पूनम विश्वकर्मा की कविताओं में आदिम समाज के बदलते जीवन की धड़कनों को महसूस करना हिंदी कविता के पाठक के लिए अपने पाँवों के तले एक नई जमीन को महसूस करने वाला अनुभव है जहाँ बकौल त्रिलोचन एक "लड़ता हुआ समाज" अपनी "नई आशा अभिलाषा" के साथ जीवंत उपस्थित हो उठता है । भाषा के स्तर पर पूनम विश्वकर्मा की कविताएँ हिंदी कविता की शब्द संपदा को समृद्ध करती हैं और यह एक बड़ा अवदान है जिसे रेखांकित किया जाना जरूरी है । बहुत सारे जीवन प्रसंग, उनकी अलग अलग छवियाँ, उनका भाषिक स्वरूप और इन सबके मिले जुले प्रभाव से बनने वाला कविता का नया वितान पूनम विश्वकर्मा के काव्य संसार को विशिष्ट बनाते हैं । इन कविताओं में जो चरित्र अपने जीवंत रूपों के साथ उभरते हैं उनकी एक अमिट छाप स्मृति पर बनती है । ये जीवन चरित्र इस अर्थ में काव्यात्मक हैं कि ये सिर्फ करुणा नहीं पैदा करते बल्कि जीवन स्थितियों से सीधे टकराते भी हैं ।
पूनम विश्वकर्मा को कवि रूप में अपने पर्यावरण के निर्दोष चितेरे के रूप में देखना इन कविताओं को तंग दायरे में देखने जैसा होगा । इस कवि ने अपनी कविताओं में परिवेश और परिस्थिति के वस्तुगत आकलन से बहुत आगे जाते हुए कार्य कारण सम्बन्धों की व्याख्या करते हुए जीवन के त्रासद चित्रों की परतों को एक कुशल शल्यचिकित्सक की तरह खोलकर रख दिया है । यहाँ जो भोक्ता है वह अपने दुखों को ठीक ठीक जानता है और इसलिए दुखों से प्रतिकार का मार्ग भी उसे पता होता है । वह अपनी लड़ाई में कितना कामयाब होता है इस बात से इतर उसका यूँ लड़ाई के मोर्चे पर होना उसे नायकत्व की ऊँचाई देता है ।
कैसा है पूनम विश्वकर्मा की कविता का लोक ? इस सवाल का पीछा करता हुआ पाठक जिस संसार में प्रवेश करता है उसमें बैलाडीला के पहाड़ हैं, अभिवादन में हाथ जोड़ना छोड़कर जोहार कहना सीखती हुई हथेलियाँ हैं, महुए की गंध है, टोरा के बीज फोड़ते हुए कठोर हाथ हैं, सरई के पेड़ हैं, चापड़ा-लांदा-सल्फी-पेज-ताड़ी का जीवन रस है, जीवन रस से लबालब तूम्बा है, रेलगाड़ी देखने की आस में बूढ़े होते बच्चे हैं, बारूद के पानी पानी होने की कामना में डूबा प्रेम है और जहाँ जाल फेंकती, केकड़े का शिकार करती जलपरियाँ हैं । यह बस्तर का वह लोक है जो जानना चाहता है कि उसके हिस्से के उजालों को किसने ढक रखा है । यह लोक जानता है कि बैलाडीला के सारे लोहे पर उसके "बाप का नाम लिखा है" अर्थात वह अपने हक की बात निष्कंप कण्ठ से कहने का कलेजा भी रखता है । बाप के नाम से पहचानने का अर्थ सीधे सीधे अपने उत्तराधिकार की घोषणा है ।
श्रमजीवी आदिवासी स्त्री के सौंदर्य की कविता है "मिथक नहीं हैं जलपरियाँ" जिनको निहारते हुए सूरज का चेहरा भी शर्म से लाल हो जाता है । संसाधनों के लूट की तरफ इशारा करती कविता है "बीरमैया गुट्टा के उसपार इसपार" जहाँ एकतरफ सुविधा से भरा पूरा समाज है तो दूसरी तरफ वंचित जन की वेदनादायक जीवन स्थितियाँ हैं । इस कविता संसार में धरती को अपने दोनों हाथ उधार देने के लिए तत्पर एक ऐसा मन है जो पेड़ को धरती के चेहरे का काला टीका मानता आया है । आधुनिक मनुष्य जो लाभ के लिए पेड़ों को काटता आया है इस संवेदना को कैसे समझ सकता है ।
प्रेम का जो आदिम चित्र पूनम विश्वकर्मा की कविताओं में अपनी स्वाभाविकता के साथ दर्ज होता है वह दुर्लभ है । यहाँ सीने को चीरती शत्रु की गोली के बारुद को पानी पानी कर देने वाले मंत्र की कामना है । इस प्रेम में औदात्य है , प्रतिहिंसा नहीं है । यह प्रेम मीठे पान का एक टुकड़ा अपनी जीभ पर पाकर रीझना जानता है । यह प्रेम टोरा तेल से चुपड़े बालों के कालेपन को देखकर मुस्कुराता है । कहना चाहिए कि इन कविताओं की सादगी ही उसकी ताकत है ।
पूनम विश्वकर्मा की दस कविताएँ :
1. बैलाडीला के लोहे पर मेरे बाप का नाम दर्ज है ..
