अपनी छोटी कविताओं में पूरे पैनेपन के साथ अपनी बात को रखने वाले कवि हैं राजेश कमल । आकार में छोटी कविताओं से यह अपेक्षा होती है कि वे कथ्य में नुकीली तो हों ही अपने असर में मारक अवश्य हों । राजेश कमल की निगाह अपने समय का एक पैनोरामिक दृश्य खींचती है जिसमें अलग अलग कोनों में कुछ ऐसी छवि जरूर पकड़ में आती है जो उस समूचे फ्रेम को महत्वपूर्ण बनाती है ।
जीवन में बाजार की लगातार गहरी होती पैठ को चिन्हित करते हुए कवि इसबात पर चिंता जताता है कि मनुष्य की रुचि को और उसकी राय को भी बाजार अपनी गिरफ्त में ले चुका है और कुछ भी कहने से पहले वह उसके लिए पहले से तय किया हुआ सा कुछ प्रस्तुत कर देता है और इस तरह सोचने समझने और कहने सुनने की क्षमता के बावजूद मनुष्य को बाजार की ताकत ने खामोश कर दिया है । वह कुछ सोचे या कहे इससे पहले बाजार के विकल्प उसकी गोदी में गिरने लगते हैं और वह अवाक देखता रह जाता है ।
जीवन का बही खाता देखता और खोने पाने का मिलान करता हुआ कवि पाता है कि कुल जमा जीवन जो उसके पास है उसमें कितनी कम चीजों के लिए जगह बची है । वह अपने हिसाब में पाता है कि जीवन का कुल हासिल कुछ कविताएँ, कुछ दोस्त, कुछ चिट्ठियाँ, घर में अतिथियों की तरह रहते आये बुज़ुर्ग, कम बातें करने वाले बच्चे और उदास रहने वाली स्त्री के अलावा कोई हासिल नहीं रहा । एक साधारण भारतीय युवा के जीवन का यही लेखा जोखा है ।
परिदृश्य में लगातार हो रही हत्याओं में अपराधी का हर बार पकड़ में न आना और व्यवस्था की व्यर्थता पर कवि की दृष्टि है । वह अपने चुटीले अंदाज़ में इन तमाम हत्यारों के ईश्वर की अदृश्य लाठी की तरह न दिखाई देने को लक्षित करते हुए इसे हर शुक्रवार रिलीज होने वाला सिनेमा बताता है । इस तरह वह व्यवस्था के विद्रूप को उकेरने की कोशिश करता है ।
दुनियादारी के बरक्स अनाड़ीपन को रखता हुआ यह कवि दुनियावी सफलता की व्यर्थता के सवाल को संबोधित करता है और अपने जीने के तरीके पर शर्मशार है । यह एक तरह का आत्मधिक्कार है जो ऐसी तमाम उपलब्धियों के पीछे जीवन में छीजती आत्मीयता और नष्ट होते कोमल पक्षों की बेचैनी तक जाता है ।
दुःख और सुख की कुछ बेहद आत्मीय छवियाँ हैं राजेश कमल के यहाँ । दुःख यहाँ एक आतंकवादी की तरह आता है और कोई ईश्वर भी उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाता । एक बेरोजगार का दुख अलग है और उसके पिता का दुख अलग । माँ के दुख का रंग इन सबसे अलग है । यह देखना प्रीतिकर है कि दहेज और बेरोजगारी के सवाल इन कविताओं में उभरते हैं ।
छोटे छोटे सुखों के बीच जरा सी नींद पर भी नजरदारी करता हुआ समय जब मनुष्य के सभी कष्टों के लिए उसकी नींद को ही दायी ठहराता है तब वह चीख उठता है इस दुष्प्रचार के खिलाफ । वह बताना चाहता है कि उसकी नींद एक अफ़वाह है । इस तरह राजेश कमल की कविताओं में जीवन के कुछ विश्वसनीय खण्डचित्र अंकित दिखाई देते हैं । आने वाले समय में राजेश कमल की कविताओं से उम्मीद रहेगी ।
