Tuesday, August 4, 2020

अव्यक्त रह जाने की भाषा : विमलेंदु की कविताएँ






हिंदी कविता के वैभव को विमलेंदु सरीखे कवियों ने उसके नेपथ्य के सुनसान में बचा कर रखा है, इस बात की आश्वस्ति आप इन लगभग अचर्चित किंतु सशक्त कविताओं से गुज़रते हुए पायेंगे । विमलेंदु पिछले आठ-दस वर्षों से खामोशी के साथ निर्लिप्त भाव से कविताएँ लिखते रहे हैं और कई बार अपनी कविताओं से मुग्ध करते रहे हैं ।

असाधारण बिम्बों का समायोजन विमलेंदु की कविताओं के संसार को जुगनू की तरह आलोकित करता है । यहाँ एक पेड़ अपने ही काठ से डरा हुआ दिखाई देता है तो एक समुद्र है जो अपने पानी से डरा हुआ है और वहीं एक पहाड़ भी है जो अपनी ऊँचाई से डरा हुआ है । कविता का पाठक इस तरह काठ, पानी और ऊँचाई जैसे विचार को यहाँ नई रोशनी में देखता और महसूस करता है ।

प्रेम और मनुष्यता इस कवि के यहाँ ऐसे उदात्त स्वरूप में प्रकट होते हैंं जहाँ  अन्य के लिए किसी की नींद में जाकर सो रहने का आह्वान है और किसी के सपनों में जागते रहने का विकल्प भी खुलता है । यह कितनी सुंदर बात है कि यह कवि वर्णमाला को गरुकुल के बाहर पढ़ने का आग्रही है और इस आग्रह के साथ वह चीज़ों से अपने रिश्तों को बदलता और आविष्कृत करता है ।

प्रेम के कुछ अनूठे चित्र विमलेंदु की कविताओं में दर्ज हुए हैं । पर्यटन जिस तरह से मध्यवर्गीय जीवन में विलास के अवसर पैदा करता है उसके विद्रूप पर भी कवि की पैनी नज़र है । खोये हुए व्यक्तियों के बारे में, एक गहरे राजनीतिक बोध की कविता है जो इस निष्कर्ष तक जाती है कि खो जाने वाले व्यक्तियों के जय-पराजय पर ही सम्राटों के अभेद्य दुर्गों का भविष्य टिका होता है ।

अव्यक्त की भाषा की तलाश विमलेंदु के कवि को बेचैन करती है । मुक्ति के प्रश्न पर यह कवि अपनी मुक्ति से पहले अन्य की मुक्ति को प्रस्तुत मिलता है और इसे अपना राजनीतिक बयान भी मानता है । आग की मुक्ति के लिए सूखी लकड़ी की तरह इकट्ठा होने की आकांक्षा कवि को एक दर्जा ऊपर का मनुष्य साबित करती है । इतिहास से छूट गए किरदार भी कवि की दृष्टि से ओझल नहीं हो पाते और वह इस बात को यकीन के साथ कहता है कि इतिहास से छूट गए लोग ही इतिहास को ध्वस्त करने की क्षमता भी रखते हैं ।




विमलेंदु की दस कविताएँ :

1. वह डरा हुआ है इन दिनों ..

एक कद्दावर पेड़ है वह
और अपने काठ से डरा हुआ है

वह एक समुद्र है
उसे पानी से बेहद डर लगता है इन दिनों
ऊँचाई से डरा हुआ
एक पहाड़ है वो

जो चीज़े जितनी सरल दिखती थीं
शुरू में उसे
वही उसकी
सबसे मुश्किल पहेलियां हैं अब
जैसे नींद जैसे चिड़ियां
जैसे स्त्रियां जैसे प्रेम जैसे हँसी

जिसकी धार में वह उतर गया था
बिना कुछ पूछे
उस नदी को ही
अब नहीं था उस पर भरोसा

जिनका गहना था वो
वही अब परखना चाह रहे थे उसका खरापन
नये सिरे से.
जिन्होंने काजल की तरह आँजा था बरसों उसे
उन्हें अब उसके
काले रंग पर था एतराज़

जिनका सपना था वह
वही उसके जीवन में
सबसे निर्दयी सच की तरह आये

मित्रों के बीच
वह संदिग्ध माना जाता है
तो शत्रु बेहद इमानदार रहे हैं उसके साथ

उसकी नींद में आते जाते लोगों ने
एक बच्चा देखा है छुपा हुआ
जो सपने में डर जाता है अक्सर

उसके पिता कहते थे
कि वह सपने भी डर डर के देखता है ।

2. मैं उससे कह रहा था ..