बैल के कन्धे का उभरा हुआ हिस्सा जैसी
आकृति लिए तुम लोहे का नहीं हमारे लिए
हिम्मत का पहाड़ हो
जिसकी सबसे ऊँची चोटी "नंदी राज पर्वत " को पूजते आए हैं हमारे पुरखे !
यूँ ही नहीं पुकारते तुम्हें बस्तर वासी गर्व से
"बस्तर का मस्तक" कि
हमारे बच्चे हाथों में पेंसिल का एक टुकड़ा थामे
तुम्हारी जड़ों में दबी
रानी प्रफुल्ल कुमारी देवी की नार खींच कर
तुम्हें उनकी शहादत के लहू से रंग सकते हैं
रानी की कुर्बानियों के किस्से में
बहुत से रंग अभी बाकी हैं !
तुम हमारे लिए खारे पानी की झील हो
जिसके किनारे ,खड़े हो कर हम
बैलाडीला ...बैलाडीला
मय आँय बस्तर चो
आदिवासी पीला जैसा मीठा गीत
गुनगुना सकते हैं
बावजूद हमारे गले में नहीं उतर सकती तुम
जून की भरी दोपहर में
ज्वार व मंडिया पेज की तरह !
तुम्हारी देह से सारा लहू चूसने के बाद भी
तुम तन कर खड़ी रहोगी
तुम्हारे पास हरे सोने की खदानें तैयार खड़ी हैं
तुम्हारी देह का सारा माँस गिध्दों के नोच लेने के बाद भी
तुम दान कर सकती हो भूखे,नंगों को अपनी हड्डियों का कैल्शियम !
तुम्हारी साँसों को जापान के जंगलों की
हवाओं की आदत नहीं
नगरनार की जरा सी गर्मी में पिघल
सकती हो तुम शुद्ध सोने की तरह
तुम्हें खरीद सकने की जुगत में
रूस की हवाइयाँ निकल गई !
तुम मूलधन के किसी ब्याज की तरह
इसकी उसकी तिजोरी में भले ही जा गिरो
लोहे की पटरी पर दौड़ती हुई तुम
तड़पती हो लौट-लौट आने की हड़बड़ी में
जबकि तुम जानती हो
तुम्हारी देह हमारे लिए किसी "नागमणि" की तरह है
तुम्हारी माँसल देह से नहीं बल्कि तुम्हारी हड्डियों की जोड़ से तैयार किया है हमने
अपने हिस्से का खुला आकाश !
अच्छा तुम्हें याद है
दीवार पर टंगी हुई तुम्हारी देह से बनी इस तलवार ने
साफ किया हो कभी अपनी नोंक पर लग आये जंग को किसी भेड़िए के ताजा खून से !
यह तो सब जानते हैं
तुम्हारी गर्भ में पीढ़ियों तक लोहे का भ्रूण पलेगा
पर यह कोई नहीं जानता
पैदा होने वाले लोहे पर
अब किसी अजनबी के बाप होने का
ठप्पा नहीं लगेगा !