जीवन में बाजार की लगातार गहरी होती पैठ को चिन्हित करते हुए कवि इसबात पर चिंता जताता है कि मनुष्य की रुचि को और उसकी राय को भी बाजार अपनी गिरफ्त में ले चुका है और कुछ भी कहने से पहले वह उसके लिए पहले से तय किया हुआ सा कुछ प्रस्तुत कर देता है और इस तरह सोचने समझने और कहने सुनने की क्षमता के बावजूद मनुष्य को बाजार की ताकत ने खामोश कर दिया है । वह कुछ सोचे या कहे इससे पहले बाजार के विकल्प उसकी गोदी में गिरने लगते हैं और वह अवाक देखता रह जाता है ।
जीवन का बही खाता देखता और खोने पाने का मिलान करता हुआ कवि पाता है कि कुल जमा जीवन जो उसके पास है उसमें कितनी कम चीजों के लिए जगह बची है । वह अपने हिसाब में पाता है कि जीवन का कुल हासिल कुछ कविताएँ, कुछ दोस्त, कुछ चिट्ठियाँ, घर में अतिथियों की तरह रहते आये बुज़ुर्ग, कम बातें करने वाले बच्चे और उदास रहने वाली स्त्री के अलावा कोई हासिल नहीं रहा । एक साधारण भारतीय युवा के जीवन का यही लेखा जोखा है ।
परिदृश्य में लगातार हो रही हत्याओं में अपराधी का हर बार पकड़ में न आना और व्यवस्था की व्यर्थता पर कवि की दृष्टि है । वह अपने चुटीले अंदाज़ में इन तमाम हत्यारों के ईश्वर की अदृश्य लाठी की तरह न दिखाई देने को लक्षित करते हुए इसे हर शुक्रवार रिलीज होने वाला सिनेमा बताता है । इस तरह वह व्यवस्था के विद्रूप को उकेरने की कोशिश करता है ।
दुनियादारी के बरक्स अनाड़ीपन को रखता हुआ यह कवि दुनियावी सफलता की व्यर्थता के सवाल को संबोधित करता है और अपने जीने के तरीके पर शर्मशार है । यह एक तरह का आत्मधिक्कार है जो ऐसी तमाम उपलब्धियों के पीछे जीवन में छीजती आत्मीयता और नष्ट होते कोमल पक्षों की बेचैनी तक जाता है ।
दुःख और सुख की कुछ बेहद आत्मीय छवियाँ हैं राजेश कमल के यहाँ । दुःख यहाँ एक आतंकवादी की तरह आता है और कोई ईश्वर भी उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाता । एक बेरोजगार का दुख अलग है और उसके पिता का दुख अलग । माँ के दुख का रंग इन सबसे अलग है । यह देखना प्रीतिकर है कि दहेज और बेरोजगारी के सवाल इन कविताओं में उभरते हैं ।
छोटे छोटे सुखों के बीच जरा सी नींद पर भी नजरदारी करता हुआ समय जब मनुष्य के सभी कष्टों के लिए उसकी नींद को ही दायी ठहराता है तब वह चीख उठता है इस दुष्प्रचार के खिलाफ । वह बताना चाहता है कि उसकी नींद एक अफ़वाह है । इस तरह राजेश कमल की कविताओं में जीवन के कुछ विश्वसनीय खण्डचित्र अंकित दिखाई देते हैं । आने वाले समय में राजेश कमल की कविताओं से उम्मीद रहेगी ।
राजेश कमल की दस कविताएँ :
1. सब पता है..
