Wednesday, August 19, 2020

गुमशुदगी की रिपोर्ट : उत्कर्ष यथार्थ की कविताएँ






जीवन को उसके सूक्ष्मतम रेशों में चिन्हित करने वाले कुशल बुनकर हैं कवि उत्कर्ष यथार्थ । उत्कर्ष जीवन की सहजता के कवि हैं और इसीलिए इनकी कविताओं का गठन सरल है । सरल कविताएँ लिखना एक सहज मनुष्य के लिए ही सम्भव हो सकता है । उत्कर्ष की कविताओं की आडम्बरहीन भाषा और उसका सुघड़ कथ्य उसके सौंदर्य को विशिष्ट बनाते हैं ।


रुदन को जीवन की एक स्वाभाविक क्रिया के रूप में देखता उत्कर्ष का कवि इस बात में यकीन करता है कि जोड़ने के लिए और सहेजने के लिए रोना बहुत स्वाभाविक व्यवहार है और कमजोरी कतई नहीं । वह न रोने वाले को मजबूत मानने से इनकार करता है और बताता है कि न रोना दरअसल टूटने की बुनियाद है । बड़ी सादगी के साथ उत्कर्ष रोने को लेकर स्थापित मर्दवादी सोच के खिलाफ खड़े दिखते हैं । 


स्थापित मूल्यों को कवि अपनी विलक्षणता में पुनः परिभाषित करता है । गिरगिट के रंग बदलने को लेकर उत्कर्ष का काव्य निष्कर्ष तब कारुणिक हो उठता है जब वे उसे इस अर्थ में देखने लगते हैं कि वह जिस रंग से प्रेम करता है उसी रंग का हो जाता है । विज्ञान जिसे आत्मरक्षा के लिए अनुकूलन अथवा एडाप्टेशन के रूप में देखता है एक कवि के यहाँ वह प्रेम में रंग जाना है । 



उत्कर्ष एक परिवेश सजग कवि के रूप में भी सामने आते हैं जब वे अपने आस पास की चीजों को दृश्य से ओझल होते हुए देखते और महसूस कर रहे होते हैं । इन ओझल होती हुई चीजों में फेरी वाला, बाइस्कोप वाला, चुड़िहारिन और ऐसे ही निकट के चरित्र दर्ज होते हैं और कवि इनके लिए महज चिंतित ही नहीं है बल्कि इनकी गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखवाते हुए अपने नागरिक कर्तव्य के प्रति सजग भी है । कहीं से भी कविता में ये बातें बनावटी नहीं लगतीं । उत्कर्ष अपने परिवेश के प्रति बेहद आत्मीय दृष्टिकोण रखने वाले कवि हैं । 


उम्मीद का दामन उत्कर्ष की कविताएँ नहीं छोड़ती और वे एक शहर को जीती हुई दिखाई देती हैं जहाँ "हर आँसू के लिए कोई दुआ, हर धूल भरे पत्ते के लिए थोड़ा पानी और जहाँ बच्चों और मुसाफ़िरों के लिए बताशे" की गुंजाइश बची हुई है ।  सहजता उत्कर्ष के यहाँ एक जीवन मूल्य है । इस जीवन में एक पेड़ को पेड़ होकर जाना जा सकता है, फूल को फूल होकर और नदी को नदी होकर ही जाना जा सकता है । 


इस तरह उत्कर्ष की कविता का लोक अपने स्वभाव में अकृत्रिम है जहाँ दूर से ही ऐसे आदमी की पहचान कर ली जाती है जिसके भीतर आदमीयत का एक रेशा भी साबुत बचा रहता है । इन कविताओं से गुजरते हुए पाठक यह महसूस करेंगे कि उत्कर्ष यथार्थ सरलता की तरफ लौटता हुआ एक सहज भावबोध का कवि है ।



उत्कर्ष यथार्थ की दस कविताएँ :



1.

वर्तमान पर ताला ..


