Tuesday, August 25, 2020

सबसे बंजर हैं प्रार्थना स्थल : अमृत सागर की कविताएँ




अमृत सागर गहरी राजनीतिक चेतना और सुलझे यथार्थबोध के कवि हैं जिनके यहाँ कविता का स्वर तो कोमल है किन्तु उसके अर्थविस्तार की ध्वनि तरंगें दूर तक जाती हैं । समय और समाज का सूरतेहाल अमृत की कविताओं में खूबसूरती के साथ बिना लाउड हुए ही दर्ज हो जाता है जो कवि रूप में उनकी अपनी एक स्पष्ट छाप/ पहचान भी बनाता हुआ नजर आता है । निश्चित रूप से सजग दृष्टि और सघन विचार अमृत की कविताओं को विशिष्ट बनाते हैं ।

ट्रक ड्राइवर राम सिंह की कहानी सुनते हुए आप पाते हैं कि कवि न तो आपको राम सिंह के बारे में बता रहा होता है और न ही ट्रक के बारे में बल्कि वह आपको यह बताने का यत्न कर रहा होता है कि राम से बड़ा तो राम का नाम है । इस तरह कविता मनुष्य राम सिंह की जमीन से उठती हुई आपको ईश्वरीय राम के राजनीतिकरण की प्रक्रिया से जोड़ती है । इसी तरह कवि की यह उक्ति कि "जब मिथक विज्ञान को उल्टा लटका देते हैं तब धर्म की जय होती है" कवि का राजनीतिक बयान भी है ।

एक बहुत ही सामान्य सा वक्तव्य, कोई साधारण सी छवि, कोई बहुत मामूली सा बिम्ब भी कविता में किस तरह अपने प्रभाव में मारक हो सकता है यह देखना हो तो आपको अमृत सागर की कविताओं का सतर्क पाठ करना होगा । आप पायेंगे कि सबसे हरी पत्तियाँ और सबसे लाल लहू से आरम्भ होती हुई कविता जब आगे चलती है तो इंतजार के सबसे गीला होने और आँखों के सबसे सूखे होने की बात करती है और इस क्रम में सबसे उर्वर किसान का सन्दर्भ लेते हुए जहाँ आपको छोड़ती है वहाँ आप सबसे बंजर प्रार्थना स्थलों के निष्कर्ष में कवि के साथ हैं । पाठक को विश्वास में लेते हुए और सहज संवाद करते हुए कोई लक्षित मन्तव्य उसके कान में कह जाने का कौशल अमृत सागर की कविताओं को प्रभावी बनाता है ।

गाय पर लिखी कविता के बहाने यह कवि आपके सामने विकास नाम के गढ़े हुए मिथक के विद्रूप को उभार कर रख देता है जहाँ "कटोरे में भरा रक्त चरणामृत में बदल रहा है" और एक दौर की हिंसक राजनीति का चेहरा उघड़ने लगता है । यहाँ कवि अपनी स्वाभाविक कोमलता को छोड़कर लाउडनेस के साथ अपनी बात रखता हुआ दिखता है । यहाँ यह बात भी बहसतलब हो सकती है कि जब कवि राजनीति के प्रतीक उठाता है तो कोमलता की डोर उसके हाथ से छूटने लगती है । 

पुल एक खूबसूरत बिम्ब में ढलकर अमृत की कविता में दाखिल होता है जो खुद तो खड़ा रहता है लेकिन अपने ऊपर से गुजरने वालों के लिये नदी के दोनों छोरों को जोड़े रहता है । यह अन्य के हित में स्व के त्याग अथवा लोप का विरल वृत्तांत रचता हुआ बिम्ब है । इसी तरह हाथ, बसंत और तितली जैसे बिम्ब अमृत सागर की कविताओं में अर्थ की नई चमक को अर्जित करते हुए पाठक को रस के आस्वाद का समृद्ध करते हैं ।



अमृत सागर की दस कविताएँ:

1. 
रामसिंह ट्रक चलाता है
वह अपने गांव का अकेला नहीं है
जो ट्रक चलाता है

पर राम सिंह इकलौता है अपने गांव का
जिसके नाम में राम का नाम जुड़ा है
वह कभी कभार देर रात की बैठकी में
बहुत पी लेने केबाद बार बार दुहराता है

कि राम से बड़ा राम का नाम

और वह मंडली में अपनी बात का चुनाव
भारी मतों से जीत जाता है !