हमारी हथेलियों ने अभिवादन में दोनों हाथ जोड़ना छोड़कर जोहार कहना सीख लिया है !
◆
2. सही अंत ..
तुम्हारे शरीर से महुए की गंध आती है
तुम्हारा चेहरा किसी बर्फ़ीली नदी सा सफेद हुआ जाता है
टोरा बीज फोड़ते हुए कठोर हुए जाते हैं तुम्हारे हाथ
तुम लूगा घुटनों तक बाँधती हो
तुम्हारे पैरों के नीचे फूटने वाला कोयला
तुम्हारी देह की गर्मी से आग हुआ जाता है
तुम्हारी फटी हुई एड़ियाँ सोख लेती हैं
धरती का कसैलापन
तुम्हारा मन पुड़गा के जले हुए पत्ते पर
झर कर बिखर जाता है यहीं कहीं खेत की मिट्टी में
विदा से पहले तुम भर लेती हो आँचल में
मौसमी फलों के बीज
जीवन का सही अंत सिर्फ तुम्हें पता है
मरने के बाद तुम्हारी आत्मा सरई का पेड़ होना चाहती है
ताकि किसी मोटियारी के गुदना में
तुम देख सको संसार का सुख
◆
3. मैं धरती से क्षमा मांगना चाहती हूँ ..
मैं धरती को अपने दोनों हाथ उधार देती हूँ
बड़ी जोर से धक्का मारकर चाहे तो धरती खुद को धकेल सकती है सालों साल पीछे
जहाँ मेरे पूर्वज दरवाज़े पर पानी का कसेला लिए इंतजार कर रहे हैं पाँव पखारने का
जहाँ जंगल के प्रेम में बौराई प्रेमिका
अपने जूड़े में पके फलों की महक लिए लौटती है
जहाँ हल की नोंक से धरती तोड़ती है अपनी अंगड़ाइयाँ
मैं धरती से क्षमा मांगना चाहती हूँ
टूटे हुए घरों की कसम खा कर
बोनसाई के पौधों से
एक्वेरियम में साँस लेती मछलियों से
पिंजरे में कैद मेरी मैना से
उन तमाम पेड़ों की छालों से जंगली फूलों से
मधुमक्खी के छत्तों से
पहाड़ों की घटती हुई उम्र से
मैं धरती को अपने दोनों हाथ उधार देती हूँ
धरती चाहे तो उगा सकती है मेरी हथेलियों पर एक पेड़
पेड़ धरती के लिए काला टीका है जिसके होने से उतारी जा सकती है धरती की बुरी से बुरी नज़र
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4. ऐसे लोग ..
पेन की निब तोड़कर सजा नहीं दी जाती
न ही कागज पर लिखी हुई कोई धारा
पढ़कर सुनाई जाती है
गोलियाँ गिन कर नहीं डाली जातीं बन्दूकों में
जिनकी ढिबरी में
स्याही का रंग घुला नहीं
उन्हें कागज बनने की प्रक्रिया जान कर क्या करना ?
टेका मराम के पत्तों पर लिखी हो
जिनकी जन्मकुंडली
वे लोग पण्डित के पास
अपनी हस्तरेखा दिखाने नहीं जाते
कट्टुल पर मरी देह लाद कर
गाँव से बाहर छोड़ आने वाले
अध्दाझारे के पत्ते चबा,
कडू तुरइयाँ खाकर शरीर से
साँपों का जहर उतार आते हैं
ऐसे लोगों को
कैंसर की नई दवाइयों की खेप का क्या वास्ता ?
पंडुम पर जीवाल संग खिली हुई ऐद की ताप में
मिट्टी का मन बूझने वाले
मिट्टी में दोरसाया होना पसंद करते हैं
ऐसे अबूझ लोगों को समझाना कितना कठिन काम है !
कि जीता -जागता, बोलता, हँसता, गाता
रोता, लड़ता- भिड़ता कोई देश भी है
जिसकी परिधि में उनका भी एक लोन है
कुछ लोग हवा की तरह नहीं आते
अपने होने का सबूत लेकर
कि उनका होना कागज पर छपी हुई कोई लकीर नहीं।
(शब्दार्थ : टेका मरम = सागौन के पेड़ / कट्टुल = खटिया / अध्दाझारे = एक ऐसा वृक्ष जिसकी टहनियों को दातून की तरह इस्तेमाल किया जाता है / जीवाल = जिससे प्रेम होता है / ऐद = धूप / दोरसाया = मिट्टी व धूल से सना हुआ शरीर / लोन = घर)
◆
5. घूमता है बस्तर भी ...