संदूक में पुराना पड़ा फोटोग्राफ अतीत का 

तस्वीर में जो मकान है 

उसके वर्तमान पर ताला पड़ा हुआ है 

(ताले को देखकर बहुत रोना आता है)


एक दिन वह टूट जाता है 

ताले के टूट जाने बाद के सूनेपन को देखकर भी 

बहुत रोना आता है 


फिर कोई घर, कोई दुनिया खंडहर बन जाती है 

जहाँ है इतनी बदहवासी कि सिर्फ़ सन्नाटा है 

इतना सन्नाटा कि बस शोर है 

इतना शोर कि बस सन्नाटा है 


और कोई रोता है 


जो नहीं रोता 

वह सबसे मजबूत होता है 

यह सार्वभौमिक मिथ्या कथन है 


रोने को कमजोरी मानकर 

दुनिया ने कितने घर खंडहर बना दिए


रोने को कमजोरी मानकर 

कितना कुछ टूटने दिया गया


इन सिरफिरों को कौन समझाए 

कि जो रो रहा था 

वो जोड़ने के लिए रो रहा था 

बचाने और सहेजने के लिए रो रहा था 


रोनेवाले की हँसी उड़ाकर 

कितना कुछ टूटने दिया गया ।



2. उसका सत्य ..


वह सबसे 'अलग' इसलिए था 

क्यूँकी उसके सत्य केवल उसके थें 

बहुत परेशान होता 

तब अपने सत्यों को ख़ूब प्रेम से याद करता 

और फूट-फूटकर रोता 

और रोना उसके लिए कोई तथाकथित कमजोरी नहीं थी

ना ही आडम्बर 

हर रोने की बात पर रोना 

उसके लिए थी बस एक सहज अभिव्यक्ति 


आग की परिभाषाएँ हर एक के लिए 

अपनी वस्तुस्थिति और सामंजस्य की भाषा में 

अलग-अलग होती हैं 


उसके लिए सत्य के अपने मानी थे 

जैसे किसी

नए इलाक़े की ख़ोज. 

जैसे गिरगिट उसे नहीं दिखाई देता था 

'रंग' बदलने वाला प्राणी, तथाकथित बोलचाल में दलबदलू 

बल्कि एक विलक्षण प्रेमी 

जिसने हरे से ख़ूब प्रेम किया डूबकर 

कि हो गया हरा 

मटमैला और सतह से करता रहा प्रेम 

पेड़ों से, ईंट से, खम्भे और शाख पर गिरी ओस 

और सूरज की ओर चल मुड़ीं टहनियों से 


वह बावरा था !

भला

कौन देखता है ऐसे 

गिरगिट को देखते, करते प्रेम 

समझते प्रेम की ऐसी परिभाषा 


हमारी बनाई व्याख्याएँ विषय को कितना विवश 

सीमित

और

कितना न्यून करके छोड़ देती हैं 

हम कितना सोचते हैं ?


मुझे याद है 

एक रोज़ 

भोर बरसात से मिलने निकल पड़ी थी 

और निकल पड़ा था वो 

भीगते 

छुपाते आँसुओं को 

किसी और से नहीं

बल्कि बरसात से 


उस रोज़ बरसात नहीं जान सकी थी 

कि जो बूँदे उसके चेहरे पर थीं 

वो वर्षा-जल था या अश्रु


उसे

सन्नाटे में भी सुनाई देता संगीत

भटकने में मिलता, रास्तों से परे का सत्य.

महुआ नहर के रास्ते

पुराने संदूक में बेमोल हो गए सिक्के

हर पत्थर के नीचे दबा कोई न कोई अतीत

हर दीवार पर खिड़की की उम्मीद

रंगमंच पर नेपथ्य की पारंगत ध्वनियाँ


वो कह रहा था -


"हमें अपने सारे मुखौटे फेंक देने चाहिए 

रोटी को पढ़ना चाहिए बस रोटी 

भूख़ को बस भूख़ 

दर्द को नहीं बाँधना चाहिए सहस्त्र परिभाषाओं में

प्रेम को समझना चाहिए 

बस

प्रेम

महसूसते

प्रेम के 

अनंत 

और 

अंतहीन 

विस्तार

को

जोहते प्रेम

दृश्य

और 

अदृश्य 

में"



3. गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज़ करवाते हुए..


"साहब, मुझे रिपोर्ट लिखवानी है 

बहुत सारे लोगों के गायब होने की एकसाथ...


