Saturday, August 1, 2020

निचले होंठ में दबी अव्यक्त सिसकी : अनुराधा सिंह की कविताएँ



एक अस्तित्व-सजग, अभिमानी, समर्थ, संवेदनशील, दार्शनिक मनोभूमि पर खड़ी चौकन्नी स्त्री अनुराधा सिंह की कविताओं के केंद्र में दिखाई देती है । यह स्त्री पुरुषतांत्रिक गठन वाले जीवन में निरंतर संघर्ष में होते हुए भी न तो पस्त है और न ही परिणाम को लेकर आश्वस्त । अनुराधा सिंह की स्त्री इस संघर्ष से पैदा होने वाले तनाव को धार देती है । यही तनाव अनुराधा सिंह की कविताओं को एक तय पैटर्न वाली कविताओं के बीच अपनी छाप बनाने में सहायक भी है । 

प्रेम अपनी समस्त जटिलताओं के साथ अनुराधा सिंह की कविताओं में उपस्थित है और पाठक के सामने मनोवैज्ञानिक स्तर पर चुनौती पेश करता है । सतह पर तैरती भावुकता की खोज में निकले पाठक के लिए यह एक खास तरह की तैयारी की माँग भी रखता है । अनुराधा सिंह की कविताओं में मानवीय संबंधों की सतर्क पड़ताल है । मूल स्वर इन कविताओं का इन्हीं संबंधों के प्रति एक स्त्री का निर्णायक संबोधन है जो कई बार न्याय की आकांक्षा से परिचालित दिखाई देता है अर्थात कई जगहों पर कवि का स्वर न्यायाधीश वाली मुद्रा भी अख्तियार करता दिखाई देता है । न्यायाधीश मुद्रा से अभिप्राय यह कि निर्णय में स्त्री के अपने अनुभव की गवाही से काम लिया जाता है । कविताओं में पुरुष बचाव पक्ष में है और अभियोग की सुनवाई एक स्त्री की अदालत में होती है । जाहिर तौर पर इस अदालत के अपने तौर तरीके हैं । एक नये तरह का द्वंद्व जीती हुई यह स्त्री अभियुक्त से इतनी असंपृक्त है कि उसने जीवन में उसके प्रयोजन को ही अस्वीकार कर दिया है तथापि उसके मन के किसी कोने में इस अभियुक्त से ही अपने लिए अपनी शर्तों पर प्रेम की आकांक्षा भी कहीं न कहीं बनी रहती है । 

इन कविताओं में नई बात यह है कि ये स्त्री-पुरुष के द्वंद्व को साध लेने में सक्षम हैं । न्याय करते हुए कवि के हाथ की तुला किसी एक तरफ झुकती नहीं बल्कि एक खास तरह के तनाव का अंत तक निर्वाह करती है । अनुराधा सिंह की कविताओं की स्त्री "सेल्फ" को लेकर जितनी आग्रही है "अदर" के प्रति उतनी ही कठोर और निस्पृह भी है । इस स्त्री के संसार में पुरुष अभियुक्त भी है और प्रेमी भी । कहना चाहिए कि अपनी कविताओं में अनुराधा सिंह स्त्री-पुरुष संबंधों को अधिक मानवीय और न्यायोचित परिप्रेक्ष्य में नेगोशिएट करती हुई चलती हैं । 
अनुराधा सिंह की दस कविताएँ:

1. तुमविहीन ..

तुम ज़िरह करोगे कि भला यह कैसा प्रेम था 
कि उम्मीद ही तोड़ दी मैंने 
मैं कहूँगी मेरे लिए सबसे कठिन अपनी उम्मीद तोड़ना था
तो यह अनुकूल ठहरा प्रेम के विधान के 

मैं तुम्हारे कुएँ में लटकती वह रस्सी 
दुःख से बाहर आते ही 
गिरा आते हो जिसे उस अंधकूप में
जबकि मैं रस्सी नहीं कुआँ 
बन जाना चाहती थी
चाहती थी डूब जाओ ऐसे कि  
मुझसे बाहर आने की उपपत्ति न मिले तुम्हें

मैं, तुम्हारे दुखों पर बंधी एक पट्टी 
तय था जिसका उतरना घाव भरते ही
अब घाव बनना
भरना नहीं दुखना चाहती हूँ 
टीसना चाहती हूँ ताउम्र 
तुम्हारी करवटों के नीचे 
और 
भर जाऊँ तो
निशान बने रहना चाहती हूँ
तुम्हारे सीने माथे हथेली 
या तलवे पर ही सही 