पृथ्वी घूमती है अपनी धुरी पर
कि पृथ्वी का घूमना तय क्रम है
अँधेरे के बाद उजाले के लिए
कि घूमती है पृथ्वी तो घूमता है
संग-संग बस्तर भी
पृथ्वी की धुरी पर !
पृथ्वी घूमती है अपनी धुरी पर तेजी से
कि घूमता है बस्तर भी उतनी ही तेजी से
इसकी, उसकी तिज़ोरी में
गणतंत्र का उपहास उड़ाता,
काले धन की तरह
छिपता-छिपाता ।
पहाड़ों की तलहटी और जंगलों की ओट से
जब भी झांकता, दबोच लिया जाता है
किसी मेमने की तरह !
पृथ्वी घूमती है अपनी धुरी पर
कि घूमता है बस्तर भी
इसकी, उसकी कहानियों में
चापड़ा, लांदा, सल्फ़ी घोटुल, चित्रकूट के
बहते पानी में बनती इंद्रधनुष की 'परछाइयों' सा
जब भी कोशिश की बस्तर ने
सूरज से सीधे सांठ-गाँठ की..
निचोड़कर सारा रस
तेंदू, साल, बीज की टहनियों पर तब-तब
टाँग दिया गया बस्तर को सूखने के लिए !
पृथ्वी घूमती है अपनी धुरी पर
कि घूमता है बस्तर भी देश-विदेश में
उतनी ही तेजी से
किसी अजायब घर की तरह..
जिसे देखा ,सुना और पढ़ा तो जा सकता है
किसी रोचक किस्से-कहानी में
बिना कुछ कहे निःशब्द होकर !
पृथ्वी घूमती है अपनी धुरी पर
कि घूमता है बस्तर भी
अपने सीने में छुपाये पक्षपात का ख़ूनी खंज़र !
न जाने वह कौन सी ओजन परत है..
जिसने ढक रखा है
बस्तर के हिस्से का
सारा उजला सबेरा ?
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6. मुक़दमा ..
हजारों वृक्षो की हत्या का मुक़दमा
दायर किया बची- खुची सूखी पत्तियों ने
बुलाया गया उन हत्यारों को
दी गई हाथ में गीता
कसम भी खाया भरी अदालत में
कि जो कुछ कहेंगे सच कहेंगे
कहा भी वही जो सच था !
अदालत ने भी माना कि
वृक्षों की हत्या कोई सोची-समझी रणनीति नही थी
और नही कोई साज़िश रची थी हत्यारों ने
क़सूर तो था वृक्षो का जिन्होंने कि थी कोशिश
धरती को सूरज की तपिश से बचायें रखने की
मूर्ख थे सारे के सारे वृक्ष
मान बैठें खुद को चाँद की मौन किरणों की भाषा का
सबसे बड़ा अनुवादक !
थी बादलों से भी इनकी सांठ -गांठ
इसलिए रोप आते थे धरती की कोख़ में
अंसख्य नन्ही-नन्ही बूंदों को
नीले समुन्द्र की खेती के लिए
मूर्ख थे सारे के सारे वृक्ष
कंक्रीट के जंगलों में उगाना चाहते थे गुलमोहर के फ़ूल
मधुक्खियों से इनकी अच्छी जमती थी
इसलिए बाँट आते थे तितलियों को
उनके हिस्से का दाना-पानी
अपनी हवाओं के बदले
हमारी सांसे रखना चाहतें थे गिरवी
इसलिए उन सारे वृक्षो को उखाड़ कर फेंक दिया
जिनकी जड़े जुड़ी हुई थी हमारे हिस्से की मिट्टी से !
