी सोचने को बाध्य मेरा दिमाग
बारम्बार सोचता है गीता का उपदेश
और संतोषरूपी बाघ पर सवार भारतीय जीवन
जो वध करता आया है श्रम की प्रतिमूर्ति रहे
श्रमण समाज के जांबाज नायकों को

अभाव को स्थायी भाव बना देने में
बहुत बड़ी भूमिका है इन प्रतीकों का
जो आपको हर हाल में
खुश रहने की घुट्टी पिलाता है
और बदले में हड़प कर जाता है
आपके हिस्से के नौ भाव

मैं अकेला तो कतई नहीं हूँ
संस्कृति के छल का शिकार
अनादिकाल से वर्तमान समय तक
बहुतेरे हैं मेरे जैसे श्रमण
जिनके हिस्से का सूरज तापकर
उनके जीवन में अभाव भर दिया गया है ।

2. सुबह ..

एक अलसाई सी
उनींदी आँखों वाली 
अँगड़ाईयां लेती हुई
किशोर लड़की सी
दिखती है सुबह

कुछ-कुछ वैसे ही
आपको रोशन करती हुई
जैसे किशोरी की
चंचल आँखें भर देती हैं
आपको अपने विकिरण से

यह खिलती हुई किरणें
उड़ान भर हैं उन
चंचल शोख निगाहों की
जिनमें झुलसकर खिलती है
जीवनदाई हरीतिमा

आपको भीतर से हल्का करता
आपके सीने में ताजगी भरता
मंद बहता समीर है उसकी चाल
आपके दिलों को बल्लियाँ
उछालता है जो हर बार

पक्षियों का कलरव है
उसके गेसुयों का बिखर जाना
जिसकी लय में बंधा राग
झंकृत करता है
आपका ताना-बाना

उसके होठों पर बिखरी
जादुई मुस्कान है
सुबह की चमक
जिसकी त्वरा
आक्रांत करती है अपने भूगोल से

आम की बौराई अमराइयां हैं
उसकी उठान
जिन्हें आप हतभाग्य
प्रस्फुटित होते देखते हैं
विस्मित आँखों से

यह जो अलसाया सा लास्य है
सुबह की शोख हवाओं में
यह उसके वितान के
अर्ध्य की लय से संचारित होता है
आपकी शिराओं में

प्रकृति की उष्ण होती है सुबहें
जैसे यौवन की उष्ण होती हैं
उन्मुक्त किशोरियां
सूरज में तपने
और शाम में ढलने से पूर्व !

3. घर ..

सिर्फ लोग ही घरों में नहीं बसते
घर भी लोगों में बसते हैं
यह महज इतफ़ाकन नहीं है कि
मेरे अन्दर कई-कई घर बसते हैं

जैसे घरों की स्मृतियाँ होती हैं
वैसे ही स्मृतियों में भी घर होते हैं
बचपन की तरह वो हमारे कलेजे के
निर्मम एकांत में दफ़न होती हैं

पीड़ा में भी वास होता है एक घर का
सिर्फ घर में पीडाएं नहीं बसतीं
साँसों की भट्ठी सी तपती रहती हैं जो
बुझ चुकी सांसों में भी घर बसते हैं

घर का होना सिर्फ सुकून का होना भर नहीं है
पर सुकून के होने में घर का होना काम आता है
हम बंधे होते हैं जिस तार से निरुद्देश्य उम्र भर
वो सुकून और घर के रिश्ते में उलझे होते हैं कहीं

आंसुओं के घर तो निश्चित ही होते हैं
पर घरों के भी तो अपने गम होते हैं
एक घर के कोने में कितने आंसू दबे होते हैं
यह ठीक-ठीक वहां के वाशिंदों भी कहाँ जानते हैं

खुशिओं से राफ्ता रखने वाले लोग
अक्सर उन्हें घरों में ढूंढ़ते पाए जाते हैं
वह उसकी चिंता में इतने निमग्न होते हैं कि
खुशियों में घर बसाना भी भूल जाते हैं

घरों में बसते हैं कई ज्ञात-अज्ञात रिश्ते
जिनकी आड़ी-तिरछी रेखाएं अक्सर
काटती हैं उन रिश्तों की बुनियाद क्यूंकि
रिश्तों में घर बसाना लोग भूल जाते हैं

घर का होना एक बुनियाद का होना है
जिनकी मियाद उसमें उलझे लोगों के
आपसी ताने-बाने पर निर्भर है
उस ताने-बाने को लोग अक्सर भूल जाते हैं ।

4. स्त्री ..