इससे पहले कि बोलूँ
मेरी आवाज़ गूँजने लगती है
इससे पहले कि मेरी तस्वीर उतारी जाए
लग जाती है वो शहर के होर्डिंग्स में
इससे पहले की उतारूँ एक निराश चेहरा
एक खिलखिलाता चेहरा दौड़ने लगता है
इससे पहले कि पहनूँ अपना पसंदीदा कुर्ता पजामा
कोई चीख़ता है टीवी पर
उन्हें
उन्हें मेरी राय का पता है
मेरी इच्छा पता है
मेरे विचार मालूम हैं
ऐसे ही थोड़े किया गया है ख़ामोश मुझे
उन्हें सब पता है ।
■
2. कुल जमा..
कुछ कविताएँ हैं
जो कुछ और भी हो सकती हैं
कुछ मित्र हैं
जो कुछ और भी हो सकते हैं
कुछ पातियाँ हैं प्रेम की
जो किसी का लड़कपन कहा जा सकता है
एक घर है
जहाँ अतिथियों की तरह हैं बुज़ुर्ग
बच्चे हैं ,
जो कम बोलते हैं ,इशारों में करते हैं बातें
एक स्त्री है ,
जो वर्षों से उदास है
यही है
जीवन का कुल जमा ।
■
3. शुक्रवार कम पड जायेंगे..
गाँधी को संघियों ने नहीं मारा
कलबुर्गी ,दाभोलकर,पानसरे और
गौरी लंकेस को भी संघियों ने नहीं मारा
किसी को उसकी सद्भावना ने ,
किसी को उसकी कलम ने मारा
संघियों ने तो कतई नहीं मारा
किसानों की मौत का कारण कदापि सरकारें नहीं थीं
उन्हें तो नपुंसकता ने मारा
और पहलू खान ?
उसे तो किसी ने नहीं मारा
सुना था ईश्वर का डंडा दिखाई नहीं देता
यहाँ तो हत्यारे की शक्ल ही दिखाई नहीं देती
इश्वर तुम पे भारी है हत्यारा
एक फिल्म थी
'नो वन किल्ड जेसिका'
अब कितनी ऐसी फ़िल्में बनाओगे फिल्मकारों
शायद शुक्रवार कम पड जाय
बहुत ही कम ।
■
4. जन्म दिवस..
कायस्थ मनाते हैं राजेंद्र बाबू की जयंती
राजपूत महाराणा प्रताप की जयंती मनातें हैं
दिनकर जी को भूमिहारों ने आइकॉन बनाया है
और ब्राह्मण समय समय पर अपने आइकॉन बदलते रहते हैं
क्योंकि उनकी जाति ने तो हजारों सालों से नायकों की फौज तैयार की है
भगत सिंह को एक नेता वर्षों राजपूत मानता आया
और हमारे इलाके में उनकी जयंती मनाई जाती रही
जब इल्म हुआ तब बंद हुआ
आजकल बाबू वीर कुंवर सिंह की जयंती मनाई जाती है
शुक्र है कि जातियाँ बची हुई हैं
वरना हम कब के भूल चुके होते अपने नायकों को !
■
5. कभी कभी सोचता हूँ..
कभी कभी सोचता हूँ
कितना अच्छा होता अगर
यारों के साथ
करता रहता गप्प
और बीत जाता यह जीवन
कितना अच्छा होता अगर
मासूक की आँखों में पड़ा रहता बेसुध
और बीत जाता यह जीवन
लेकिन
वक़्त ने कुछ और ही तय कर रखा था
हमारे जीने मारने का समय
मुंह अँधेरे से रात को
बिछौने पर गिर जाने तक का समय
और कभी कभी तो उसके बाद भी
कि अब याद रहता है सिर्फ काम
काम याने जिसके मिलते है दाम
कि वर्षों हो गए
उस पुराने शहर को गए
जिसने दिया पहला प्रेम
कि वर्षों हो गए
उस पुराने शहर को गए
जिसने दी यारों की एक फ़ौज़
और अब तो भूल गया उस माँ को भी
जिसने दी यह काया
शर्म आती है ऐसी जिंदगी पर
कि कुत्ते भी पाल ही लेते है पेट अपना
और हमने दुनिया को बेहतर बनाने के लिए
ऐसा कुछ किया भी नहीं
कभी कभी सोंचता हूँ
कितना अच्छा होता अगर दुनियादारी न सीखी होती
अनाड़ी रहता
और बीत जाता यह जीवन ।
■
6. दुख..