मूर्ख थे सारे के सारे वृक्ष इन्हें शायद पता नही कि
जिन्दा रहने के लिए अब कृत्रिम हवा ही काफ़ी है
डाली से अलग हुई सूखी पत्तियों को भी
उतनी अक़्ल कहाँ कि
करते विरोध वृक्षो की हत्या का
अच्छा होता ग़र समय रहते सारे के सारे वृक्ष बैठ जाते
बिना कुछ कहें बिना कुछ सुनें अनशन पर
◆
7. तूम्बा गेला फूटी, देवा गेला उठी ..
पूजा घर मे रखे ताँबे और काँसे के पात्र से
कहीं ज्यादा, यूँ कहे कि
रसोईघर के बर्तनों से भी ज्यादा प्रिय है
हमारे लिए तूम्बा
पेज, ताड़ी, महुआ और दारू
यहाँ तक की पीने का पानी रखने का सबसे सुगम व सुरक्षित पात्र के रूप में चिन्हाकित है तूम्बा !
तूम्बा का होना हमारी धरती पर जीवन का संकेत है
जब हवा नहीं थी, मिट्टी भी नहीं थी
तब पानी पर तैरते एकमात्र तूम्बे को
भीमादेव ने खींच कर थाम लिया था
अपनी हथेलियों पर
नागर चला कर पृथ्वी की उत्पत्ति का
बीज बोया भीमादेव ने
तब से पेड़-पौधे, जड़ी-बूटियां, घास-फूस
इस धरती पर लहलहा रहे है
वैसे ही तूम्बा हम गोंड आदिवासियों के जीवन में
हवा और पानी की तरह शामिल है
तूम्बा मात्र पात्र नही, हमारी आस्था का केंद्रबिंदु भी है
जब तक तूम्बा सही-सलामत
ताड़ी ,सल्फ़ी, छिंद-रस से लबालब भरा हुआ
हमारे कांधे पर लटक रहा है
तब तक हमारा कोई कुछ नही बिगाड़ सकता
बचा रहेगा तूम्बा, तो कह सकते हैं
कि बची रहेगी आदि-जातियाँ
गोंड-भतरा, मुरिया
और वजूद में रहेगी जमीन और जंगल की संस्कृति
खड़ा ही रहेगा अमानवीयता के विरुद्ध बना मोर्चा
तूम्बा किसी अभेदी दीवार की तरह
कि तूम्बा का खड़ा रहना प्रतीक है मानवीय सभ्यता का
दुनिया भले ही चाँद-तारों तक पहुँचने के लिए
लाख हाथ-पैर मार ले
पर हमारे लिए सबसे ज्यादा जरूरी है
तूम्बे को बचाये रखना
हर हाल में, हर परिस्थिति में
क्योकि तूम्बा का फूटना
अपशकुन है हम सबके लिए !
◆
8. बीरमैय्या गुट्टा के उस पार-इस पार ..
★उस पार★
बीरमैय्या गुट्टा के उस पार स्कूल में बच्चों को अ से अनार आ से आम ही पढ़ाया जाता है
दिखाई जाती है बड़े पर्दे पर देशभक्ति की फिल्में
बच्चे सीखते है जूते की लेश को कसकर बाँधने के कई तरीके
सीखते है टाई-बेल्ट लगाने की विधि
फुटबॉल खेलते हुये भीगते हैं बारिश में
क्रिकेट खेलते हुये देखते हैं खुद को सचिन तेंदुलकर की तरह
नन्हें-नन्हें कदमों से फिसलपट्टी पर चढ़कर पैरों के निशान छोड़ आते है धातु की प्लेट पर
अन्तरिक्ष से झाँकती
सपनो की दो बड़ी-बड़ी आँखों में डुबकी लगाकर
तय कर आते है अपने हिस्से का धूमकेतु
रेल की पटरियों संग-संग भागता है उनके शहर में निकलने वाला सूरज
भागते है बूढ़े, बड़े, जवान
भागता है शहर का कोना-कोना
गुट्टा के उस पार कभी नहीं डूबता सूरज
कि सबकुछ बिल्कुल वैसा ही होता है जैसा बच्चों की दुनिया मे होना चाहिये ।
★इस पार★
बीरमैय्या गुट्टा के इस पार
रेलगाड़ी देखने की आस में बूढे हो गये कई बच्चे
इनके पैरों के नाप का जूता अब तक नहीं बना
इनकी पेंट की सिलाई में कच्चे धागे का इस्तेमाल होता है ताकि इन्हें फुलपैंट पहनने की आदत न पड़ जाये
अक्षर के नाम पर लाल स्याही से लिखी
कुछ अधपकी कहानियों का पुडा संभाल रखा है बच्चों ने अपने स्कूली बस्ते में
बच्चे बैलाडीला की पहाड़ियों को खोदते है जमा करते हैं
अपने हिस्से का
मुठ्ठी भर लोहे का चूरा
बारूद की खेती के लिए !