जब एक लड़की मरती है
अकाल मौत
तब एक स्त्री जन्म लेती है ।


5. देश ..

जिसे हम कहते हैं देश
वो देश के धनकुबेरों के लिए
कच्चा माल भर है बस

जिस तिरंगे को लेकर
दौड़ा था बुधुआ
अपने खेतों की क्यारिओं पर बचपन में
आज उस तिरंगे का डंडा
उसकी पीठ पर छप चुका है
उन्हीं खेतों को न छोड़ने के जुर्म में

राधा नाच रही होती आज भी
कृष्ण के प्यार में
अगर उसके गुप्तांगों में
संस्कृति का डंडा न डाल दिया गया होता
व्याभिचार का आरोप लगाकर
वो भी एक कम उम्र बालक से
जो रिश्ते में उसका भतीजा लगता है

दुखन मिस्त्री तो
कभी समझ ही नहीं पाए कोई हिसाब
जीवन में उम्र के बढ़ने के साथ
घटती रही उनकी हैसियत
आमदनी बढ़ती जाती थी
पर थाल से भोजन गायब होता जा रहा था

पता नहीं किसने नाम रख दिया उसका
अमेरिका
जो अपने गाँव के बाहर न जा सका कभी
कहते हैं पीठ में गोली लगी थी
जब मजदूरी बढ़ाने की मांग लेकर
मालिकों के सामने झुकने से
इनकार कर दिया था उसने

फेंकना की माँ
आज भी समझ नहीं पाती
कहाँ समा गया फेंकना
धरती निगल गई
या आसमान खा गया
उसके गुदड़ी के लाल को
जिसे बचपन भी हासिल न था
वह बचपन में ही गायब कर दिया गया

राबिया जनती रही
सपूत दर सपूत
साल दर साल
दर्जन भर बच्चों में
किसी ने घर में जगह नहीं दी
जबसे शौहर मरा उसका

बेचना तो फिर्रात था फिर भी
शहर देखा था उसने
ट्रकों के साथ नापी थी
संस्कृतियाँ
पर संस्कार एक भी
अर्जित नहीं कर सका था वो

मैं कहता हूँ
इनके लिए
इस देश का
क्या वही मायने है
जो इस देश के धनकुबेरों के लिए है
जो इसे कच्चा माल समझते हैं

जवाब कोई नहीं देगा
पता है मुझे
क्यूंकि जवाब देने वाला
ठहरा दिया जाएगा
देशद्रोही ।

6. वोट ..

सारे नेता चोर हैं
बोलने वाले ने
सबसे पहले जाकर
अपने वोट डाले
और एक चोर को चुन लिया।


7. गिरे हुए फूल ..

गिरे हुए फूल
लोगों को अपनी तरफ
वैसे ही आकर्षित करते हैं
जैसे गिरे हुए लोग

एक आदिम लालसा के साथ
कि मुझे उठा लो
मैं वही हूँ
जिसने डाल पर होते हुए
तुम्हें लुभाया था
तुम्हें ख़ुशी दी थी
तुम्हारी ज़िन्दगी में रंग भरे थे

मैं वही हूँ
जिसे देख मचल उठता था
एक बच्चा
और थमा देते थे मुझे तोड़
उसके नन्हें-कोमल हाथों में

मैं वही हूँ
जिसे देख हुलस उठती थी
तुम्हारी प्रेमिका
आँखों में भर जाती थी चमक
खिल उठते थे उसके गुलाबी गाल
हाथ बढ़ आता था तुम्हारा मेरी तरफ
मैं खिल उठती थी उसके गेसुओं के बीच
ताकि बनी रहे उसके गालों की लाली
और तुम्हें उसे देख मिलने वाला सुख

गिरा हुआ फूल
किसी दोस्त की तरह होता है
जमाने की आँधियों का शिकार
अपनी असावधानी में खेत खाया हुआ
थपेड़ों से परेशान
जब बढ़ाता है वह अपना हाथ

वह बिलकुल गिरे हुए फूल की तरह
पुकार रहा होता है हमें
यह याद दिलाते हुए कि
हमारे कहकहों की एक वजह वह भी रहा है
और घर भले ही पत्नियाँ सजाती हों
बैठक खाना तो उनसे ही गुलज़ार होता है।

8. हमें माफ कर देना ..