इसका भी कोई आपराधिक मामला बनता होगा 
कि मुझे नहीं आता है गुस्सा तुम्हारे अपराधों पर 

मैंने नहीं कबूला अब तक कुछ 
ज़रा रियायत रखी है ख़ुद पर  
कि अगर 
कुरेदने ही हैं अपने घाव 
तो मैं तारीख आगे बढ़ा दूँ 

इतने सब अपराध हैं मेरे 
और मैंने नहीं पढ़ी 
कानून की वही किताब 
जिसमें दुख की एक मियाद बताई गयी है  

मैं तो तुम्हारी अदालत में भी करना चाहती हूँ 
प्रेम की उम्र /ताउम्र वाली घिसी पिटी अपील 
तुम्हारा अर्दली लगाता ही नहीं मेरे नाम की पुकार
कहता है इस अदालत में नहीं बाकी 
मेरा एक भी मुकदमा 
फिर भी नहीं होती मैं तुम पर गुस्सा 
इतनी हो गयी हूँ मैं तुमविहीन ।
                
2. अव्यक्त..

कह रहे थे
तुम अपने प्रेम की गाथा
पूरे उद्वेग, पीड़ा और सुख के साथ

सुन रही थी मैं
एक साधक सी
उदार
तल्लीन

निचले होंठ में दाबे
अपना पूरा प्रेम,
सुख, पीड़ा
और एक सिसकी।

3. न दैन्यं ..

दीन हूँ, पलायन से नहीं आपत्ति मुझे
ऐसे ही बचाया मैंने धरती पर अपना अस्तित्व
जंगल से पलायन किया जब देखे हिंस्र पशु
नगरों से भागी जब देखे और गर्हित पशु
अपने आप से भागी जब नहीं दे पाई
असंभव प्रश्नों के उत्तर
घृणा से भागती न तो क्या करती
बात यह थी कि मैं प्रेम से भी भाग निकली

सड़कें देख
शंका हुई आखेट हूँ सभ्यता का
झाड़ियों में जा छिपी
बर्बरता के आख्यान सुनाई दिए
मैदान में आ रुकी
औरतों के फटे नुचे कपड़े बिखरे थे
निर्वस्त्र औरतें पास के ढाबे में पनाह लेने चली गयी थीं
मैं मैदान में तने पुरुषों
ढाबे में बिलखती औरतों से भाग खड़ी हुई

एक घर था जिसमें दुनिया के सारे डर मौजूद थे
फिर भी नहीं भागी मैं वहाँ से कभी
यह अविकारी दैन्य था
निर्विकल्प पलायन
न दैन्यं न पलायनम कहने की
सुविधा नहीं दी परमात्मा ने मुझे ।

4. विलोम ..

प्रेम जंगली कबूतर के पंखों सा निस्सीम
छोड़ जाता है हमारे हाथ में अपना रोंयेदार स्पर्श
मैंने जब उससे दूर जाना चाहा चीज़ें उसके साथ ही छूटने लगीं
एक अतीत था जो बंधा था इस छोड़े जाते पल से
और अपने तमाम अतीतों से जब हम साथ भी नहीं थे
उसे छोड़ देना अपने पूरे जीवन को दोफाड़ कर देना था

इसी मुश्किल की आसानी से हम जुड़े रहे इतने साल
कि वह पूरा पाकर भी उंगली छूते डरता रहा
उंगली छूते ही पूरा पा लेने का अभ्यास दोहरा बैठता
न होना स्वीकार्य नहीं था उसे
होने से डरता था
बहुत स्त्री होने पर मर मिटा एक दिन
इतनी अधिक स्त्री होने से आक्रांत था
ऐसे पैर लटकाए बैठे रहे हम काल पहाड़ी पर
ऐसे साथ साथ सूर्योदय और सूर्यास्त बिताये
उसने ही नहीं कहा कि सुन्दर हूँ मैं
उसके ही साथ लगा कि बहुत सुन्दर हूँ मैं ।

5. प्रेम का समाजवाद ..