इन्हें कुछ पता हो, या न हो पर यह जरूर पता है
यहाँ का मौसम बारूद की फसल के लिए अनुकूल है
बंटवारे में बच्चों के हिस्से
कभी नहीं आया पहाड़ का वह हिस्सा
जिस पर लोहे की फसल पककर तैयार होती है
बल्कि यह जरूर हुआ
कच्चे माल को साफ करने के लिए इस्तेमाल की जाती रही
इनके हिस्से की नदी
जंगल से छंटनी कर ली गई सारी जड़ी बूटियां
लूट लिया लुटेरों ने जंगल का सारा खजाना
जिनके दम पर दो वक्त की रोटी का दम्भ भरते बड़े हुये थे इनके पूर्वज !
आदत कभी पड़ी ही नही इन बच्चों को भरपेट खाने की
उम्र से पहले बड़े हो जाने की सारी कलाओं में माहिर है इनकी इंद्रिया
एक दिन में चार गुना बढ़ता है इनका शरीर
गुट्टा के इस पार बच्चों ने
सूरज को छू कर अब तक दाम बदने को राजी नहीं किया
नाराज सूरज छिपकर बैठा है किसी बड़े से बंगले के पीछे
अनाड़ी है सारे के सारे बच्चे
समझतें ही नहीं खेल के नियम
कि इनकी हार में ही छुपा है किसी की जीत का मंत्र !
उपजाऊ जमीनें धीरे-धीरे बंजर हो रही हैं
बीरमैय्या गुट्टा के इस पार बच्चों ने पैदा होने से इंकार कर दिया है
इस पार की दुनिया वैसी नही है
जैसी बच्चों के लिए होनी चाहिए !
(बीरमैय्या गुट्टा* उस पहाड़ का नाम है जिसके उस पार तेलंगाना राज्य है जहाँ रोज विकास की नई कहानी लिखी जाती है और गुट्टा पहाड़ के इस पार केवल और केवल उपेक्षा की कहानी ।)
◆
9. बारूद पानी पानी हो जाये ..
तुम्हारा हाथ थामे बैठी हूँ मैं नम्बी जलप्रपात की गोद में जहाँ तितलियाँ मेरे खोसे में लगे कनकमराल के फूलों से बतिया रही हैं
तुम हौले से मीठे पान का एक टुकड़ा धर देते हो, मेरी जीभ पर
और मैं अपनी मोतियों की माला को भींचकर दबोच लेती हूँ मुठ्ठी में
तुम कहते हो कानों के करीब आ कर
चाँद को हथेलियों के बीच रखकर वक्त आ गया है
मन्नत माँगने का
टोरा तेल से चिपड़े बालों के कालेपन को देखकर
तुम मुस्कुरा देते हो
मेरे खोसे से पड़िया निकालकर प्लास्टिक की कंघी खोंच
प्रेम का इज़हार करते तुम्हे देखकर
मैं दुनिया के सबसे अमीर लोगो की सूची में खोजती हूँ अपना नाम
खुशी के मारे मेरे हाथ
गुड़ाखू की डिबिया से निकाल बैठते हैं
अपने हिस्से का सुकून
पानी की तेज धार से तुम झोंकते हो अपनी हथेलियों में
मेरा चेहरा धोने लायक ठंडा पानी
ठीक उसी वक्त
तुम चाहते हो मेरे साथ मांदर की थाप पर
कुछ इस तरह नृत्य करना
कि पिछले महीने न्यूनरेन्द्र टॉकीज की बालकनी में बैठकर देखी गई शाहरुख, काजोल की फ़िल्म का कोई हिस्सा लगे
तुम्हारे चेहरे को पढ़ रही हूँ ऐसे
जैसे ब्लैकबोर्ड पर इमरोज़ की अमृता के लिए लिखी कोई कविता
तुम हँसते हो जब
पगडंडियों की जगह मैं दिखाती हूँ तुम्हे
डामर की सड़कों पर दौड़ती कुशवाहा की बसें
