Friday, September 18, 2020

हुजूर रास्ता बदल दीजिये : अनुज की कविताएँ

 



बेधक और मार्मिक जीवन प्रसंगों का प्रामाणिक दस्तावेज हैं अनुज की कविताएँ जो स्वानुभूति की धीमी लौ में जाने पहचाने सत्य का नये स्तर पर पाठक से साक्षात कराती हैं । अनुज की कविताओं की खासियत यह कि ये एक खास अर्थ में भोक्ता की कविताएँ भी हैं इसलिए इनमें एक तटस्थ जीवंतता भी है । अनुज हाशिये के समाज की चेतना को उसके स्वाभाविक नुकीलेपन के साथ कविता में रखते हैं और यह उनके काव्य संसार को अधिक अर्थवान और प्रामाणिक भी बनाता है ।

मृत्युबोध की रुमानियत को खारिज करती कविता "मौत" में कवि उसकी मर्मान्तक पीड़ा को दर्ज करते हुए निकटतम आत्मीय जनों की मृत्यु को निजी जीवन के उस हिस्से की मृत्यु के रूप में देख रहा है जिस हिस्से में वे किसी न किसी रूप में रहे आये थे । अपनों की मृत्यु कहीं न कहीं अपनी मृत्यु का ही विस्तार है । यह जीवन को उसकी सामूहिकता में देखने की मानवीय दृष्टि है । "अम्मा" और "सब बचा रह जाता है" इसी मृत्युबोध की कविताएँ हैं ।

हाशिए पर जीने वाले मनुष्य के लिए धर्म, ईश्वर, जाति, त्यौहार, नैतिकता आदि के अर्थ और संदर्भ वही नहीं हुआ करते जो आम तौर पर सहूलियतों में जीने वाले मनुष्य के लिए हो सकते हैं । यह बहुजन चेतना अनुज की कविताओं में अपनी वैचारिकी को केंद्र में रखते हुए बहस का आह्वान करती है और अपने पाठक को भी जीवन स्थितियों के प्रति नई दृष्टि के लिए आग्रही बनाती है । "दकियानूसी", "हुजूर रास्ता बदल दीजिए" और "मेरा मानिए मशविरा" जैसी कविताएँ देखी जा सकती हैं ।अनुज की इन कविता में "हैव्स" और "हैव-नॉट्स" का कंफ्लिक्ट प्रखरता के साथ उभर कर सामने आता है ।

दुनिया के मायने एक यथास्थितिवादी व्यवस्था में क्या हो सकते हैं और उसके अंतर्विरोध क्या होते हैं इसे अनुज का कवि अपने अंदाज़ में देखता है । "यह क्रिया चलती रहती है" कविता में कवि एक ख्याली दुनिया की हकीकत से टकराता है जब वह "सब कुछ ठीक है" के ख्याल में जीने वाले आत्मकेंद्रित मनुष्य की इस मिथ्या धारणा को ही खंडित कर देता है । कविता बताती है कि आँख मूँद लेने भर से सबकुछ ठीक है का बोध जिंदा नहीं रह सकता । प्रकारांतर से कविता यह भी कहती है कि दुनिया को ठीक करने की जरूरत है जिसके लिए प्रयत्न करने होंगे ।

बचने बचाने पर हिंदी में बहुत सी कविताएँ लिखी गई हैं । कवि अपनी तरह से चीजों को बचाते रहे हैं । अनुज का बचाने का आग्रह इस रूप में अलग है कि वह इस यथार्थबोध तक जाता है कि "हम जान रहें हों कि हम बचे नहीं रहेंगे, लेकिन जद्दोजहद बची रहे" । वह चीजों को बचाने से अधिक चीजों को बचाने के जद्दोजहद की बात करता है और ऐसा करते हुए हमारा अधिक विश्वसनीय हो उठता है । विसंगतियों और विडंबनाओं पर भी कवि की दृष्टि बनी रहती है । भारतीय किसानों को लेकर बनी रूढ़ि पर चोट करती हुई ऐसी ही कविता है "एक धर्म बाकी जो अभी" जिसमें कवि अत्यधिक विनम्र हो चुके किसान की कमर और छाती पर हाथ रखकर उसकी रीढ़ सीधी करने की जरूरत को एक जरुरी धर्म की तरह तरजीह देता है । सत्ता के विद्रूप को कवि बड़ी बारीकी से उभरता है "ये कौन हैं" जैसे प्रश्न के माध्यम से ।