दलित लड़कियाँ उदारीकरण के तहतछोड़ दी गयीं
उनसे ब्याह सिर्फ किताबों में किया जा सकता था
या भविष्य में
सवर्ण लड़कियाँ प्रेम करके छोड़ दी गयीं
भीतर से इस तरह दलित थीं
कि प्रेम भी कर रही थीं
गृहस्थी बसाने के लिए
वे सब लड़कियाँ थीं
छोड़ दी गयीं

दलित लड़के छूट गए कहीं प्रेम होते समय
थे भोथरे हथियार मनुष्यता के हाथों में
किताबों में बचा सूखे फूल का धब्बा
करवट बदलते जमाने की चादर पर शिकन
गृहस्थी चलाने के गुर में पारंगत

बस प्रेम के लिए माकूल नहीं थे, सो छूट गए
निबाहना चाहते थे प्रेम, लड़कियाँ उनसे पूछना ही भूल गयीं

लड़कियाँ उन्हीं लड़कों से प्रेम करके घर बसाना चाहती थीं
जो उन्हें प्रेम करके छोड़ देना चाहते थे।

6. अप्रेम ..

तुम हर बार कितने भी अलग
नए चेहरे में आये मेरे पास
मैं पहचान लेती रही
विडम्बना यह थी कि
मैं तुममें का
प्रेम पहचानती रही
आह्लाद से आपा खोती रही हर बार
भूल भूल जाती रही
कि प्रेम तुम तब तक
और उतना ही कर पाओगे मुझसे
जब तक और जितनी मैं तुम्हारे अप्रेम में रहूंगी

मेरी माँ यह कठिन यंत्र सिखाना भूल गयी थीं मुझे
और उनकी माँ उन्हें
वे सब कच्ची जादूगर थीं
पहले ही जादू में अपनी पूरी ताकत झोंक देतीं थीं
उस पर कि
बस आधा जादू जानती थीं
अपने ही तिलिस्म में फँस कर
दम तोड़तीं रहीं
उन्हें उस मंतर का तोड़ तक नहीं मालूम था
जो पलट वार करता था
हालाँकि सीना पिरोना साफ़ सफाई और पकाने से ज़्यादा
अनिवार्य विषय था
अप्रेम में रहना सीखना और सिखाना
बहुत करीब से दूर तक जो पगडंडियाँ
सड़कें और पुल पुलिया देखती हूँ
जो तुमने बनाये हैं
किसी न किसी सदी तारीख या पहर
वे सब किसी न किसी जगह से बाहर
जाने के तरीके हैं
प्रेम से बाहर जाने का तरीका नहीं है इनमें से एक भी।

7. विदा ..

डर को मैंने 
रेलिंग बना लिया है  
पकड़ कर खड़ी रहती हूँ बालकनी में आधी रात 
फिर ईज़ाद करती हूँ वही तारा  
जिसे देखते थे हम दोनों एक आँख 
या बस मैं ही देखती थी  
रख कर तुम्हें निगाह में 
  
बिछड़ना
इतना भी बुरा नहीं 
जन्म ले लिया है मैंने 
फिर इसी देह में 

चलना बोलना सोचना सीख लिया है
सीख लिया है घर से क़ाबे का रास्ता 

जो लोग बेदखल किये जाते हैं ज़मीनों से 
क्या वे जानते हैं 
नाते से बेदखल हुए लोगों का दुःख 

पीड़ा की आवृत्ति संज्ञाशून्य हो जाना है
वही शब्द, वही स्मित, वही हाव भाव 
जो मैंने प्रेम के लिए
रख छोड़े थे उठाकर 
बरतती हूँ व्यवहार में 

वही लाल छींट जो बैंड स्टैंड की गुनगुनी हवा में उड़ते हुए 
पहना था 
पहनती हूँ राशन लाते समय  

वसंत में पतझड़ भी शुरू होता है
आशय अलग है 
एक फुनगी पर दिखता है /दूसरा  
कुचले पत्ते में 
मौसम विदा कहते हुए जो हिलाता है हाथ 
वही अभिवादन है 
आते हुए दूसरे मौसम का 

तुम्हारा मंतव्य है तो उसे स्वागत मान लो  

रात रसोई में पानी देखती हूँ एक पत्थर पर 
सो जाती हूँ सुबह तक 
उसके सूख जाने की ख्वाहिश लिए 
एक हद के बाद पत्थर में पानी नहीं समाता 
एक हद के बाद सब कुछ रहता है सतह पर 

भीतर का पिछला पानी 
आवाज़ देता  
छूता है हाथ बढाकर  
यूँ कहता है भीतर का दुःख ‘विदा’  
गालों पर बादल हो जाती 
नमी से ।


8. हिदायत..