हमें माफ़ कर देना हमारे बच्चों
अगर हम यह लड़ाई हार जाते हैं
हमें माफ़ कर देना क्यूंकि
हम तादाद में काफी होते हुए भी
बेहद कमजोर थे
और हमारे सामने लोभ की मुठ्ठी तनी थी

हमें माफ़ कर देना हमारे बच्चों
अगर नहीं बना पाए हम वांछित दुनिया
हमने अपने कंधे जरूर लगाए थे
अपने साथियों के साथ
और खींच लाना चाहते थे
जीवन का वो उजास
लेकिन हमारे सामने झूठ का असीम पाखण्ड पसरा था

हमें माफ़ कर देना हमारे बच्चों
अगर हम नहीं बचा सकें
तुम्हारे लिए पहाड़ और पानी
लड़ाइयाँ हमारी खोखली नहीं थीं
कमजोर नहीं था हमारा साहस
बस उनकी तरह हथियार नहीं थे हमारे पास

हमें माफ़ कर देना हमारे बच्चों
अगर हम नहीं बचा पाए
जीवन की ऊष्मा अपने साथी मनुष्यों में
जो छीजती जा रही है दिन-प्रतिदिन
जैसे छीज रहे हैं जंगल, पहाड़ और नदियाँ
कारण बस इतना था कि अहर्निश जल रही है इनमें इर्ष्या की भट्टी

हमें माफ़ कर देना हमारे बच्चों
अगर हम नहीं बचा सकें साफ़ हवा और रोशनी
ऐसा नहीं था कि हमने कोशिश नहीं की
लेकिन तब हम पर भारी पड़ गए थे
नकली स्वच्छता अभियान चलाने वाले जादूगर
और उनके साथ खड़े धन कुबेर

हमें माफ़ कर देना हमारे बच्चों
अगर छोड़ जाएँ हम तुम्हें
लाखों डॉलर के कर्ज में
तुम्हारे पैदा होने से पहले ही
यह पैसे हमने तुम्हारा जीवन
बेहतर बनाने के लिए ही लिए थे कर्ज स्वरुप
जिन्हें तुम्हारे पैदा होने से पूर्व ही भ्रष्टाचार का दानव निगल गया

हमें माफ़ कर देना हमारे बच्चों
यह जानते हुए कि हम
मजबूर और असहाय नहीं होते हुए भी
अपने छोटे-छोटे स्वार्थों
और टुच्ची इर्ष्या के कारण
कभी कोई लड़ाई एक होकर नहीं लड़ सके।

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9. ओ मेरी माँ पृथ्वी ..

यह कौन सा विषाद है 
जो रह रहकर मथता है मुझे
यूँ की जैसे बारिश के बाद भी
देर तक टपकती हैं
पत्तों में उलझी बूँदें

समय ने मेरी पीठ पर
उकेर दी हैं कई लकीरें
वे आज भी शिकार की कहानियाँ
बयान करती हैं
प्रागैतिहासिक भित्तिचित्रों की तरह

एक शोर गुजरता है
चीरता हुआ मेरे अंतस को
ट्रैफिक पोस्ट से लेकर
गहन एकांत तक
हर जगह वेधता है मुझे

कुछ है, कुछ है कि मुझे
सुनाई पड़ती हैं अदृश्य आवाजें
मिटटी से उपजती है चीख
हवाएं सुनाती हैं वेदना 
मर्मान्तक पीड़ाएं लाती है आद्रता

मैं स्वपन में खुद को
हड़प्पा के चौरस्ते पर 
भागने की चेष्टा में जड़ पाता हूँ
जलते हुए मांस के लोथड़ों की बदबू
जागने पर भी पीछा नहीं छोड़तीं

मेरी नाक और आँख से 
छूटता रहता है पानी 
धुआँती रहती हैं ग्रंथ और टीकाएँ
मैं श्मशान में तब्दील 
ज्ञान के चीथड़े बटोरता हूँ

