Friday, August 7, 2020

स्मृतियों का गंधराज : सुलोचना की कविताएँ




एक बाउल गायक का मन सुलोचना की कविताओं में अलग अलग रंगों में अभिव्यक्ति पाता हुआ दिखाई देता है । यहाँ स्मृतियाँ हैं, राग है, शोक है और इनके साथ ही प्रेम का एक सूफ़ियाना संसार है जहाँ अंततः जीवन की उत्कट अभिलाषाओं का एक अकृत्रिम संसार धड़कता हुआ मिलता है । सुलोचना की कविताओं में बांग्ला के जादुई संस्पर्श से काव्य भाषा में एक नई चमक सहज ही ध्यान खींचती है ।

सुलोचना की कविताओं में स्त्री अपने विविधवर्णी रूपों में अभिव्यक्त हुई है । यहाँ एक ऐसी स्त्री है जिसने अपनी आँखों की देहरी पर काजल की लक्ष्मण रेखा इसलिए खींच रखी है कि कोई आँसू इसे लाँघ न पाये । यह सुख की कामना है । लेकिन जीवन ऐसा मिला है इस स्त्री को कि दुःख का रावण बार बार भेष बदल कर आता है । सुंदर बात यह है कि यह लक्ष्मण रेखा कोई पुरुष नहीं खींच रहा है बल्कि वह स्त्री के सुख की कामना का अपना उद्यम है ।

सुलोचना की कविताओं की स्त्री प्रकृति और पुरुष के द्वंद्व को तीक्ष्णता के साथ उभारती है । प्रेम उसके निमित्त हवन का अग्निकुण्ड है जिसकी साधक भी वह स्वयं है और समिधा भी खुद ही है । यहाँ प्रकृति से आश्रय माँगता हुआ आदिम पुरुष सा पहाड़ है । वह प्रणय भिक्षुक है । स्त्री उसे पिघलाने के सूत्र ढूँढ़ रही है । सुलोचना की स्त्री प्रेम करना जानती है । अपने आलता रंगे पाँवों के साथ यहाँ एक लड़की घर से भागने का जोखिम भी उठाती है क्योंकि अपने सपनों के कैनवास पर वह अपनी पसंद के रंग भरना चाहती है । सामाजिकता उसके प्रेम को बेड़ी नहीं पहना पाती । सुलोचना का कवि स्त्री के संघर्ष से दृष्टि नहीं चुराता । उसे रसोई के बाहर एक स्त्री अमीबा नज़र आती है ।

ननिहाल की स्मृतियाँ सुलोचना के यहाँ गंधराज की खुशबू के साथ मौजूद हैं और स्त्री मन की गुत्थियों को खोलती हुई पाठक को सहज ही विश्वास में ले लेती हैं । कुँए के बिम्ब के जरिए नानी को केंद्र में रखकर लिखी कविता स्त्री के दुःख को स्त्री की दॄष्टि से देखने की एक सुंदर काव्य प्रचेष्टा है जिसे स्त्री अस्मिता पर बात करते हुए रेखांकित किया जाना चाहिए । 


सुलोचना की दस कविताएँ :


1. काजल ..

काजल
है लक्ष्मण रेखा
सुख द्वारा खींची गई
आँखों की देहरी पर
आँसुओं के लिए

दुःख का रावण
आता रहता है
वेश बदलकर
बार-बार



2. पूजा ..

वो कैसी पूजा थी
नाम संकल्प ही किया था कि
जला बैठी स्वयं को
हवन के अग्निकुण्ड में
और वो प्रेम कलश
जिसे तुमने मेरे वक्ष पर धरा था
नही कर पाई विसर्जित उसे
अपनी पीड़ा के महा सिंधु में
घट के जीर्ण होते पल्लव की दुर्गंध
स्मरण दिला जाती है
उस अनुष्ठान में
साधक भी मैं थी
और हवन सामग्री भी मैं ।



3. पर्वतारोहण ..

एक दिन बना लूँगी मैं अपना ठिकाना
किसी हरे-भरे पहाड़ पर
ढूँढते हुए आस्ताना

फिर एक दिन तपस्या में लीन आदिम पुरुष सा पहाड़
माँगेगा मुझसे आश्रय, बन प्रणय भिक्षुक
और प्रतिदान में चाहूँगी मैं अभयदान
तब हमारे प्रणय अभ्यास का फल
लेगी जन्म हमारी नैसर्गिग संतान, बन वितस्ता सी कोई नदी

उस दिन करते हुए हमारा अनुसरण
अपने अमरत्व के लिए
बहुत-बहुत लोग करेंगे पर्वतारोहण

तपस्या कर रहा है पहाड़ अनंतकाल से कि आएगा माहेन्द्र-क्षण
दे रही है आहुति कालिंदी, इक्षुला, तमसा जैसी नदियाँ इस अनुष्ठान में
मंत्रोच्चार कर रहे है हिलाकर पत्तों को सनोबर और देवदार के वृक्ष
मैं ढूँढ रही हूँ सूत्र पहाड़ को पिघलाने का !

