Sunday, August 2, 2020

मैं तप कर भी बहुत कच्चा रहा हूँ : अरुण श्री की कविताएँ



अरुण श्री खाँटी अर्थों में बनारस की जमीन के कवि हैं । बनारसी इस अर्थ में कि अरुण का कवि मुँहफट भी है । वह बेलाग होकर बातें कह सकता है । इसका मतलब यह कतई नहीं कि वह नज़ाकत से अर्ज़ करने का शऊर नहीं रखता । पूरी हिंदीपट्टी में जब धर्म का बाज़ार गर्म है यह कवि इस दौर को ईश्वरों का शून्यकाल कहने का हौसला रखता है । वह अपनी निर्मितियों के प्रति न सिर्फ सजग है बल्कि हर उस चीज़ के प्रति विनम्र भी है जिनकी ज़रा सी भी भूमिका उसके बनने में रही है । वह खेत और कारखाने के द्वंद्व को पहचानता है । हाल के वर्षों में किसान त्रासदी पर लिखी याद रह जाने वाली कविता इस कवि ने लिखी है । कवि का प्रश्न सधा हुआ है - यह देश है कि अधजली चिता किसी किसान की ? अरुण श्री के कवि की कामना अपनी कविताओं को लेकर यह है कि वे चालाक और चपल बिल्ली सरीखी हों । रुखानी जैसे बिम्ब को उठाते हुए यह कवि एक नये सौंदर्यबोध की प्रस्तावना भी लिख रहा होता है । अरुण श्री के कवि की विशिष्टता यह है कि वह ऐंद्रिक प्रेम को भी उतनी ही कुशलता से अभिव्यक्त कर पाता है । कविता के स्थापत्य में लय की तरलता अरुण को अपने समकालीन कवियों में अलग से चिन्हित करवा ले जाती है । अरुण श्री आत्मदया के कवि नहीं, वे आत्मबोध के कवि हैं और तभी यह शेर भी कह पाते हैं कि - न जाने क्यों छलक जाती हैं आँखें, मैं तप कर भी बहुत कच्चा रहा हूँ । तप कर भी कच्चा रह जाना मानो कवि का सचेत आंगिक है । अरुण की कविताओं के बारे में भी यह बात सही है । वे अनुभव में तपी अवश्य हैं पर उनका कोई अंतिम शिल्प नहीं । वे अपनी बनक में थोड़ा कच्चापन भी रखती हैं और इसीलिए नये-नये रुपों में संभव भी होती हैं ।

अरुण श्री की दस कविताएँ :

1. ईश्वरों के शून्य काल में..

कुछ पंछी बने बच्चे इस तरह से हल्के हो जाएँगे अचानक-
कि बादलों के पार उड़ जाएँगे,
और कोई भी नहीं रोक सकेगा ।

छलाँग पर बलैया लेने वाली माएँ शोक मनाएँगी उड़ान का,
पिताओं को दिलासा देगा धर्म कि वहाँ और भी बच्चे होंगे ।


कुछ स्कूल इतने खाली -
कि किताबों में दुबके रहेंगे बाल-गीत ।

अनुशासित शांति से ऊब कर बचे हुए सतर्क बच्चे -
दीवार पर उकेरेंगे सहपाठियों की तस्वीरें और रोने लगेंगे ।


एक दिन धार्मिक हो जाएँगे विश्व मानचित्र से सारे संकेत,
सारे घर किसी न किसी ईश्वर के होंगे ।

और ईश्वरों के इस शून्य काल में ;
वह बच्चा भी मार दिया जाएगा उसी घर से खींच कर -
जिसकी दीवार पर लिखा होगा उसने कि ‘यह मेरा घर है’।


एक दिन ईश्वर और हत्यारों में कोई अंतर न बचे संभवतः,
धर्म और जाति में नादीमर्ग और लक्षमणपुर बाथे जितना,
पेरिस और पेशावर में बस नाम मात्र का ।


एक दिन खत्म हो जाएँगे रंग और रौशनी के सारे उत्सव ।
बच्चों के जन्म पर नहीं मिला करेंगे बधाई सन्देश,
सोहर में पिरो दिए जाएँगे ढेर सारे शब्द शोकगीतों के ।
दुनियाँ बचा लेने की उम्मीद से रिक्त हो जाएंगी प्रार्थनाएँ ।


अंततः किलकारियों से हीन इस धरती पर ;
- बारूद के धुएँ से काले पड़े अबोध घरौंदे होंगे ।
- लाशों की गंध से भरे मंदिर होंगे, देवता उन्मत्त ।
- धर्म होगा हत्याओं के पक्ष में अनेक तर्कों से सुसज्जित ।

और तब,
सभ्यता का सबसे महत्वहीन अवशेष -
बच्चों के लिए लिखी हुई कविताएँ होंगी ।

2. लिखूँ तो याद रहे..