बेरोज़गारी है मेरा दुख
पिता का दुख है एक अदद दामाद
और माँ का दुख तो अनंत है
जीवन में नमक की तरह घुस आए
इस आतंकवादी से
कोई नहीं मांगता पहचान पत्र
कहाँ से आते है दुख
कौन देता है इन्हें जन्म
कहाँ है घर इनका
कुछ प्रश्न अनुत्तरित है अभी
लेकिन
यही है परम सत्य
की दुख
अपनी पूरी उम्र जी के जाता है
ईश्वर कभी उसे
अकाल मृत्यु नहीं देता ।
■
7. बुरे दिनों में..
बहनें मुस्कुराना छोड़ देतीं हैं
उखड़े उखड़े होते है पिता
लड़कियाँ छत पे नहीं आतीं
और पतंग आसमान में नहीं
बुरे दिनों में
दोस्तों के फ़ोन नहीं आते
पड़ोस की लड़की के गाने की आवाज नहीं आती
और इन दिनों
चांदनी रातें भी उमस से भरी होती है
बुरे दिन पहाडों की तरह होते हैं
इन दिनों सपने भी डरे डरे होते हैं
और हम
जलते हुए शब्दों की बू में जीते हैं
लेकिन
अच्छे दिनों की
कुछ कतरनें हैं हमारे पास
हम सहेज कर रखते हैं उन कतरनों को
कि बुरे दिन भी महकने लगें
अच्छे दिनों की तरह ।
■
8. सुख..
मैं सोया हुआ था तब
जब गुनगुना रही थीं तुम
सुख चहुँओर पसरा था
प्रेम बरस रहा था मुझ पर
आँखे भी खुली थीं मेरी
लेकिन मैं सो रहा था
तस्वीरें टँगी हैं दीवारों पे
कितनी मुहब्बत है यहाँ
आने जाने वाले कर रहे हैं रस्क
मैं तस्वीरों का अभिनेता
बेख़बर
कभी की-बोर्ड पर
कभी सिगरेट के कस में
कभी अख़बार के तीसरे पन्ने में
कभी नीली रौशनी में
कभी हज़ारों फ़ुट ऊपर
कभी ज़मीन पर
मेरी नींद की ख़बर फैल रही थी
घर के कोने कोने में
और मैं अचरज में चिल्ला रहा था
मेरी आँखें देखो
खुली हैं
बिलकुल खुली हैं
किसने यह अफ़वाह उड़ाई है
मैं सो रहा हूँ ।
■
9. सुघड़ कार्यकर्ता..
तानाशाही एक प्रवृति है
एक कवि भी तानाशाह हो सकता है
एक पेंटर भी
एक प्रेमी भी
एक विद्वान भी
भ्रम में था सुघड़ लोगों की बिरादरी में हूँ
इधर
कोई वैसा ना होगा
लेकिन मिले
इधर भी मिले
बात बात पे चूतर लाल कर देने वाले
इधर भी मिले
सपने सारे खेत हुए
हलुवे सारे रेत हुए ।
■
10. लौटना..
इन्हीं क़दमों से
आबाद था कोई रास्ता
हमने भुला दिया
उसी रास्ते से थी पहचान हमारी
हमने भुला दिया
आज चौड़ी सड़कों की धूल
हमारे तलुवे को गुदगुदाती है
एक बार
जब फिर लौटने की चाह ने
बेचैन किया
मैंने स्वप्न में देखा
पुरानी पगडंडियाँ हमसे पूछ रहीं है
तुम कौन ?