दुविधा में है भगीरथ का समयपुरुष ।



4. आकार ..

सब जानते हैं
कि वह नही बेल पाती
चाँद सी गोल रोटियाँ
और ना ही बेल पाती है
समभुज त्रिकोण वाले पराठे

पर वह भरती है पेट कुछ लोगों का
लाकर चावल, आंटे, नमक और घी
साथ ही लाती और भी कई ज़रूरी सामान
जो होने चाहिए किसी रसोई में

है शुद्ध कलात्मक क्रिया
पेट भर पाना, अपना और औरों का
कि जहाँ पेट हों भरे ,
लोग निहार सकते हैं चाँद को घंटों
और कर सकते हैं चर्चा उसकी गोलाई की

भरा पेट देता है दृष्टिकोण
कि आप देख पाएँ
बराबर है त्रिभुज का हर कोण

सामान्य है ना बेल पाना
रोटियों और पराठों का
कमाकर लाना भी सामान्य ही है

असामान्य है समाज का स्वीकार लेना
एक ऐसी स्त्री को, जो सभी का पेट भरते हुए
नही बेल पाती है सही आकार की रोटी और पराठे

रसोई के बाहर अमीबा नज़र आती है स्त्री



5. घर से भागी हुई लड़की ..

घर से भागी हुई लड़की
चल पड़ती है भीड़ में
लिए अंतस में कई प्रश्न
डाल देती है संदेह की चादर
अपनापन जताते हर शख्स पर

पाना होता है उसे अजनबी शहर में
छोटा ही सही, अपना भी एक कोना
रह रहकर करना होता है व्यवस्थित
उसे अपना चिरमार्जित परिधान

मनचलों की लोलुप नज़रों से बचने के लिए
दबे पाँव उतरती है लॉज की सीढियां
कि तभी उसकी आँखें देखती है
असमंजस में पड़ा चैत्र का ललित आकाश
जो उसे याद दिलाता है उसके पिता की
करती है कल्पना उनकी पेशानी पर पड़े बल की
और रह रहकर डगमगाते मेघों के संयम को

सौदामनी की तेज फटकार
उकेरती है उसकी माँ की तस्वीर
विह्वल हो उठता है उसका अंतःकरण
उसके मौन को निर्बाध बेधती है प्रेयस की पदचाप
और फिर कई स्वप्न लेने लगते हैं आकार
पलकों पर तैरते ख्वाब के कैनवास पर
जिसमें वह रंग भरती है अपनी पसंद के

यादें, अनुभव, उमंग और आशायें
प्रत्याशा की धवल किरण
और एक अत्यंत सुन्दर जीवन
जिसमें वह पहनेगी मेखला
और हाथ भर लाल लहठी
जहाँ आलता में रंगे पाँव
आ रहे हों नज़र

कैसे तौले वह खुद को वहाँ
सामाजिक मापदंडों पर ।



6. चाहतें ..

माँग ली मैंने तुमसे तुम्हारी सबसे उदास शामें
और मेघ ढंके आकाश वाली तमाम काली रातें
बदले में मैंने चाहा तुमसे केवल तुम्हारा सावन 

बाँट लिया मैंने तुमसे अपना खिला हुआ वसंत 
और संजोकर रखे बहार के अपने सपने अनंत 
आस रही कि तुम रंग दोगे मन का घर-आँगन

तुमने हरा किया मेरे पुराने जख्मों को सावन में 
वसंत और बहार अब उतरता ही नहीं आँगन में 
एकांत की नीरवता से लीपा मन के घर का प्रांगण

तुम्हारी निष्ठुरता ने जगाया मुझमें अलख ज्ञान का 
होकर बुद्ध एकाकीपन के बोधिवृक्ष तले गई जान 
कि प्रेम में जिसे चाहते हैं, उससे कुछ नहीं चाहते ।



7. एक दिन ..

एक दिन मैं बहती हुई मिलूँगी समंदर के फेनिल जल में 
तुम्हें उस जल का स्वाद पहले से कहीं अधिक खारा लगेगा 
एक दिन मैं बहती हुई जा मिलूँगी नरम हवा के साथ
उस रोज हवा में होगी सांद्रता पहले से कुछ ज्यादा ही 
एक दिन मैं बहती हुई पहुँच जाऊँगी तुम्हारी चेतना तक 
और जम जाऊँगी कैलाश पर्वत पर जमे बर्फ की तरह 

एक दिन शायद तुम मुझे करोगे याद देर तक भूलवश 
उस रोज मैं पिघल जाऊँगी, बहने लगूँगी बनकर तरल   
फिर कहाँ जा पाऊँगी कहीं और, रहूँगी तुम्हारे अंदर ही 
बहती रहूँगी तुम्हारे रक्त के साथ हृदय की धमनियों तक ।


8. ननिहाल ..