बदलते हुए समय के बीच
कहीं से भी निकल आते हैं हत्यारे
उन्हें न मेसोपोटामिया की फिक्र है
न दज़ला फरात की
न गंगा घाटी सभ्यता की

वे कहीं भी हो सकते हैं
दरअसल वे हर जगह हैं
बदले हुए नामों और चेहरों के बीच
मृत्यु गंध की तलाश में
वे निरंतर भटक रहे हैं

उनके जो चेहरे दिखते 
या दिखाए जाते हैं
उनके पीछे भी
अनगिन अक्स छुपे होते हैं
सफ़ेदपोश

मेरी माँ पृथ्वी 
ओ मेरी माँ पृथ्वी
मुझे माफ़ कर देना
मैं तुम्हें झुलसने से बचा सकूँ
इतना सक्षम आज भी नहीं हो पाया।

10. फर्जी क्रांतिकारियों के नाम ..

यह कोई कविता नहीं है
बल्कि तनी हुई मुठ्ठी
और तने हुए शिश्न में
फ़र्क़ न करने वालों के नाम
एक खुला पैगाम है

मैं जानता हूँ कि क्रांति
अब उम्रदराज हो चुके मॉडलों
और रिटायर हो चुकी हीरोइन की तरह
कोई ग्लैमरस चीज़ नहीं रह गई है
फिर भी बहुतेरे हैं
जो इसके आकर्षण में
खींचे चले आते हैं
साल दर साल

गर्म और ताजे ख़ून के उबाल से भरपूर युवा
जिन्होंने अभी देखें बस हैं
अपने सपनों की उड़ान
जिन्होंने अभी नहीं नहीं टेके हैं अपने घुटने
दुनयावी जरूरतों के समक्ष
और जिनमें अभी भी दौड़ रही है
दुनिया को पहले से सुंदर
और बेहतर बनाने की ललक
वो आज भी चले आते हैं क्रांति की राह

इस बात से बेख़बर कि
उनकी ओर टकटकी लगाए
बैठे हैं कई सारे गिद्ध
दिमागी, आर्थिक और शारीरिक तौर पर
उन्हें नोच खाने को आतुर

समय की बाढ़ में
क्रांति की कतारों में
घुस आए ये गिद्ध
कई-कई तरीकों से बरगलाते हैं
दुनिया से लोहा लेने का माद्दा
रखने वाले इन युवाओं को
और क्रांति के चम्पू में
करते जाते हैं अनगिनत छेद

कई-कई शक्लों में आते हैं सामने
और डराते हैं भविष्य को
कई-कई रूपों में बिगाड़ते हैं
वर्तमान संघर्ष की लय

अगर आप पढ़ सकें
स्थानीय कैडरों के चेहरे की मुर्दनगी
और समय रहते कुछ और न कर लेने का क्षोभ
तो अपने आप भाग खड़े हों इस पथ से

इनसे बच भी गए
तो कदम-कदम पर
पार्टी के भीतर ही
लोकल से जिला कमिटी
और राज्य से सेंट्रल कमिटी तक की
उठा-पटक और दांव-पेंच में ही
खेत हो जाते हैं क्रांति के स्वप्न

एक बड़ी जमात उनकी भी है
जो बस दूसरों की आलोचनाओं से ही
अपना काम चला लेते हैं
ज़मीन पर बिना कोई आधार
आज भी सिर्फ अपने व्यक्तव्य में
दर्शाते हैं क्रांति की धार
और दिशा-भ्रमित करते हैं
इस सपनीले युवा पीढ़ी को

कई तो ऐसे भी हैं शूरमा
जो अपने शिश्न और मुठ्ठी के
तनाव का अंतर भी भूल चुके हैं
जिनके लिए क्रांति बस रात में
बोतल और शरीर का जुगाड़ है
क्रांति की लफ्फाजी से

लफ़्फाज़ियों से अगर
हासिल की जा सकती क्रांति
तो इस देश में कब की आ चुकी होती

अफ़सोस की असली कैडरों की मेहनत
जाया करने में दिन रात लगे
इन फर्ज़ी क्रांतिकारियों का भी
कुछ किया जा सकता

तब शायद हम बचा पाते
युवा सपनों और उम्मीदों को
और फहरा सकते
क्रांति के चम्पू पर एक छोटा सा पाल !

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