अनुज की कविताएँ इस बीमार समय की भरोसेमंद डायग्नोस्टिक रिपोर्ट की तरह हैं जिनको बहुत ध्यान से देखे पढ़े जाने की जरूरत है । 


अनुज की दस कविताएँ : 

1. मौत ..

माँ मार्च में गुजरी,
और ढूँढने पर भी एक अच्छी तस्वीर न मिली,
एक जो थी बची,
उसमें वह शाल ओढ़े थी...
मैं तस्वीर देखता और लगता...
कि माँ को मरने से पहले ठंड लग रही होगी.

सब कहते हैं कि माँ सबको एकटक देखने लगी थीं,
होता हो ऐसा,
कि मरने से ठीक पहले हो जाता हो मरने का भान.

मैं जो हूँ, भीरु, रुख्सत हो जाना चाहता हूँ नींद-नींद में,
होश में भाई मरा, माँ मरी
एक तड़पते कहते हुए मरा कि वह जीना चाहता है,
एक तड़पती कहते हुए मरी कि अब जीने को जी नहीं चाहता,
दोनों यह जानते हुए मरे कि उनका मरना तय है.
इस भिज्ञता से बड़ी पीड़ा भला और क्या होगी,
कि साँस अब रूक जानी है, लहू अब जम जाना है.
हरकत जिंदगानी की थम जानी है.

मौत, राजेश खन्ना के आनंद की कोई कविता नहीं है, न कोई रूमानी अदांज-ए-बयाँ
एक गाज है, गिरती है, तबाह करती है.
मौत खालीपन की वह अँधेरी खाई है, जो जाने वाला कभी न भर पाने के लिए छोड़ जाता है.
स्नेह के फेहरिस्त से किसी का भी जाना आपकी भी मौत है...
उस हिस्से की मौत है जहाँ वे थे, भरे-अटे, कब्ज़ा किए, हक़ से ।

2. अम्मा ..

देख आती है कमरा बार-बार,
मेरी भतीजी के हँसने का खिलौना गायब है।
गायब है उसकी तेल मालिश, दुलार, फटकार सब गायब है
गोर-हाथ दबा देने की अरज गायब है।

खूब सरिआया हुआ बिस्तर काटने को दौड़ता हो शायद,
उस बिस्तर को देखते हैं लगातार
बैठ जाती थी, जिसपर दिन भर की लेटी वह
उनके शाम को आने पर,
देखती थी नैन भर
क्षणभर बिना नागा मुस्कराती थी
कम बोलते हैं अब, बोलते हैं खुद से,
वह गायब है

उस फोन को देखता हूँ,
जिसपर देखकर उन्हें अनदेखा किया बार बार
आज नाम खोज, बारहा ठिठक जाता हूँ
उनके रहते कभी न जता पाया
कि अम्मा एक खुली किताब तो केवल तुम्हारे सामने ही हो पाया
और आज तू गायब है।

एक जानेवाला यह ज़रूर जता जाता है
कि वक़्त रहते एक काम ज़रूर करना चाहिए
मसलन प्रेम खूब सारा, चाहिए करना
उसे झुन्नू वाले बाबा की तरह खूब खूब बांट देना चाहिए
वक़्त रहते।

3. सब बचा रह जाता है ..