सपनीली हथेलियों में संभाले हुए रक्त-स्वेद सने शब्द -
पूछ पड़ता हूँ स्वयं से :

कि देर रात तक जिस मेज की देह चुभाता हूँ कुहनियाँ,
उसके बढ़ई को मिला होगा मेहनताना उसका ?

क्या धरती की गोद में कहीं हुमक रहा होगा कोई बीज,
कागज हो जाने के लिए बेचैन ?

स्याही बनाता अभ्यस्त मजदूर,
क्या सुलझा लेता होगा –

अबूझे रासायनिक सूत्र जैसे जटिल दिन का तिलस्म ?
कितने उजले हो सके होंगे -

उसके साँवले बच्चों के ख़ाब ?
समूची सभ्यता बचा लेने की शक्ति से भरे शब्द,

क्या बचा लेंगे शब्दों की कीमत चुकाते एक गाँव को ?
लिखता हूँ कविताएँ तो यह भी कौंधता है साथ-साथ -

कि (अह…!!)
खोजे रहस्यों से बड़े हो गए हैं अनुत्तरित छूटे प्रश्न ।
कि कलम छोड़ उठा लेता अगर कुदाल ही हाथ में -
तो हहास कर छाती लगा लेती गाँव की पुस्तैनी मिट्टी,
अहाते में मुस्कुरा रहे होते -
आवारा खर-पतवारों की जगह फूल और सब्जियाँ ।

कि हिम्मत कर लेता तनिक -
तो बना सकता था मचान ऊँचा ,
चौराहे पर उग आए चीखते मंच का प्रतिपक्ष सशक्त ।

कि जितनी देर कविता को पिलाता रहा -
खून सपनो का,
कई बार चूमी जा सकती थी प्रेयसी की उनींदी पलकें ।

कि होने के कई सारे विकल्पों में से कवि हो जाना -
सबसे बर्बर कार्यवाही थी अपने ही विरुद्ध ।


आखिर किस कविता में दर्ज हो सकेगा -
सपने की जिद में हत रातों की सुंदरता का रुदन-राग ?

बहुत टीसता है :
कि अहाता पत्थर का हो जाएगा ,

खेतों में गाड़ दिए जाएँगे कारखाने एक दिन ।
कि मेरे वंशज -

पंडाल के खम्भे गाड़ेंगे मुँह बिराते मंच के ठीक सामने,
चबाएँगे मेरी कविताओं के विद्रोही शब्द और थूक देंगे ।


बीज हो सकने की सम्भावना से भरी कविताओं के -
भोज हो जाने की यह कैसी आशंका !

कैसा डर,
कसी चोली में लिजलिजापन छुपाती अधेड़ वेश्या जैसे !
किस हेतु यह अभिराम सौंदर्य जैसे अमरबेल,
पेड़ की पीड़ा से अपरिचित पथिकों को लुभाता हुआ !

क्या वह जीवन जैसे कबाड़ घर में धरा फार मुर्चाया,
मंथर मृत्यु वरता मिट्टी के वियोग में !
निष्प्रयोजन यह मौसमी नदी सी उत्साही चाह,

जैसे बाढ़ के दिन -
नक्से पर लिखी तटबंध की प्रस्तावना हो, कर्तव्यच्युत ।


लिखता हूँ कविताएँ तो यह भी सोचता हूँ निराश होकर,
कि न लिखा करूँ कविताएँ ।


और यदि आवश्यक हो लिखना तो लिखूँ इस तरह :
कि लज्जित न हों बूढ़े बढ़ई की हथेली उगे छाले,

कोई पेड़ यह न सोचे कि वह बाँझ भला ।
कि साँझ ढले कोई मजदूर पिता घर लौटे -

तो चूम ले कविता याद करते बच्चों को गोद में उठा,
पत्नी को मुस्कुरा कर देखे ।

कि मुझे क्षमा कर पाए गाँव की मिट्टी और प्रेयसी मेरी,
अपनी हताश रातों में मेरे वंशज -
मेरे पुरखों की किताबें रखें सिरहाने अपने ।

लिखूँ तो याद रहे कि जब मैं लिख रहा था एक कविता,
सैकड़ों हाथ मुझे थामे हुए थे ।

3. तुम अगर कभी आना मुझतक ..