■
इससे पहले कि बोलूँ
मेरी आवाज़ गूँजने लगती है
इससे पहले कि मेरी तस्वीर उतारी जाए
लग जाती है वो शहर के होर्डिंग्स में
इससे पहले की उतारूँ एक निराश चेहरा
एक खिलखिलाता चेहरा दौड़ने लगता है
इससे पहले कि पहनूँ अपना पसंदीदा कुर्ता पजामा
कोई चीख़ता है टीवी पर
उन्हें
उन्हें मेरी राय का पता है
मेरी इच्छा पता है
मेरे विचार मालूम हैं
ऐसे ही थोड़े किया गया है ख़ामोश मुझे
उन्हें सब पता है ।
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2. कुल जमा..
कुछ कविताएँ हैं
जो कुछ और भी हो सकती हैं
कुछ मित्र हैं
जो कुछ और भी हो सकते हैं
कुछ पातियाँ हैं प्रेम की
जो किसी का लड़कपन कहा जा सकता है
एक घर है
जहाँ अतिथियों की तरह हैं बुज़ुर्ग
बच्चे हैं ,
जो कम बोलते हैं ,इशारों में करते हैं बातें
एक स्त्री है ,
जो वर्षों से उदास है
यही है
जीवन का कुल जमा ।
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3. शुक्रवार कम पड जायेंगे..
गाँधी को संघियों ने नहीं मारा
कलबुर्गी ,दाभोलकर,पानसरे और
गौरी लंकेस को भी संघियों ने नहीं मारा
किसी को उसकी सद्भावना ने ,
किसी को उसकी कलम ने मारा
संघियों ने तो कतई नहीं मारा
किसानों की मौत का कारण कदापि सरकारें नहीं थीं
उन्हें तो नपुंसकता ने मारा
और पहलू खान ?
उसे तो किसी ने नहीं मारा
सुना था ईश्वर का डंडा दिखाई नहीं देता
यहाँ तो हत्यारे की शक्ल ही दिखाई नहीं देती
इश्वर तुम पे भारी है हत्यारा
एक फिल्म थी
'नो वन किल्ड जेसिका'
अब कितनी ऐसी फ़िल्में बनाओगे फिल्मकारों
शायद शुक्रवार कम पड जाय
बहुत ही कम ।
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4. जन्म दिवस..
कायस्थ मनाते हैं राजेंद्र बाबू की जयंती
राजपूत महाराणा प्रताप की जयंती मनातें हैं
दिनकर जी को भूमिहारों ने आइकॉन बनाया है
और ब्राह्मण समय समय पर अपने आइकॉन बदलते रहते हैं
क्योंकि उनकी जाति ने तो हजारों सालों से नायकों की फौज तैयार की है
भगत सिंह को एक नेता वर्षों राजपूत मानता आया
और हमारे इलाके में उनकी जयंती मनाई जाती रही
जब इल्म हुआ तब बंद हुआ
आजकल बाबू वीर कुंवर सिंह की जयंती मनाई जाती है
शुक्र है कि जातियाँ बची हुई हैं
वरना हम कब के भूल चुके होते अपने नायकों को !
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5. कभी कभी सोचता हूँ..
कभी कभी सोचता हूँ
कितना अच्छा होता अगर
यारों के साथ
करता रहता गप्प
और बीत जाता यह जीवन
कितना अच्छा होता अगर
मासूक की आँखों में पड़ा रहता बेसुध
और बीत जाता यह जीवन
लेकिन
वक़्त ने कुछ और ही तय कर रखा था
हमारे जीने मारने का समय
मुंह अँधेरे से रात को
बिछौने पर गिर जाने तक का समय
और कभी कभी तो उसके बाद भी
कि अब याद रहता है सिर्फ काम
काम याने जिसके मिलते है दाम
कि वर्षों हो गए
उस पुराने शहर को गए
जिसने दिया पहला प्रेम
कि वर्षों हो गए
उस पुराने शहर को गए
जिसने दी यारों की एक फ़ौज़
और अब तो भूल गया उस माँ को भी
जिसने दी यह काया
शर्म आती है ऐसी जिंदगी पर
कि कुत्ते भी पाल ही लेते है पेट अपना
और हमने दुनिया को बेहतर बनाने के लिए
ऐसा कुछ किया भी नहीं
कभी कभी सोंचता हूँ
कितना अच्छा होता अगर दुनियादारी न सीखी होती
अनाड़ी रहता
और बीत जाता यह जीवन ।
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6. दुख..