इस मर्त्य संसार में,
कोई मरता नहीं,
कुछ भी बिसरता नहीं,
न बुरा, न अच्छा
सब बचा रह जाता है

खूब लाड़ पाया पोता
दादा को अपनी अंतिम सांस तक जिलाये रखता है

खूब सताया गया बेटा
क्रूर बाप की स्मृति शेष नहीं कर पाता

बहुत दिन बाद अपने मास्टर को देख
एक प्रौढ़ खाता है भय

यौन शोषण का शिकार एक लड़का
जवानी बाद भी गली बदल, घर को जाता है

प्रेम में नाकाम पुरुष
ताउम्र, इश्क की गुत्थियाँ सुलझाता है

रिश्तों में ठुकराई स्त्री
अपनी तमाम मजबूती के बावजूद, फफक पड़ती है कभी-कभार

पिता का साथ पाई बेटी
जीवन भर, हर किसी में पिता का नेह तलाशती है

माँ की शिकायतों से आजिज़ बेटा
बुढ़ापे में डाँटने वाली माँ की बाट जोहता है

प्रेम के सबसे अंतरंग क्षणों को
जुदा हो गया एक जोड़ा, एक सिम्त मुस्कान के साथ अंत तक जीता है

दोस्ती में ठगा गया साथी
यार की मक्कारी पर उम्र भर शर्मिंदा रहता है

सब खत्म हो जाने का खामख्याल पाले
क्षणभंगुर मनुष्य
महज़ गुज़रे लम्हातों की तपिश को कम या ज़ियादा भर कर सकता है
कि वह अभिशप्त है,
निस्सहाय,
अपना कल ढोने को किंचित मजबूर।

4. दकियानूसी ..

नसें खींचा जाती यह कहते, कि मैं नास्तिक हूँ
वे पीठ थपथपाने लगते,
बोलते, नास्तिक भी तो आस्तिक ही है!

जातिवादी तंज एक दिन मेरी जान ले लेंगी,
वे बोलते, इसमें तुम्हारा क्या दोष ! कहीं तो जन्मना था ही !

मै कहता, तुम्हारे त्यौहार मुझे बिखेर देते हैं, देते हैं शर्मिंदगी,
नज़र फेर लो क्या है, एक दो घंटे भर का तो मामला होता है, वे कहते.

इतना प्रतिक्रियावादी होना ठीक नहीं,
मैं कहता, तुम्हारी नैतिकताओं के बोझ मेरे पुरखों ने बहुत उठाये हैं,
अब और नहीं.

वे अपनी धूर्तताओं में जब शिकस्त खाते तो जैसा हमेशा से कहते आये हैं,
फिर कहते, तुम सठिया गए हो,
मैंने कहता, मुझे साँस खातिर खुला आसमान चाहिए,
अब तुम और तुम्हारा कोई ज्ञान, बिलकुल नहीं,
तुम, तुम्हारी पोथियाँ, तुम्हारे ईश्वर, तुम्हारी आस्तिकता, तुम्हारे त्यौहार, सबने मिलकर बनिये से,
हमें खूब ठगा है.

अब हमारी बारी है..हम एक से दो, दो से चार हैं अब,
वे दिन दूर नहीं जब तुम लाचार होवोगे
तुम्हारी पोथियों का मोल रद्दी होगा और खुदाओं की टकसालों पर जो लगेंगे ताले
वे हम काफिरों के होंगे ।

5. हुजूर रास्ता बदल दीजिये ..

हुजूर !
हमारा कोई दोष नहीं
हजारों सालों से आपकी छत्रछाया ने
हमको ऐसा बना दिया है

आप हमें कितना भी दुत्कारें
हम बड़ा मान देते हैं

गली मोहल्ले में कोई चोरी हो
तो हमारी आँखें हमारी तरफ ही होती हैं।

कोई जनाना बदचलन हुई
निश्चित ही हमारी ही होगी।

कोई लड़की गायब हुई
हमारा लड़का धरा जाएगा।

हुजूर, आप दाँत चियार के सरेआम एलान कर सकते हैं
बाभन हम, हमारे उदर संतुष्ट कीजिये।
जो हम नहीं कर पाते हुजूर!
मत पूछिये !
दुःख से गड़ जाते हैं।
हम तो अपनी क्षीणकाया का सार्वजनिक हवाला भी नहीं दे सकते-
यह दुबरा सरीर भूख और बीमारी की उपज है!