परती रह गए खेत सी अनुत्पादक रात की मेंढ़ पर -
अनमना ऊँघता हुआ मैं ,
सुन्दर सपने सी चिट्ठी लिखना चाहता हूँ तुम्हें ।

जबकि :
समय की वीभत्स कविताओं से उमसते हुए दिन -
धरती की उखड़ती साँसों की गवाही दे रहे हों ,

लिखना चाहता हूँ कि असाढ़ सी याद आती हो तुम ।
चारो ओर पसरी दुर्घटनाओं में से बटोरना चाहता हूँ -
सांत्वना जितने शब्द कि ठीक है सब ।

लेकिन नई चिट्ठी में छुपा लेना चाहता हूँ प्रेम -
जैसे तुम्हारी ही पुरानी चिट्ठियाँ तुमसे ।

पूछना चाहता हूँ कि तुम्हारे शहर की शांत हवा में -
भूख की आशंका है या हिंसा की ,

बताना चाहता हूँ कि डराता हैं यहाँ का मौसम भी ।

यही मौसम है -
कि धूप में सँवराए रंग छाँह चाहते लगते चूनर भर ,
मन से उतरना नहीं चाहते बौराए रंग फागुन के ।

गुनगुनाने लगते हैं अलसाई लड़कियों के अंग-अंग -
कि “आहो बाबा महुअन लागी गइले कोंच ......”।

सपने पोसती माएं गाने लगती हैं बियहुती लोक-धुन -
कि “उतरत चइतवा ए बाबा चढ़त बइसाख ,
देसऽ पइसी खोजिह हो बाबा ....... ”।

बाबा निहारते हैं बँड़ेर में खोंसी पुरानी पनही ,
छाजन के छेद से तरेरते हैं रिसियाए बादल चैत के ।


हवाओं के बदलते रहने वाले इस मौसम में -
मैं याद करता हूँ तुम्हें बचा ली गई उम्मीद के साथ ,

कि यह मौसम जोहने का मौसम है ।
कोसता तो मैं तुम्हारे जाने के मौसम को भी नहीं ।


गाँव नहीं कोसता शहर जा बसी प्यारी संतानों को ।
समझता है कि उम्र और जरूरतों के साथ -
टूट गया होगा उसके सिवान का जादुई सम्मोहन ।

पर्यटक से लौटते हैं छोड़ गए लोग ऊँचा माथा लिए ,
सम्मान में झुका बदहाल छप्पर -

याद करता है निगस्ते को निहारता बचपन उनका ।
थोड़ा और बंजर हो जाता गाँव का गँवारपन लजाया ।

तुम अगर कभी आना मुझतक ओढ़े अपना बसंत -
तो बजते हुए खेत मत देखना मेरे सिवान के ।

कम है फसलों के भूख तक पहुँचने की संभावना ।

नीयत न आसमान की ठीक रहती ,
न सरकार की ही ।

क्या पता कि कब इनकी मुलायम छाती पर -
बज्जर सा गिर पड़ें कोई ईश्वर ही अदबदाकर !


लिपाया खरिहान मत सोचना जब याद करना मुझे ।
सोचना कि जैसे कोई किसान -

अनाज की बालियाँ याद करता हो बर्फ़बारी की रात ,
जैसे मुँह-अँधेरे शहर को हाँक दिया गया बूढ़ा बैल -
चरनी की याद में बिसूरता हो खरसान ताकते हुए ।


तुम पाँव बाँधे किस्से अपनी महान यात्रा के ,
बरसात बाद की कच्ची सड़क देखना मेरे गाँव की ।

सड़क की छाती पर पड़े पहियों के निशान देखना ,
देखना -
कि भरते नहीं कुछ घाव साथ बदलते मौसम के ।


अधटूटे पुल पर लिखे नाम में खोजना अ-कहे किस्से ।
प्रेम को नदी पार वाले शहर की मंडी समझना ।

मैं पहुँच भी जाता किसी तरह वहाँ तक ,
लौटता तो खाली हाथ ही ।

भरे गोदाम कब अंकवार देते हैं उदास चूल्हों को ?
भूखे बच्चों से छुपाया बीया भी लील जाता बाज़ार ।


माना कि ले जा सकते थे अलौकिक गीत तुम्हारे -
बादलों के पार मुझे किसी सपनीली दुनियाँ में ,

लेकिन -

बदल तो न जाता जीवन रेखा नदी का रंग रेतीला ?
जँतसार सी सुलगती हुई दुपहरी से न उलझाना -
सोहर हुई भोर अपनी ।

पहाड़ के दुःख में सूख भी जाएगी कोई नदी अगर -
पुनश्व शिखर नहीं हो सकेगी पहाड़ का !