तुम गुनगुनाने लगते हो तब
तुमसा कोई प्यारा, कोई मासूम नहीं है
कि तुम जान हो मेरी तुम्हे मालूम नही है
और खिलखिलाहट के साथ लाल हो उठता है मेरा चेहरा शर्म से
तुम कसकर मुझे बाँहो में धर लेते हो कि
तभी बारूद की तीखी गंध से मेरा सिर चकराने लगता है
घनी झाड़ियों ऊँचे पहाड़ो को चीरती
एक गोली तुम्हारे सीने के उस हिस्से को भेदती हुई गुजर जाती है
स्वप्न की उसी टेक पर जहाँ अभी-अभी मैंने अपना सिर टिकाया था
यह स्वप्न है या दुःस्वप्न कहना मुश्किल है
मैं चीख चीख कर तुम्हे पुकारती हूँ तुम कहीँ नहीं हो
मैं चाहती हूँ लौट आओ तुम पाकलू
किसी ऐसे मंतर जादू टोने के साथ
कि तमाम बंदूकों का बारूद पानी-पानी हो जाये
◆
10. मिथक नही हैं जलपरियाँ ..
जलपरियों ने नहीं छोड़ा इस विकट समय में भी चित्रकूट जलप्रपात का साथ
कि दिख जाती हैं जलपरियां दिनभर की दिहाड़ी के बाद तेज धूप में झुलसी त्वचा पर खेत की गीली मिट्टी का लेप लगाती
एक ही बेड़ी से बंधे बालों का जी उकता जाने के डर से
अपने खोसा के मुरझाये फूलों को पानी की तेज धार संग छिटक कर कहीं दूर बहाती
घुटनों तक लिपटी उनकी लूगा की गाँठ खुलकर
जब फैल जाती है नदी में,
तब नदी का दिल हल्दी में लिपटी मोटियारिन की तरह धड़कने लगता है.
लूगा को इस तरह पटक-पटक कर धोती हैं
कि नदी की सारी मछलियां मदहोश हो उनकी लूगा से लिपटकर
कोई उन्मादी गीत गुनगुनाने लगती हैं.
इंद्रधनुष की छवियाँ भी देर तक टकटकी लगाये निहारती है जलपरियों के इस अदभुत सौंदर्य को
कभी-कभी लकड़ी के भारी गठ्ठर यहीं कहीं किनारे पटक हाथों के छालो को अनदेखा कर
छिंद के पत्तो को चबा-चबा
अपने होठों को लाल कर
नदी के पानी में खुद को निहारती लाल होंठो को धीमे से भींचती बुदबुदाती हुई शर्माती हैं
शायद उस एक वक्त कोई मीठा सपना पल रहा होता है उनकी आँखों में
अक्सर दिख जाती हैं जलपरियां जाल फेंकती हुई
केकड़े का शिकार करती हुई
हांडी-बर्तन धोती
खेतों की मेड़ों पर नाचती
पत्थरों पर मेहंदी के ताजे पत्तों को पीसती
या फिर आम के वृक्षों से लाल चींटियां इकठ्ठा करती हुई
खोसा के लिए जंगल से पेड़ों की पत्तियां चुनती
जलपरियों का होना कोई मिथक बात नहीं है कि
सचमुच की होती है जलपरियां !
हिड़मे ,आयति, मनकी ,झुनकी,पायकी की देह के रूप में
'डोंगा चो डोंगी आन दादा रे' गीत गुनगुनाती
चित्रकुट जलप्रपात के बहते पानी में नृत्य करती
जलपरियों को निहारते हुये सूरज का चेहरा भी शर्म से लाल हो जाता है
सांझ होने से पहले,
मुठ्ठी भर प्रेम लेकर अपने घरों की ओर भागती
इन जलपरियों को देखना
दुनिया की तमाम खूबसूरत घटनाओं में से एक है ।
◆
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