2. 
इस दुनिया में भारीपन
हल्के पन के सापेक्ष असरदार है
कभी भारी बनने के लिए
शरीर वजनी हुआ करता था
बाहुबल और सेनाएं भारी थीं

फिर युक्तियों और कूटनीति
तय करने लगी भारीपन

इतिहास भारी हो जाने के लिए अभिशप्त है
और आम इंसान हलकेपन के लिए
आज इतिहास उल्टा हो
लटक रहा
न्यूटन का सिद्धांत उल्टा हो गया
जो इतिहास में सदियों से हल्का था
आज वह बहुमत में भारी है

भारीपन साबित कर
समाज शास्त्र ने विज्ञान को कई बार मात दी
पर जब मिथक विज्ञान को उल्टा लटका देते हैं
तब धर्म की जय होती है

धर्म उतना ही हल्का था
कि वह हमारे साथ रहते हुए
भी हमारे पूरे व्यक्तित्व में न दिखाई दे

इसके अनुयाइयो ने उसे पहले सबसे भारी घोषित किया
फिर उसे प्रतीकों के पंख लगाये
धर्म हल्का होने के बजाए इतना भारी हुआ
कि इंसान को लेकर जमीन पर गिर पड़ा

नियम हल्के हो गए, अब भारी हो जाने के ।


3.
सबसे हरी पत्तियां हैं
सबसे लाल लहु
सबसे ऊँचे पिता हैं और सबसे गहरी माँ

सबसे गीला इन्तजार है
और सबसे सूखी आँखे

आजभी सबसे उर्वर किसान है
जबकि सबसे बंजर हैं, प्रार्थना स्थल !


4.
एक गाय अचानक
आदमखोर भीड़ में बदल जाती है
और भीड़ मांस चबा जाने वाले जबड़े में
पूरे मुजफ्फरनगर का गन्ना मांस के लोथड़े में बदल जाता है
और गुजरात मरघट में

आखिर देखते-देखते
एक बड़बोला हत्यारा नायक में बदल गया
और उसकी नफरत, नए-नए लिबास में
जैसे ठीक इससे पहले बदली थी
एक पूरी कसाइयों की जमात संसद में
और हाथों की कलम गले की फांस में

यज्ञ बेदी से निकले धुंए से
पूरी हवा बदल गई है घुटन में
और घुटन घरों में अपनी बारी का इन्तजार कर रहे चुप्पा लोगों में बदल जाएगी
जो लगातार अपना खाना चट करते हुए सोच रहे हैं
वह तो बच ही जायेंगे

अब निश्चिंत रहो सिन्धुघाटी के पहरेदारों
धीरे-धीरे सबकुछ बदल रहा है!
न्याय, बदले में बदल रहा है
और फांसी का फंदा, फूल-माला में
ठीक वैसे ही जैसे मृत्यु, मृत्युदंड में

बोलने और चुप रहने के मौके बदल रहें हैं
सभ्यता और संस्कृति
पालतू हो जाने या बना लिए जाने के उपक्रम में बदल गई है
जैसे बदल गया है अशोक स्तम्भ का चौथा अदृश्य शेर
आदमखोर भेड़िये में !

बदल रहा है वायुमंडल, बदल रही है पृथ्वी
इस पार और उस पार का अंतर बदल रहा
अच्छे दिनों के हाथ में
विकास के नाम पर
कटोरे में भरा रक्त चरणामृत में बदल रहा है
जैसे क्रूरता बदल रही है सम्पूर्णता में !


5.
तुम्हे जब भी याद करूँगा
कविता में अर्थ की तरह याद करूँगा
जो खुद को अदृश्य रखते हुए
कृति को अजर कर देती है!

याद करूँगा
दसियों तने वाले उस बरगद की तरह
जो छांव देने के लिए
अपने अस्तित्व के
कई हिस्से कर लेता है !
उस सूरज की तरह याद करूंगा
जो अपने सौरमंडल के लिए
खुद पर/ कभी नजर नहीं टिकने देता !