हुजूर ! निश्चिंत रहिये,
आप लोग अब भी बहुत मिहनत करते हैं,
हमारी हीनता ग्रन्थि अब भी बरकरार है
हम अपने काम छोड़ आपकी सेवा-टहल को पुन्न मानते हैं।

हुजूर, एक दिक्कत हो आई है
ये नयका छौरा-छौरी,
कुच्छो नहीं जानता-बूझता
बहुत मूँह जोर है सब।
न बड़-छोट का लिहाज
हुँह! बकलोल सब !

हुजूर, ई सब क्या जानेगा आपकी करुणा!
बोलता है गरुड़ पुराण ठगी है,
रेखा-भाग कुछौ नहीं होता,
बोलता है पंडी जी को बोलिये
कोई दूसरा काम काज ढूँढें,
आएँ, खेत जोतें,
लोहा ढालें,
जजमानी त्यागें,
आकास से जमीन पर उतरें,
बोलता है सादी अब कोरट-कचहरी में कर लेंगे
बोलता है पंडी जी आएँ तो गमछा न लाएँ।

हुजूर इन दुष्टों को देखिए
रास्ता बदल दीजिये
कोई ठौर-ठिकाना नहीं।
का तो बौराये रहता है,
बहुजन बहुजन करता रहता है।
हुजूर ! बड़ा नादान है सब !
इनको छमा कीजिये !

6. मेरा मानिए मशविरा ..

यह देश अब वह देश नहीं रहा,
न रिश्ते रहे पुराने से,
न अब तरकीबें किसी काम की रहीं
अब के जो गिरह पड़ीं,
गाँठ बन के रह गईं

अब कोई नहीं ऐसी जगह
कि ठकठकाये दरवाज़ा कोई मज़लूम
और फैसला उसके हक़ में आ जाय

किसी मंदिर की बुनियाद नहीं मिली ऐसी,
न मस्जिद कोई
इंसान अव्वल हो जहाँ, औ' खुदा दूसरे खित्ते में जाये

अब न धूमिल सा ताव रहा,
न दुष्यंत सी बेचैनी,
न मुक्तिबोध का उजालों की हिम्मत लिए वह अंधेरा
न लाल सिंह दिल की दिलेरी
न पाश का खालिस प्रेम
न वह तल्ख विडम्बना रामदास की रघुवीरी
न परसाई का खंजर सा पैबस्त होता मज़ाक,
न वाल्मीकि की पीड़ा लाचारी
न विद्रोही सा फौलादी धधकता सीना
न राजकमल सी बेबाक ईमानदारी
अब न कबीर कोई, न रैदास, न नानक, न मीरा खुदमुख्तार

नायकों से कंगाल हो रहे इस मुल्क में
अपनी तासीर खो चुकी है ज़बान,
न गुज़रे दौर सा तंज रहा, न बेचैनी,
न हक़ के सवालात रहे, न हैरानी।

एक गुजारिश है,
मेरी राय पर अमल कीजिये
अब समूचे देश को बना दीजिये अखाड़ा
करते रहें नूरा कुश्ती
मेरे वतन के बाशिंदे बदमस्त
गुलाब के अत्तर और शहद में लपेट
बाँटिये मज़हब की भाँग
लिख दीजिये वसीयतें राम के नाम की
नर-मुंडों की ध्वजाएँ-पताकाएँ फहराईये

अब के,
राम भी राम नहीं रहे
फतवा-ए-हिन्द हो गए...
रहीम के ज़िक्र से फिलहाल कर लीजिये तौबा
उनसे किसी का हित नहीं सधता, आज-कल में