बूट-पॉलिश करनेवाले की 

चने-वाले की 

फेरीवाले 

और हाँ बाइस्कोप-वाले की 


एक फेरीवाला हर मंगलवार मेरे गाँव आता था 

बादाम-मेवे और गर्म मूँगफली बेचने 


एक फेरीवाला घूमता भर जेठ-आषाढ़

कुल्फ़ी-मलाई एक बक्से में भर

साईकिल डगराते 

भोंपू बजाते 


एक फेरीवाला सावन गाता

और बेचता काले पके अमृत-तुल्य मीठे जामुन 


आपने बाइस्कोप-वाले को देखा है

बचपन में शायद 

झाँका हो गोल प्लेट हटा 

अन्दर घूमते देखते रंग-बिरंगी दुनिया 

वो कब से लापता है 

शायद तब से जब गाँव के बगीचे में झूले-ही-झूले होते थे 


वो बाँसुरी-वाला फ़िल्मी धुनों को साजता

वो रहमत मियाँ ज़िन्दगी के कपड़ों के पुराने दर्ज़ी 

वो बूढ़ा मुस्कुराता माली 

वो चुड़िहारिन पहनाती नर्म कलाइयों में चूड़ियाँ 


कितने नाम गिनाऊं आपको साहब 

एक पूरे का पूरा गाँव 

एक पूरे का पूरा शहर लापता हो गया है 

आपसे विनती है, इन सबको खोज देंगे 

मैं यह नहीं जानता कि ये सब कहाँ चले गए 

हाँ, आखरी बार गाँव के बाहर वाले टीले पर बैठे 

और शहर के बाहर गिरते खंडहर में इन्हें 

आखरी बार वक़्त का मोलभाव करते देखा गया था। 


आपके आसपास बहुत सारे लोग गायब होते जा रहे हैं

क्या आपने उन्हें देखा है? 

क्या आपको पता भी चला? 

क्या आप सो रहे थे उस वक्त

या जाग रहे थें पर आपको इल्म न हुआ 

कि लोग गायब हो रहे हैं ।



4. ऐसा कोई शहर ले आओ ..


कोई मीर, पीर कोई, 

कोई साथी, कोई रहगुजर ले आओ

हर पतझड़ में खिले कोई उम्मीद,

ऐसी नज़र ले आओ


कोई सुखनवर, कोई घर, 

कोई तस्वीर या कोई नज़राना ऐसा

मुस्कुराहटों की कोई ऐसी कशिश ले आओ


हर आँसू के लिए कोई दुआ, 

हर धूल भरे पत्ते के लिए थोड़ा पानी,

बच्चों और मुसाफ़िरों के लिए हों बताशे जहाँ,

गुलमोहर से हो मुख़ातिब


हो अपनी रूह में,

ऐसा कोई,

शहर ले आओ ।



5. इस कठिन समय में ..

इस कठिन समय में जो भी 

होगा, प्रगाढ़ होगा 

सच्ची उसकी आभा होगी 

सुंदर उसका आवरण होगा 

जुड़ाव की स्मृतियाँ गहरी होंगी


बचपन की बिसरी याद 

किसी जादू की डिबिया की तरह लौटेगी

हमारा मुस्कुराना हमारा मुस्कुराना होगा

प्रेम होगा तो होगा इतना विरक्त 

कि विरक्ति भी प्रेममय होगी

होगी उदासी तो शांतचित्त

मन अगर होगा मलिन 

तो कुरूपता होगी समक्ष 

होगी दोस्ती तो विशाल इतनी

कि अँजुरी जितना संतोष होगा


इस कठिन समय में 

प्रेम की परीक्षा होगी

होगी मनुष्य के मनुष्य होने की परीक्षा


इस कठिन समय में 

कठिन समय की परिभाषा को 

किसी दूसरी व्याख्या की जरूरत होगी 

जिसपर किसी का एकाधिकार नहीं होगा


मुस्कुराहटें निश्छल होंगी 

उम्मीद आसमान होगा 

संवेदना पारदर्शी होगी 


कोई प्रेम करेगा 

तो वह प्रेम ही होगा 

और द्वेष होगा उतना ही कृतघ्न


इस कठिन समय में 

कठिन समय से लौटकर आने की 

जिजीविषा होगी

और यह उम्मीद की 

इस कठिन समय में 

आडंबर और भावहीन वैभव का 

पराभव होगा 


इस कठिन समय में हम नदी को जानेंगे

नदी होकर

पेड़ को पेड़ और 

फ़ूल को एक फ़ूल की तरह


इस कठिन समय में 

लोग अपनी अज्ञानता से हारेंगे

और

जीतेंगे तपस्या के जतन से 

आत्मचिंतन हमारा स्वाध्याय होगा


इस कठिन समय में 

एक आदमी एक आदमी से कह रहा होगा

कि आदमी रह जाने से श्रेयस्कर 

सहज हो जाने से बड़ा 

कोई पारितोषिक नहीं होता ।



6. पूरा आदमी होने की कोशिश में.. 