मैं उससे कह रहा था
कि तुम्हें नींद न आती हो
तो मेंरी नींद में सो जाओ
और मैं
तुम्हारे सपने में जागता रहूँगा ।

असल में
यह एक ऐसा वक्त था
जब बहुत भावुक हुआ जा सकता था
उसके प्रेम में ।

और यही वक्त होता है
जब खो देना पड़ता है
किसी स्त्री को।

यह बात तब समझ में आयी
जब मुझ तक
तुम्हारी गंध भी नहीं पहुँचती है
और भावुक होने का
समय भी बीत चुका है ।

एक दिन देखता हूँ
कि सपने
व्यतीत हो गये हैं
मेरी नींद से ।

सपने न देखना
जीवन के प्रति अपराध होता है
कि हर सच
पहले एक सपना होता है ।

यह सृष्टि
ब्रह्मा का सपना रही होगी
पहले पहल,
और उसी दिन
लिखा गया होगा
पहला शब्द- प्रेम !


3. उन दिनों जो दिन थे ..


कुछ इस तरह से
बदल रही थी उन दिनों ज़िन्दगी
कि ध्वनि गति मति और
यहां तक कि शून्य के भी अर्थ बदल रहे थे ।

मैं वर्णमाला को
गुरुकुल के बाहर पढ़ने लगा था ।

चीज़ों से मेरे रिश्ते बदल गये थे
हवा, हवा जैसी नहीं थी
और पानी
उस तरह से पानी नहीं रह गया था ।

मैं साँस लेता था
तो ऑक्सीजन थोड़े ही जाती थी मेरे फेफड़ों में
मुझे पानी से बड़ी जलन होती थी
कि एक अणु ही सही
हाइड्रोजन रकीब से कम नहीं था ।

आकाश के सामने मैं विनत था
वहीं एक निर्बल संभावना थी
तुम्हारे भरे होने की ।

उन दिनों
मैं ये नहीं था जो आज हूँ ।


4. मैं कुछ कम रह जाना चाहता हूँ ..

काल के अनिश्चय से
कुछ निश्चित को पा लेने की
हमारी आदिम ज़िद
अक्सर प्रार्थना की तरह फूटती है
हमारी समूची शौर्यगाथा के
नेपथ्य से ।

अभी अभी जो जन्मा है
एक नया साल
उसकी हँसी में झड़ते हैं
हमारी विजय के फूल
और उसके अयाचित रुदन में
मनुष्य की चूकों के गीत हैं ।

इन चूकों का
मैं एक आत्म-समर्पित मुजरिम
ढूढ़ना चाहता हूँ
उन गौरैय्यों को
जिनको आँगन से विदा लेते
देखा भी नहीं किसी ने ।

अंतरिक्ष के
किसी गोपन अवकाश में
मैं छुपा देना चाहता हूँ
अपने समय के विश्वसनीय शब्दों को ।

मुझे प्रेम करने वाली स्त्री को
मैं उस वक्त देना चाहता हूँ
एक चुम्बन
जब प्रेम-द्रोह की
सज़ा तामील करने से पहले
मेरी अंतिम इच्छा पूछी जायेगी ।

मैं कुछ झूठ सीखना चाहता हूँ
जिन्हें सच की तरह बोल सकूँ
उन लम्हों में
जब एक बच्चा
मुझे लाचार और निरुत्तर छोड़ देता है ।
उस नौजवान दोस्त से
जो तीन बार जान देने की
कोशिश कर चुका है ।
उस आग से
जो तब्दील होती जा रही है राख में ।

देखता हूँ
साल दर साल
समुद्र में बची रहती है थोड़ी प्यास
अनगिन नक्षत्र है
उसके बाद भी
सबके लिए थोड़ा खाली है आकाश
जिस्म से निकलने के बाद
खून में बची रहती है थोड़ी हरारत
हवा कितना चलती है
फिर भी कम रह जाती है कुछ दूरी ।

नये साल में भी
मैं कुछ कम रह जाना चाहता हूँ ।।


5. पर्यटक ..

इनके लिए दर्शनीय है वो जगह
उनकी ज़िन्दगी जहाँ जमी जा रही है ।

उनके ठहराव में ही
इनकी गति है
लक्ष्मी चपल हो जाती है इनकी
जब उनकी धमनियों में
खून जमने लगता है
जड़ें पत्तियों तक
नहीं पहुँचा पातीं जीवन
पक्षियों की उड़ान
एक जुम्बिश तक के लिए
हो जाती है मोहताज

तब ये निकलते हैं पर्यटन पर ।

जमी हुई झील में फँसी नाव
और आँखों में जमी बूँद की
तस्वीर खींचते हुए
अपने आलिंगन को
सार्वजनिक करके
प्रमाणित करते हैं मोहक दाम्पत्य ।