हहराती नदी पर बने
उस पुल की तरह तुम्हे याद करूँगा
जो दो किनारों को जोड़ने के लिए
कभी नदी नहीं पार करता !


6.
अक्सर यादों में
सपने बुनते, तुम्हारे हाथ नजर आते हैं
जो थामे दिखते हैं
जिन्दगी की अनगिनत तस्वीरें !

जिसमें दिखते हैं
छोटे बच्चे, रंग-बिरंगे गुब्बारे थामे
एक में टहनियां, अपने अंतिम छोर पर
फूलों को सम्हाले, दिखती हैं !

तभी एक हाथ कड़ाही का कलछुल, थाम लेता है
और एक हाथ अपने उलटे तरफ से
माथे से पसीने को, ऐसे पोंछता है..
मानो ललाट का रंग, सिंदूरी ही सिद्ध कर दे !

एक हाथ, पिता का हाथ थामे
पगडंडियों पर जाता नजर आता है
अगली तस्वीर में दो हाथ
स्कूल ड्रेस पहने कंधों पर ठहर जाते हैं

एक हाथ से पतंग हवा में लहरती है
और एक हाथ मांझे में उलझ जाता है
तभी एक हाथ, जल्दी-जल्दी
घंटी बजाता, साईकिल दौडाता है!
कुछ हाथ हवा में ऊँची उठी गेंद को अंजुरी में
भर लेना चाहते हैं

एक हाथ किसी को सड़क पार
कराते दिखता है
एक हाथ काँटों से बचते हुए
अपने प्रेयस के लिए फूल चुनता है
और एक हाथ माथे को सहलाता
थकता नहीं

शायद पृथ्वी को भी किसी हाथ ने ही थाम रखा है
दूजा सूरज और चाँद को बारी-बारी, हवा में उछालता

असल में जब भी कोई उम्मीद की
पहाड़ी से गिरता है
एक हाथ दूसरे हाथ को सम्हाले नजर आते हैं !
जैसे सपनों में
तुम्हारे हाथ मुझे, अक्सर
एक गहरी खाई में गिरने से बचा लेते हैं !


7.
कई जोड़ी आँखें
रोज ही अल सुबह तोड़ देती हैं
नींद का फरमान
और कदम निकल पड़ते हैं
रपटीली सड़कों पर सपनों को लांघते

ये आँखें सूरज पर रोज ही टिकती हैं इस आस में
कि जुटा सके निवाला
कुचल दिये गये हाथों
और पीठ पर लदी हड्डियां छींट कर

शहर के लेबर चैराहे गवाह हैं
इन उठती आँखों के
झुकने, सूखने और अनंत हो जाने के

आज भी ये मजदूरी आँखे
आस का पानी लिए
एकटक निहारेंगी

उनको नहीं पता है
मार्क्स-एंगल के घोषणापत्रों
और लाल किनारों में
छुपे हसुआ-बाल की परछाईयों का
उनके कान मजदूर दिवस के नारों
में छिपी भाषा के चिपचिपे मिजाज को
अब तलक नहीं समझ पायीं हैं

उनके लिए कैलेण्डर में हर साल
आने वाला एक मई
रोज के कार्य दिवसों पर
खुद को भट्टी पर चढ़ा देने और देर तक सिंझने का
एक सामान्य मौका भर है!

जबकि आज पढ़े जायेंगे
क्रांतियों के इतिहास और आसरों
से बेखबर इन आँखों पर दर्जनों कसीदे
और कुछ बेहद जटिल शब्दों के पीछे ‘वाद’ सटा कर
उगली जायेंगी सपनीली आग
फिर भी रोज की तरह इन आँखों की सुख जाएगी आस
और उनसे चंद क़दमों की दूरी पर
सीसे के ठंढे मर्तबान में
दम तोड़ देगी क्रांति की झाग

पर इन सबसे बेखबर
कुछ और परवान चढ़ जाएगा
इन आँखों के पक्ष में
लड़ा जा रहा आभासी युद्ध !


8.
जिसके लिए
लोहा, बारूद, नागफनी और बंदूक
एक छोटे और मुलायम फूल की तरह हैं !

वह अनाज की बाली को भी खूबसूरत फूल समझती है
और उनके रंग-रूप और सुगंध में अंतर नहीं करती!