मौसम-विज्ञानियों की भविष्यवाणी सा चिंतित स्वर ,
दूर नहीं कर सकता -

सुनहले खेतों से आँखों उतर आया उजाड़ पीलापन ।

हालाँकि बाँचते हुए दुःख मेरा ,
करकती तो तुम्हारी छाती में भी होगी -
हरियाई धरती के पाँव में ठोक दी गई काली नाल ।


रंगों के बदरंग हो जाने की अनचाही यात्रा में :
निराश न हो जाना -

ज्यों निराश हो जाता महाजन किसान की लाश देख,
पतली रस्सी को कोसता है ,
सरापता है पुरानी धरन को ।

मास पचा गई देह में खोजता कंकाल भर संभावना ।


संभावनाओं के राख सी स्मृतियाँ मेरी -
मानो विकास के रस्ते में अवरोधक से पर्यावरणविद ।


अंधे कुँए में विसर्जित कर देना अवशेष अपराधों के ,
तुम्हारे दिन कि तुम समृद्ध होती जाओ दिनों-दिन -
सरकारी सूचकांकों की तरह ।

मैं भी ठीक जितना कि कृषि प्रधान यह देश महान ,
चमचमाते राजमार्गों पर इठलाता हुआ ।


4. खेतों का एक और बेटा..

बेटा पढाई के लिए पैसे मांगता है किसान पिता से ।
पिता कहता है कि खराब हो गई है फसल ।

ज़िद करता है मासूम बेटा,
पिता आत्महत्या कर लेता है ।

“अब क्या चाहिए” के सवाल पर -
बेटा एक नौकरी माँगता है अब हर पूछने वाले से ।

कमउम्र बेटे को निहारती माँ की आँखों में न आसूँ हैं,
न असहमति ही ।

सरकारी बयान है कि “शराब की जगह -
गलती से पेस्टीसाईड पी गया था वह किसान पिता ।

और ये जो औरत है गुमसुम सी बैठी मड़ई के बाहर,
उसका चक्कर था साहूकार से ।”

गाँव के बूढ़े उदास है -
कि खेतों का एक और बेटा कारखाने चला जाएगा ।

5. यदि मिल भी गए बुद्ध..


अपने पुरखों की स्मृतियों भर ही जाना मैंने बुद्ध को , यह बताते हुए -
कि वो मुस्कुराए कब ,
कभी रोए तो क्यों आखिर और किसके लिए रोए ,
कितनी मीठी थी सुजाता की खीर , यशोधरा के प्रश्न कितने नुकीले ।

समझाते : दुःख और पलायन, पाप और तपस्या, मृत्यु और निर्वाण ।

मैं सोचता हूँ अक्सर -
कि क्या कभी मेरे समय में आकर मुझसे भी मिले सकेंगे बुद्ध ?


अव्वल तो मिलने के लिए बुद्ध से पहुँचना होगा स्वयम् ही बुद्ध तक ।
लेकिन यदि आए समय के इस पार और मिल भी गए ,
तो पीठ पर अनाज का बोरा लादे -
किसी सोमालिया जाने की जल्दी में होंगे संभवतः ।

मैं मुस्कुरा कर करूँगा अभिवादन और हट जाऊँगा रास्ते से उनके ,
कि भूख तक पहुँचती रोटी के रास्ते में -
अच्छा नहीं औपचारिकता भर भी व्यवधान ।

उनके चले जाते ही -
खेत को पीठ किए किसान को बताऊँगा पूँजीवादी गोदामों का षणयंत्र ।

या फिर वे हो सकते हैं -
सैनिक मुख्यालय पर संभवतः साथ नंगी खड़ी मणिपुरिया स्त्रियों के ।
व्यस्त होंगे पर्याप्त टुकड़े करने में अपने अँगोछे का ।

तब मैं क्या पूछूँगा उनसे ,
संभवतः वही पूछ बैठे कि “यार कवि ! ये अफ्सपा क्या बला हुई ?”