ये धरती पर स्वर्ग खोजने निकलते हैं ।

गठिया वात में जकड़े
माँ बाप को
पड़ोसियों के भरोसे छोड़कर
जाते हुए
फर वाला कोट
और पशमीने की शॉल
लाने का वादा दुहराते हैं
तो बूढ़ी आँखों में आ जाती है
एक उदास चमक
और बेजान पैरों में
अचानक होती है
एक लाचार सी हरकत ।

अपना अपना खयाल रखने की
ताकीद के साथ
चार हथेलियां लहराती हैं
और दो जोड़ी
आँखों के मोतियाबिन्द
इन्हें विदा करते हैं
पर्यटन के लिए
एक और उजाड़ पर ।


6. खोये हुए व्यक्तियों के बारे में ..

इनके बारे में
जो जानकारियाँ होती हैं
वो विश्वसनीय नहीं होतीं उतनी ।

जिन ज़गहों पर दर्ज होती है इनकी गुमशुदगी
वहाँ कई बातें छुपा ली जाती हैं सचेत होकर ।

कि जब उनके कपड़ों का
रंग दर्ज़ कराया जाता है
नीली कमीज और खाकी पैन्ट
उस वक्त ये नहीं बताया जाता
कि पिछली होली से ही
वह अचानक रंगों से डरने लगा था.
या कि एक वो
जिसके जीवन से लाल के अलावा
सभी रंग ख़ारिज़ हो चुके थे ।

रोज़नामचे में
यह कहीं नहीं लिखा जाता
कि गुम होने के वर्षों पहले से
वो जो भूमिगत था अपने ही भीतर
आखिर वह किस युद्ध की तैयारी कर रहा था ।
या यह कि जीवन की किस लड़ाई का
वह पराजित योद्धा था ।

क्या कभी कोई यह लिखवाता है
कि एक थाली कम परोसते हुए
माँ के हाथ
क्यों पहुँच जाते हैं आँख की कोर तक !
कि उनकी पत्नियां
माँग में भरते हुए सूनापन
ईश्वर से प्रार्थना करती हैं या शिकायत,
यह भी प्रामाणिक रूप से
नहीं बताया जा सकता ।

यूँ तो गुम होने की कोई उम्र नहीं होती
लेकिन कई बार उम्र भर
उनके लौटने का रास्ता देखते हैं लोग ।
किसी भी गुमशुदगी का
यही वह पहलू होता है
जहाँ सबसे अधिक चुप्पी होती होती है.
यह कभी नहीं पता चल पाता
कि किन किन रुलाइयों में
एक रुलाई
किसी के खो जाने के लिए भी है ।
कि रोने के लिए
नहाने का वक्त चुनने वाले का
क्या रिश्ता तय किया था वक्त ने
उस गुमशुदा से ।

जिन भी अनजानी ज़गहों पर
हवा में घुलती होगी इनके सीने की भाप
और धूल से मिलता होगा
इन गुमशुदा लोगों का पसीना
वहाँ किस प्रजाति के पौधे उगते होंगे !

यद्यपि किसी इतिहास में
दर्ज़ नहीं होती खो जाने वालों की सूचना
लेकिन इनकी जय-पराजयों पर ही
टिके होते हैं
चक्रवर्ती सम्राटों के अभेद्य दुर्ग ।


7. न होने की भाषा ..

इन दिनों
मैं किस भाषा में बात करूँ
कि ज़ाहिर न हो मेरा पराजित होना
और उदासी रौशन न हो उठे
शब्दों के अँधेरे में भक्क् से ।

सपनों के स्थापत्य को
छुपा लेने के लिए
किन शब्द शक्तियों का उपयोग
सबसे कारगर होगा इन दिनों !

माथे पर उभरती
बेचैन लकीरों की लिपि को
अपाठ्य बना देने की कला
मुझे किस काल के उत्खनन में मिलेगी ।

मुझमें राजमार्गों पर
चलने का शऊर नहीं था
मैं दिन रात
अपनी पगडंडियाँ बनाता रहा ।
अपनी प्यास के लिए
नदियाँ बनायीं
धरती के एक बंजर टुकड़े पर
मैं रोपता रहा अपनी ज़िद ।

इसी रास्ते पर चलते हुए
मैं अपने होने की
सरहद तक पहुँच गया ।

अपने होने के
आखिरी जिस छोर पर हूँ मैं
वहाँ तक नहीं चलीं पगडंडियाँ
नदी नहीं आयी साथ
पेड़ भी ओझल हैं नजरों से ।

यहाँ से आगे
एक ऐसी अभिव्यक्त दुनिया है
जिसमें मुझे सीखनी है
अव्यक्त रह जाने की भाषा ।

8. इच्छाओं के अनन्त में ..