आखिर ऐसा क्या है
जो इन तितलियों में भी अंतर करता है ?
वह पहले विभाजित करता है चमड़ी का रंग
फिर जमीन के हिस्सों में विभाजित कर देता संस्कृति
बची-खुची आत्मीयता बाँट देता है बोली और भाषा के आलम्बनो में

वह तब भी नहीं रुकता
टोपी और तिलक से जो बचता है
वह लिंग और चेहरों में बाँट लेता है
जो मन का मतलब दिल या दिमाग समझ लेता है !
वह अंतिम से अंतिम पहचान को भी दो हिस्सों में बाँट सकता है!

जबकि तितली के लिए पूरी दुनिया सिर्फ और सिर्फ एक सूरजमुखी का फूल है!
जो लगातार अपने सूरज को निहार रहा है
और तितली उसे !


9.
जो चाहता हूँ वह नहीं कर रहा
जहां जाना चाहता हूँ वहां नहीं जा रहा
जो होना चाहता हूँ वह नहीं हो पा रहा

न ठहरा हूँ न चल पा रहा
न इंसान ही रह गया न मशीन ही बन पाया

फिर भी दबोच लेती है हर मोड़ पर
घात लगाए एक नई उम्मीद
और किसी भी क्षण मुझपर
आसमान से टपक पड़ता है एक बून्द बसंत !


10.
नहीं है अश्लील किसी माँ के स्तन
सड़कों पर चूमना और कपड़े उतार देना
कतई अश्लील नहीं रहा
अब अश्लीलता न बीच सभा से उठ के चले जाने में रही
न ही अश्लील रही दुःशासन की करामात

बावजूद इसके
पता नहीं कौन भूसा भरी जानवरों की खालों को
अश्लील होने से रोक रहा
बन्दूक और खून जिनके निशान हैं
वह अब भी अश्लीलता को तोहमत लगा
मंचों पर चढ़ जाते हैं

जिनके लिए फब्तियां या इशारे
अब कोट के गुलाब हैं
जूते चला देना और थूकना
अश्लीलता के विरोधी तत्व
जबकि तस्वीरें और चलचित्र
खुद को अश्लीलता के दीवारों में चिनवा चुकी हैं!

अब भी सबसे अश्लील नहीं है, बच्चों की लाशें
नेताओं के बयान कतई अश्लील नहीं
जिसमें वह कहते हैं
सबसे अश्लील है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
और बिन पुरुष की स्त्री

अश्लीलता पर सोचते हुए
चाहता हूँ इन मुद्दों पर चुप रहूँ
पर किसान के गले में फंदा
देश का झंडा
बेटे के हाथ में डंडा
और नई सदी में विकास का फंडा
को अगर अश्लील नहीं कह पाया
तो यह और भी अश्लील होगा

यह सिर्फ तुकबंदी नहीं
क्योंकि वहीं अटके रहना भी उतना ही अश्लील है
जितना किसी भूखे पेट को ज्ञान देना !

5 comments:

  1. समय और समाज का सूरतेहाल अमृत की कविताओं में खूबसूरती के साथ बिना लाउड हुए ही दर्ज हो जाता है जो कवि रूप में उनकी अपनी एक स्पष्ट छाप/ पहचान भी बनाता हुआ नजर आता है ... इससे पूरी तरह सहमत हूं मैं..और अमृत जी कविताएं इसे तथ्य को प्रमाणित करती हैं ...सभी कविताएं खासतौर पर शुरू की छः कविताएं बहुत पसंद आई..ऐसे ही कविताओं को जिंदा रखिए अमृत जी..बहुत बहुत बधाई अमृत जी आपको ...

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  2. कोई सूरज सौरमंडल के लिए खुद पर आँख टिकने नहीं देता,,,,शानदार कविताएं है आपकी।आशा के मुताबिक।

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  3. कोई सूरज सौरमंडल के लिए खुद पर आँख टिकने नहीं देता,,,,शानदार कविताएं है आपकी।आशा के मुताबिक।

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  4. कोई सूरज सौरमंडल के लिए खुद पर आँख टिकने नहीं देता,,,,शानदार कविताएं है आपकी।आशा के मुताबिक।

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  5. बहुत गहराई है आपकी कविताओं में

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