मैं तुम्हारी माँ हूँ लड़की 
तुम ईश्वर पेड़ पहाड़ परिवार सबसे पहले 
मुझ पर भरोसा करना

तुमने कहा है 
कबूतरों की हिफ़ाज़त के लिए 
बहेलिये को रोकना चाहिए 
जाल को रोकना चाहिए 
कैद करने वाले पिंजरों 
और हज़म कर जाने वाले पेटों को रोकना चाहिए 
कबूतरों के पंख बाँध देने से क्या होगा

तो सुनो,

मैंने झाड़ियों को हिदायत दी है कि 
कोई भेड़िया किसी बच्ची को 
तुम्हारे पीछे खींच ले जाना चाहे
तो तुम अपने सब पत्ते गिरा देना 
ख़त्म कर देना हर ओट 
जिसमें छिपे अँधेरे 
सूरज को निगल लेते हैं

मैंने सुनसान सड़कों से कहा है 
यहाँ से गुज़रती बच्ची की सहयात्री हो जाना 
देखना, सन्नाटा उस पर हमला न कर सके

मैंने हवाओं से कहा है कि 
उसकी निगेहबान होके रहना 
उड़ा ले जाना उस पर पड़नेवाली 
हर बुरी नज़र को अपनी आँधियों में

मैंने आग से पूछा है कि 
तुम क्यों आटा दाल आलू पकाते पकाते 
औरतों की देह भूनने लगी हो 
जल जाओ अपने ही दाह में अगर 
पकाने और जलाने में भेद नहीं कर सकतीं

मैंने भूमि से कहा है तुम्हीं बनती हो न शय्या 
हर दुष्कर्म की 
तुम्हें माँ कहते जुबान कटती है 
क्यों नहीं फट जातीं तुम निगल जातीं 
हर आततायी को एक दिन

मैंने सभ्य पुरुषों से कहा है 
और सभ्य हो जाओ

मैं हव्वा की कसम खाकर कहती हूँ बच्ची 
मैंने सबको हिदायत दे दी है 
कि तमीज़ से रहो 
मेरी बेटी बहुत रात गए 
लाइब्रेरी से हॉस्टल लौटना चाह रही है।

9. रद्द ..

किसी रेलवे सारणी में एक खाली सीट ढूँढ़ते हुए 
किसी हवाई अड्डे से उसके शहर का जहाज लेते हुए 
किसी मेट्रो में चलते हुए 
किसी स्टेशन पर उतर कर ऑटो लेते हुए
उससे मिलने का ख़्वाब
लो, हमेशा के लिए छोड़ दिया  
आँधी में सूखे कपास सा 

उससे अब कभी न मिल सकने का दुःख 
उससे बार- बार मिलने के ख़्वाबों को मंसूख करने के दुःख से 
बड़ा नहीं ।

10. इस इतने बड़े लोकतंत्र में ..

बहुत बड़े लोकतंत्र की स्त्रियों ने 
जब पढ़ा कि 
क्या होता है लोकतंत्र 
तब जाना कि 
इस इतने बड़े लोकतंत्र में कोई नहीं है 
लोकतान्त्रिक उनके लिए 
माता -पिता, पति, प्रेम और कवि जानते नहीं 
लोकतंत्र का अर्थ 
साथ की स्त्रियाँ हो सकती थीं परस्पर लोकतान्त्रिक 
पर उन्हें सिखाया गया था कि 
लोकतंत्र देश के लिए होता है शहर गाँव समाज के लिए 
शोषित शोषित का पोषण नहीं करता 

परिवार में कुछ भी बँटा नहीं होता 
वैसे भी हर जगह सब होता है सत्ता का 
हम जो लड़ रहे हैं सत्ता से लोकतंत्र की लड़ाई 
सच कहती हूँ नाराज़ मत होना 
नहीं जानते 
कि दुनिया के इतने बड़े लोकतंत्र में 
एक औरत के लिए 
लोकतांत्रिक कैसे हुआ जाता है ।

2 comments:

  1. बहुत अच्छी कविताएं। 

    ReplyDelete
  2. चिंतन के नये द्वार खोलती हैं अनुराधा की कविताएं ।शुभकामनाएँ

    ReplyDelete