अब के
जो उलझ गया है...
उलझे रहने दीजिए ...
उसके सुलझने का सिरा मिलना मुश्किल है।

अब के
कोई मरासिम भी नहीं
कोई गफलत भी नहीं
अब के
बस हम हैं
एक रँगी, एक ख्याल,
खुद से निपटते, खुद को निपटाते।

मेरा मानिए मश्विरा
करते रहिए
झंडा ऊँचा, ऊँचा, थोड़ा और ऊँचा
सबसे ऊँचा। 

7. इतना भर बचा रहना चाहिए ..

इतना बचा रहना चाहिए,
कि अकुराते दूब और बिलकुल नई पत्तियों के हल्के हरे पर विस्मित हो सकें
इतना बचा रहना चाहिए,
कि किसी दुधमुंहे बच्चे की हंसी देख हमारा दिल हल्का हरा हो जाए
इतना बचा रहना चाहिए,
कि बिछड़े यार को देख, हम हँसे तो दिल का रेशा रेशा आंखों की तरह भीग जाए
इतना बचा रहना चाहिये
कि माँ याद आए और माँ की तरह ममता हमारा करेजा छेक ले
इतना बचा रहना चाहिए
कि बादलों को बरसता देख,
मन अनायास ही बच्चे सा घर से बाहर भागने को अकुलाए
इतना बचा रहना चाहिए,
कि किसी के खुरदुरे हाथ देख
आत्मा टीस से भर-भर आये, हृदय दुखाए,
इतना बचा रहना चाहिए,
कि मिटाए जा रहे हों पहाड़ों के नामो निशाँ,
नोची जा रही हो धरती की कोख,
और हमें लगे कि हमारी नसें काट दी गई हों।

इतना बचा रहना चाहिए
कि हम जान रहें हों कि हम बचे नहीं रहेंगे
लेकिन जद्दोजहद बची रहे
इतना भर बचा रहना चाहिए ।

8. यह क्रिया चलती रही ..

रोज़ सुबह तांबे के बर्तन का पानी पिया
रोज़ सुबह घूमा-फिरा, शाम होते टहला
समय पर खाया, सोया
आरोह-अवरोह का ध्यान रखा
और मधुमेह था कि बना रहा ।

मैं सोचता मधुमेह जी का जंजाल है
पर बात और थी, रोग और था,
किससे कहता कि बीमारी असल, नपुंसकता थी
यथास्थिति को नियति मान,
शालीनता, भद्रता और ज़िम्मेदार नागरिक के घटाटोप से अपनी कमी को आच्छादित किये रखता
अप्रिय घटनाओं को पढ़ता-देखता, देख-पढ़ रख देता सैंत
यह क्रिया चलती रही...चलती रही...
रोज सुबह उठता, रोज़ रात घड़ी की सुई देख सो जाता।
समय पर दवाइयां लेता, समय पर सुइयाँ,
सबको राम-राम करता, सबके राम-नाम जाता
सब किया समय पर,
बेटियों को पढ़ाया-लिखाया, नौकरी लायक बनाया
बेटियों का 'आइडियल फादर' बना
जिसने दरअसल
कभी हाथ गन्दे नहीं किए,
पैर क्या खाक कीचड़ से सने होते।
मेरे आस पड़ोस की दुनिया, बलात्कारी दुनिया मे तब्दील होती रही
मैं शुतर्मुर्ग, बिना सड़क पर उतरे इस तसल्ली में खत्म हुआ
कि बेटियां कमाऊ हैं, आत्मनिर्भर हैं इसलिए सड़कों पर बेधड़क जा आ सकेंगी
मर्द होंगे कि उन्हें लालच से देखते हुए नहीं गुज़रेंगे।
बेटियों के बाप को सुकूँ ही सुकूँ होगा।
बिना हुज्जत, बिना यत्न, बिना संघर्ष किये
एक ज़िम्मेदार लाचार बाप
एक ख्याली दुनिया का भरम पाले
दुनिया से रुख्सत हो लिया।

9. एक धर्म, बाकी जो अभी ..