तुम पृथ्वी हो जाओ
तो मैं तुम्हारा चन्द्रमा बन कर
घूमता रहूँ अपनी कक्षा में

तुम तितली हो जाओ
तो मैं खिला करूँ फूल बन कर

तुम नदी हो जाओ
तो एक चट्टान की तरह
रास्ते में पड़ा
धीर धीरे कटता रहूँ तुम्हारी धार से

तुम सूरज की तरह निकलो
तो मैं बर्फ होकर
पिघलता रहूँ तुम्हारी आँच से

तुम आग हो जाओ
तो मैं
सूखी लकड़ी होकर इकट्ठा हो जाता हूँ

तुम गौरैया बन जाओ
तो मैं
आँगन में दाना होकर बिखर जाता हूँ

इच्छाओं के इस अनन्त से
अन्ततः मैं तुम्हें मुक्त करना चाहता हूँ

यही मेरा आज का राजनीतिक बयान है ।

9. जो इतिहास में नहीं होते ..

जो लोग इतिहास में
दर्ज़ नहीं हो पाते
उनका भी एक गुमनाम इतिहास होता है.

उनके किस्से
मोहल्ले की किसी तंग गली में
दुबके मिल जाते हैं.
किसी पुराने कुएं की जगत पर
सबसे मटमैले निशान में भी
उन्हें पहचाना जा सकता है.

ऐसे लोग, आबादी के
किसी विस्मृत वीरान के
सूनेपन में टहलते रहते हैं.

एक पुराने मंदिर के मौन में
गूँजती रहती है इनकी आवाज़.

कुछ तो
अपनी सन्ततियों के पराजयबोध में
जमें होते हैं तलछट की तरह.
तो कुछ
पुरखों की गर्वीली भूलों की दरार में
उगे होते हैं दूब की तरह.

जिन लोगों को
इतिहास में कोई ज़गह नहीं मिलती
उन्हें कोई पराजित योद्धा
अपने सीने की आग में पनाह देता है.

ऐसे लोगों को
गुमसुम स्त्रियाँ
काजल की ओट में भी
छुपाए लिए जाती हैं अक्सर.

ऐसे लोग
जो इतिहास में नहीं होते
किसी भी समय
ध्वस्त कर देते हैं इतिहास को।

10. जीवन के उत्तरार्ध में ..

यूँ तो कुछ सीखना
उतना आसान नहीं होता अब
फिर भी मैं
कुछ प्रयत्न करता हूँ
जीवन के उत्तरार्ध में ।

असंभव वानप्रस्थ के बीच
मैं एक ऐसा गृहस्थ
बने रहना चाहता हूँ
जो नहीं हुआ किसी हादसे का शिकार
और बचा ले गया पुरखों की पगड़ी ।

इसी अवधि में
मैं सीख लेना चाहता हूँ
सीली तीलियों से आग सुलगाना
और राख के ढेर में उसे बचाये रखना
और गठानें खोलने जैसे मामूली काम ।

मैं चाहता हूँ
कि निकलूँ जब बाज़ार की तरफ
तो चौंधिआया न करें आँखें
और बचा रहे
दोबारा वहाँ आने का हौसला ।

मेरा मन है
कि अब भी सुनाई पड़ें मुझे
चिड़ियों के गीत
और उन्हें मैं
चीखों के अंतराल में
गुनगुना भी लूँ ।

लंबी यात्राएँ अब मुमकिन भी नहीं
और ज़रूरी भी
लेकिन कुछ बची रह गई दूरियों को
चल लेने की बेचैनी
खाये जाती है दिन रात ।

मैं भटक कर भी
कुछ ऐसे रास्ते खोजना चाहता हूँ
जो इन दूरियों की ओर जाते हैं ।

ऐसे तो कोई शौक बचे नहीं अब
और नींद भी
आती नहीं उतने भरोसे की
फिर भी कुछ एक
टूटे फूटे सपनों में
मैं नाव चलाते देखता हूँ खुद को
मेरे साथ एक परछाईं होती है
दोनों जन बैठे हैं
एक एक किनारे पर ।

सच पूछिए तो अब
निकालते निकालते चक्रवृद्धि ब्याज
परीकथाएँ लिखने का होता है मन
कि कुछ तो ऐसा छोड़ सकूँ
जिन्हें बच्चे छोड़ सकें
अपने बच्चों के लिए ।

जाने कौन यक्ष
रोज़ पूछता है मुझसे प्रश्न
और यह जानते हुए
कि युधिष्ठिर नहीं हूँ मैं
उनके उत्तर खोजना चाहता हूँ
जीवन के उत्तरार्ध में ।

2 comments:

  1. वाकई बहुत अच्छी कविताएं।

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  2. वाकई बहुत अच्छी कविताएं।

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