ढूँढती हूँ गंधराज का वह झुरमुट
जिसके पीछे छिप जाते थे हम बच्चे
खेलते हुए लुका छिपी का खेल
महकती हैं जब स्मृतियाँ बन गंधराज
तो देखती हूँ स्मृति नाम की बालिका है छुपी
उसी झुरमुट के पीछे, लिए काया पुष्प रूपी

स्मृतियाँ करती हैं आघात उस ढेकी की तरह
जिस पर कूटा जाता था धान
और जो नहीं था कम किसी भी खेल से
हम अति सक्रिय बच्चों के लिए
ठीक वहाँ, धान के उस कटोरे में इस क्षण
चिपका हुआ होगा बचपन का सुनहलापन

ढूँढती हूँ खजूर के गुड़ के बताशे
शनिवार के हरिलूट में
ऐसा शनिवार अब नहीं आता
कि लूट चुका है बचपन का गुल्लक
स्मृतियों की जीभ में उतर आता है पानी
इन दिनों रह रहकर याद आती है नानी

ढूँढती हूँ टुपुक टुप टुप का वह संगीत
जिसे सुना जाता था बारिशों का पानी
कटहल के पेड़ से टपककर टीन की छत पर
तरस रहें हैं मेरी स्मृति के कान एक अरसे से
सुनने को वृष्टि की वही लयबद्ध रूपक ताल
कमबख्त शोर बहुत करता है स्मृतियों का ननिहाल

डाल दिया है हथकड़ी समयपुरुष ने
भूत के वृत्त में घेर, स्मृतियों के हाथों में
बता सकता है क्या विधि का कोई ज्ञाता निज अभ्यास से
कैसे हो सकती है संभव मुक्ति स्मृतियों के कारावास से ?



9. कुआँ ..
(नानी कनक प्रभा लाहिरी के लिए)

मुझे परेशान करते हैं रंग
जब वे करते हैं भेदभाव जीवन में
जैसे कि मेरी नानी की सफ़ेद साड़ी
और उनके घर का लाल कुआँ
जबकि नहीं फर्क पड़ना था
कुएँ के बाहरी रंग का पानी पर
और तनिक संवर सकती थी
मेरी नानी की जिंदगी साड़ी के लाल होने से

मैं अक्सर झाँक आती थी कुएँ में
जिसमे उग आये थे घने शैवाल भीतर की दीवार पर
और ढूँढने लगती थी थोड़ा सा हरापन नानी के जीवन में
जिसे रंग दिया गया था काला अच्छी तरह से
पत्थर के थाली -कटोरे से लेकर, पानी के गिलास तक में

नाम की ही तरह जो देह था कनक सा
दमक उठता था सूरज की रौशनी में
ज्यूँ चमक जाता था पानी कुएँ का
धूप की सुनहरी किरणों में नहाकर

रस्सी से लटका रखा है एक हुक आज भी मैंने
जिन्हें उठाना है मेरी बाल्टी भर सवालों के जवाब
अतीत के कुएँ से
कि नहीं बुझी है नानी के स्नेह की मेरी प्यास अब तक
उधर ढूँढ लिया गया है कुँए का विकल्प नल में
कि पानी का कोई विकल्प नहीं होता
और नानी अब रहती है यादों के अंधकूप में ।



10. बचे रहने का अभिनय ..

हम जिंदा रहते हैं फिर भी
उस पहाड़ की तरह जो दरकता है हर रोज़
या काट दिया जाता है रास्ता बनाने के लिए
और फिर भी खड़ा रहता है सर उठाये
बचे रहने का अभिनय करते हुए

हम जिंदा रहते हैं फिर भी
रसोईघर के कोने में पड़े उस रंगीन पोंछे की तरह
जो घिस-घिसकर फट चूका है कई जगहों से
और फिर भी हो रहा है इस्तेमाल हर रोज़ कई बार
बचे रहने का अभिनय करते हुए

हम जिंदा रहते हैं फिर भी
मिट्टी के चूल्हे में जलते कोयले की तरह
जो जल-जलकर बन जाता है अंगार
और फिर भी धधकता रहता है
बचे रहने का अभिनय करते हुए

हमारी अभिनय क्षमता तय करती है हमारा जिंदा दिखना
और हमारा जिंदा दिखना ही है विश्व की सबसे रोमांचक कहानी


1 comment:

  1. It is very unfortunate that only those who are versed in Hindi can taste the thoughts of this great poet.
    I am one of those unfortunate persons.
    Sorry Sulochona

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