बेरोज़गारी है मेरा दुख
पिता का दुख है एक अदद दामाद
और माँ का दुख तो अनंत है
जीवन में नमक की तरह घुस आए
इस आतंकवादी से
कोई नहीं मांगता पहचान पत्र
कहाँ से आते है दुख
कौन देता है इन्हें जन्म
कहाँ है घर इनका
कुछ प्रश्न अनुत्तरित है अभी
लेकिन
यही है परम सत्य
की दुख
अपनी पूरी उम्र जी के जाता है
ईश्वर कभी उसे
अकाल मृत्यु नहीं देता ।
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7. बुरे दिनों में..
बहनें मुस्कुराना छोड़ देतीं हैं
उखड़े उखड़े होते है पिता
लड़कियाँ छत पे नहीं आतीं
और पतंग आसमान में नहीं
बुरे दिनों में
दोस्तों के फ़ोन नहीं आते
पड़ोस की लड़की के गाने की आवाज नहीं आती
और इन दिनों
चांदनी रातें भी उमस से भरी होती है
बुरे दिन पहाडों की तरह होते हैं
इन दिनों सपने भी डरे डरे होते हैं
और हम
जलते हुए शब्दों की बू में जीते हैं
लेकिन
अच्छे दिनों की
कुछ कतरनें हैं हमारे पास
हम सहेज कर रखते हैं उन कतरनों को
कि बुरे दिन भी महकने लगें
अच्छे दिनों की तरह ।
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8. सुख..
मैं सोया हुआ था तब
जब गुनगुना रही थीं तुम
सुख चहुँओर पसरा था
प्रेम बरस रहा था मुझ पर
आँखे भी खुली थीं मेरी
लेकिन मैं सो रहा था
तस्वीरें टँगी हैं दीवारों पे
कितनी मुहब्बत है यहाँ
आने जाने वाले कर रहे हैं रस्क
मैं तस्वीरों का अभिनेता
बेख़बर
कभी की-बोर्ड पर
कभी सिगरेट के कस में
कभी अख़बार के तीसरे पन्ने में
कभी नीली रौशनी में
कभी हज़ारों फ़ुट ऊपर
कभी ज़मीन पर
मेरी नींद की ख़बर फैल रही थी
घर के कोने कोने में
और मैं अचरज में चिल्ला रहा था
मेरी आँखें देखो
खुली हैं
बिलकुल खुली हैं
किसने यह अफ़वाह उड़ाई है
मैं सो रहा हूँ ।
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9. सुघड़ कार्यकर्ता..
तानाशाही एक प्रवृति है
एक कवि भी तानाशाह हो सकता है
एक पेंटर भी
एक प्रेमी भी
एक विद्वान भी
भ्रम में था सुघड़ लोगों की बिरादरी में हूँ
इधर
कोई वैसा ना होगा
लेकिन मिले
इधर भी मिले
बात बात पे चूतर लाल कर देने वाले
इधर भी मिले
सपने सारे खेत हुए
हलुवे सारे रेत हुए ।
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10. लौटना..
इन्हीं क़दमों से
आबाद था कोई रास्ता
हमने भुला दिया
उसी रास्ते से थी पहचान हमारी
हमने भुला दिया
आज चौड़ी सड़कों की धूल
हमारे तलुवे को गुदगुदाती है
एक बार
जब फिर लौटने की चाह ने
बेचैन किया
मैंने स्वप्न में देखा
पुरानी पगडंडियाँ हमसे पूछ रहीं है
तुम कौन ?
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