बच्चों,
यह है भारतीय किसान,
जिसके बारे में पढ़ा होगा हर जगह,
मेहनतकश, कर्मठ , दृढ़ प्रतिज्ञ.
जिसका खून गाढ़ा और देह हृष्ट-पृष्ट

बच्चों,
यह सरकारी छत अब या तब गिर पड़े,
उससे पहले तुम्हें जल्दी-जल्दी पढ़ते-पढ़ते होना होगा बड़ा.
करना होगा पुनर्पाठ.
छेनी-हथौड़ा ले, दीवार में करनी होगी छेद,
जो बेहद मोटी है और दफ्न किये हुए है जायज़ आवाजों का गट्ठर, 
तमाम कोशिशों के बाद आज भी न हो पाया कोई छेद,
तुम्हें इस क्लीशे की दुनिया से निकल,
किसान के कमर और छाती पर हाँथ रख सीधी करनी होगी रीढ़,
जो दूसरों की रीढ़ खातिर कुछ जयादा ही विनम्र हो चुका है.
पर चूका नहीं अभी.
रूका ज़रूर है.
तुम्हें फूंकने होंगे प्राण.
यही तुम्हारा ऋण यही तुम्हारा त्राण ।

10. ये कौन हैं ..

एक झूठ बोलने को सौ बार हिचक होती है,
अभी बोलना हो तो सामने वाला बगैर तकलीफ किए धर सकता है,
ये कौन हैं जो बिना पलक झपकाए, यह करामात बड़ी नफासत से कर रहे,
ये कौन हैं, जो तहजीब की दुहाई दिन-रात देते मर रहे,
ये कौन हैं, जिनके लिए सब दुश्मन हैं, सब गद्दार,
ये कौन हैं, जो हमारे हक़ में हैं, और हम हैं कि सांस लेने तक को लाचार,
ये कौन हैं जो गुज़रे दंगों से कुछ हासिल न कर पाए,
ये कौन हैं जो सरहदों की लकीरों के खौफनाक मंजर भूला आए,
ये कौन हैं जो हजारों-लाखों से मेरा झूठा मुस्तकबिल तय कर रहे,
ये कौन है जो मुझसे मेरी पहचान चुरा रहे, मुझे हिन्दू-मुसलमाँ बता रहे,
ये कौन है जो काले दिन का जश्न सा मना रहे, बेवजह हुई मौतों का मज़ाक उड़ा रहे.

कहीं ये मेरे मुंसिफ तो नहीं! कहीं ये हमारे रहबर तो नहीं!
दौलतमंदों के साथ दिखते, पाए गए जो अक्सर
खेल रहे चौसर, बदमस्त होकर,
जो मर रही गोटियाँ, वह मैं ही तो नहीं, वह तुम ही तो नहीं!
जो इनकी नवाज़िश हो, ख़ुदा भी साथ हो,
जो इन्हें नागवार गुज़रे, बद तो हैं, ...और हों जाए बदतर.
और महफूज़ हो कि सो जाएँ पहले ही मौत से गले मिलकर
जनाब ! ये हैं बादशाह इस मुल्क के, इनकी कोई कौम नहीं, न ज़ात कोई, ईमान नहीं.
केवल ठसक इनकी. केवल यही.
बदनीयत, बगैरत, बेशर्म, बदनुमा...लाहौल विला...अब कुछ बचा ही नहीं ।

2 comments:

  1. बहुत अच्छी कविताएं

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  2. "इतना भर बचा रहना चाहिए" अपनी modesty में कितने गहरे अर्थ भर देती है - ऐसी सचेत जद्दोजहद तो किसी समाज की प्राणवायु है।अनुज को पहली बार पढ़ा और मोहित हो गया।
    - यादवेन्द्र

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