मैं उन विदेह औरतों की देह पर लिखते हुए एक और नारा -
बुद्ध से कहूँगा कि “इन्हें नहीं हैं कपड़ों की जरुरत”।

या अगर मिलें तो मिलें -
किसी वियतनामी सड़क के मोड़ से निहारते हुए खेलते बच्चों को ,
अमेरिकी विमानों को देख उदास हो जाएँगे ।

तब मैं कहूँगा उनके कंधे पर हाथ रख -
कि “यार बुद्ध !
चलो ,
इन बच्चो को कोई नया खेल सिखाओ, याद कराओ नई कविता एक ।
मैं इन्हें आसमान की ओर पत्थर फेंकना सिखाता हूँ ।”

और फिर भी; जबकि यह समय नहीं है चर्चा करते रहने का समय ,
यदि -
मिल भी गए बुद्ध कभी मुस्कुराते-सुस्ताते तो नहीं पूछूँगा सवाल कोई ।
मेरे सवाल राजा के लिए हैं,
भरे दरबार में पूछे जाएँगे ।
वर्ना बीच सड़क से राजसी तोपों की ओर लहराते हुए मुट्ठियाँ अपनी ।




6. ये देश है..

ये देश है कि अधजली चिता किसी किसान की ?
ये लोग -
जो विलापते हैं शोक में कि भूख से ; पता नहीं ।

पता नहीं :
जो हँस रहे वे कौन हैं ?
कौन हैं जो मौन हो निहारते है आँच की परिधि ?
कौन तोड़ कर मचान रच रहा है मंच ?
कौन है ?
जो रच रहा कवित्त ईश्वरीय -
शोक-भूख-हास्य-मौन-मंच-मृत्यु के विरोध में,
कि -
खेत छोड़ रेत पर उकेरता है बालियाँ अनाज की ;
उचारता है आँख मूँद मुक्ति-मुक्ति, शांति-शांति ।

व्यर्थ मुक्ति ;
शांति व्यर्थ ।
मृत्य व्यर्थ, मृत्यु का विरोध व्यर्थ - शोक व्यर्थ ।
और व्यर्थ अर्थवान मुट्ठियों के लाख अर्थ ।
मुट्ठियाँ :
जो जेब में पड़ी हुई तटस्थ है कि व्यग्र हैं ;
कि लिंग पर कसी-कसी -
पिरा रही हैं उँगलियाँ ?
जो कसमसा रहा हृदय में दुःख है कि स्खलन ?

ये देश है कि अधजली चिता किसी किसान की ?
ये लोग -
जो विलापते हैं शोक में कि भूख से ; पता नहीं ।

7. बिल्ली-सी कविताएँ..

मैं चाहता हूँ कि बिल्ली सी हों मेरी कविताएँ।

क्योकि -
युद्ध जीत कर लौटा राजा भूल जाता है -
कि अनाथ और विधवाएँ भी हैं उसके युद्ध का परिणाम।
लोहा गलाने वाली आग की जरुरत चूल्हों में है अब।
एक समय तलवार से महत्वपूर्ण हो जातीं है दरातियाँ।

क्योंकि -
नई माँ रसोई खुली छोड़ असमय सो जाती है अक्सर।
कहीं आदत न बन जाए दुधमुहें की भूख भूल जाना।
कच्ची नींद टूट सकती है बर्तनों की आवाज से भी,
दाईत्वबोध पैदा कर सकता है भूख से रोता हुआ बच्चा।

क्योंकि -
आवारा होना यथार्थ तक जाने का एक मार्ग भी है।
‘गर्म हवाएं कितनी गर्म हैं’ ये बंद कमरे नहीं बताते।
प्राचीरों के पार नहीं पहुँचती सड़कों की बदहवास चीखें।
बंद दरवाजे में प्रेम नहीं पलता हमेशा,
खपरैल से ताकते दिखता है आँगन का पत्थरपन भी।

क्योकि -
मैं कई बार शब्दों को चबाकर लहूलुहान कर देता हूँ।
खून टपकती कविताएँ -
अतिक्रमण कर देतीं है अभिव्यक्ति की सीमाओं का।
स्थापित देव मुझे ख़ारिज करने के नियोजित क्रम में -
अपना सफ़ेद पहनावा सँभालते हैं पहले।
सतर्क होने की स्थान पर सहम जातीं हैं सभ्यताएँ।
पत्ते झड़ने का अर्थ समझा जाता है पेड़ का ठूँठ होना।

मैं चाहता हूँ कि बिल्ली सी हों मेरी कविताएँ -
विजय-यात्रा पर निकलते राजा का रास्ता काट दें।
जुठार आएँ खुली रसोई में रखा दूध, बर्तन गिरा दे।
अगोर कर न बैठें अपने मालिक की भी लाश को।
मेरे सामने से गुजरें तो मुँह में अपना बच्चा दबाए हुए।

8. रुखानी..

बढ़ई की भाषा में कितना सुन्दर शब्द होता है ‘रुखानी’ !
खुरदरेपन को निषिद्ध करती इस चिकनी सभ्यता में -
पेड़ की भाषा में क्या हो सकते थे सुंदरता के मानक ?
यदि पहाड़ की भी एक भाषा होती अपनी,
सरकारों से -
कितना अलग सोचता वह राष्ट्र-निर्माण के विषय में ?
सत्ता जिस भाषा में छपवाती है विकास के अनुबंध,
एक मजदूर -
यदि लिख सकता हस्ताक्षर से अधिक तो क्या लिखता ?

9. संग तुम्हारे ..

संग तुम्हारे जीवन बीता बहुत दिनों तक ।
कब सोचा था , मुझसे दूर तुम्हारा जाना ऐसा होगा ।

बिना प्रतीक्षा किए तुम्हारी अब तो जल्दी सो जाता हूँ ।
बुझा दिया करती थी जो तुम -
दिया रात भर जलता है अब ।
बतियाता है भोर भोर तक कीट-पतंगों से हँस-हँस कर ,
खुश रहता हैं ।
और पुरानी चादर पर अब नहीं उभरती -
रोज–रोज की नई सिलवटें ।

मैं भी सारी फिक्र भुला कर सूरज चढ़ने तक सोता हूँ ,
नही जगाती अब कोई चूड़ी की खन-खन ।
कानों को आराम मिला बर्तन धोने की आवाजों से ।
और ऊँघते होंठ चाय की प्याली याद नही करते हैं ,
पहली चुस्की में अक्सर जल ही जाते थे ।

साथ तुम्हारे मैं चलता था घायल पैरों की छागल बन ।
चलती थी तुम धीरे–धीरे , संभल-संभल कर ,
रहता था संगीत अधूरा ।
पथरीले रस्ते पर जीवन राग साधते ,
माथे पर सौभाग्य सरीखा धार दहकता शाप ,
तुम्हारे कोमल मन ने -
मेरी किस्मत के माथे पर यादों का संदूक लिख दिया ।
अब जीवन में सूनापन है ।

बिना तुम्हारे जीवन सूना बहुत दिनों तक ।
फिर भी याद नही आती अब ।
कब सोचा था , मुझसे दूर तुम्हारा जाना ऐसा होगा ।
10. मैं तप कर भी..
समन्दर से कहीं गहरा रहा हूँ
कभी कतरा उन आँखों का रहा हूँ

तुम्हीं थे जिन्दगी पर ये भी सच है
तुम्हारे बिन भी मैं जिन्दा रहा हूँ

तुम्हारी मंजिलों तक जा न पाया
वगरना मैं भी एक रस्ता रहा हूँ

न जाने क्यों छलक जातीं हैं आँखें
मैं तप कर भी बहुत कच्चा रहा हूँ

न छेड़ो बात अब दरियादिली की
तुम्हारे साथ भी प्यासा रहा हूँ

हुई ज़ाहिर न उरयानी वफ़ा की
ये मैं जो आज तक पर्दा रहा हूँ

मैं बन्जारामिजाजी छोड़ देता
कई आँखों का पर तारा रहा हूँ

4 comments:

  1. अरुण श्री मेरे प्रिय कवि हैं।
    फिर से पढ़ा। फिर से विश्वास बढ़ा, फिर से जाना कि क्यों मुझे इतने पसन्द हैं अरुण श्री।

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  2. बहुत धन्यवाद सर । ऐसी भावनाएँ मुझे सचेत रहने में मदद करती हैं ।

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  3. अद्भुत, अविस्मरणीय उच्चस्तरीय और सारगर्भित रचनायें जितनी प्रशंसा करूँ कम है 👏👏👏

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  4. अरुण सर, आपकी कविताओं को पढ़ कर हमेशा मन भर जाता है। हमेशा इंतज़ार रहता है नए लिखे हुए का...

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