मैं उससे मिला तो आधा मिला 

पूरा मिलना कहाँ हो पाता है किसी से 

मुस्कुराते हुए मिला वो हर बार 

कभी आटे की बोरी ढोते 

कभी रोटियाँ बेलते मनोयोग से 

कभी बाचते पाकशास्त्र 

तो कभी जोहते ललित-कलाओं को 

मैंने उसे तथाकथित स्त्री के कार्य साधते देखा 

जब उसकी रोटियाँ गोल चाँद हो जाती 

और तथाकथित पुरुष 

जब ज़िन्दगी के तमाम जरुरी मनसौदे बनाता 

मैं उससे धैर्य की परिभाषा पूछता तो 

वो मुझे रसोईघर में कुछ घंटे बिताने को कहता

और जब मैं उससे पूछता प्रेम की व्याख्या 

तो कहता कि वो आज भी 

वो आज भी नहीं समझ सका है 

माँ के हाथों बनी सबसे मीठी रोटियों का रहस्य 

और तो और 

वो मेरी ख़ूब हँसी उड़ाता 

जब मैं धाराप्रवाह पाठ करता 

सांसारिक उलझनों का 

मेरे उपाय पूछने पर वो कहता 

तुम जोगी नहीं हो सकते 

तुम गृहस्थ भी नहीं होना चाहते 

बीच में तो गहराई सबसे अधिक होती है 

भँवर में तो पड़ोगे ही दोस्त 

जुलाहे से थोड़ा गणित तो सीख लेते 

मोची से थोड़ी-बहुत सिलाई 

जीवन में जीवन की भाँति भीगे बिना 

बरसात की लालसा करना बेमानी है । 


समय बीतते और ज़िन्दगी के सूद भरते-भरते 

इतना तो सीख गया हूँ 

अपने अनुभवों का छाता थामे बिना 

बरसात पार नहीं की जा सकती

जैसा कि उसने कहा था 

ज़िन्दगी चलती जाती है यूँ ही 

खींचते देह और 

आजीवन 

और 

भार की परिभाषा समझते


जुगनुओं की तलाश चलती रहनी चाहिए । 



7. ओ साथी मेरे ! लौट चलो ..

कि वहीं है पुरवाई 

चिन्हते बेर की डाल 

छूती हौले से उसके भाल 


अभी भी गाँव समय का अनुमान 

सूरज देखकर लगा लेता है 


अभी भी अदौरी पारती हैं चारपाई पर 

साड़ी का लेवर डाल कर पिरितिया आजी 


कि वहीं है बटेर अपनी टोली में गाती

बरसात अभी भी सारे गाँव को 

सावन की हरी चूड़ियाँ है पहनाती


जग्गन काका आज भी लौट रहे हैं 

देर रात खेतों की मेढ़ सरिया कर 

थामे लालटेन का आँगछ 


कि गौरैया ने आसमान के गीतों को 

फिर से ला रचा है घर के आँगन में 


कि आँख लालटेन की तो देख लेती है रास्ता 

लेकिन बूढ़ी आँखें अब भी ताकती है 

तुम्हारी राह का सनेह 

लौट चलो साथी ! 


लौट चलो साथी ! 

कि अदहन वाले भात का स्वर नहीं हुआ है मद्धिम


कि बैठी है संगत कजरी और सोहर की 

ड्योढ़ी पर चढ़ आई धूप में साँवला हो चला है अचार

कि आज भी किसी एक घर नहीं 

पूरे गाँव में आती है बारात

पूरा गाँव बाँटता है बाँस और आम की कहानी 

कोई पुकारे तो यह उम्मीद बनी रहती है 

कि कुछ बिखरता बटोर लेने की पुकार ही होगी


कि गाँव के धुएँ में अभी भी ऐसा कुछ भी नहीं

कि दुखने लगे सर 

जलने लगे हमारी आँखें

जबतक कि वे सब मिलावटी धुँए की आदी न हुई हों


लौट चलो साथी मेरे! 

कि बरगद भी वहीं है 

पाकड़ बहुत बढ़ गया है 

कि गिलहरियाँ अमरूदों पर खाती हैं कलाबाजियाँ 

कि गाँव अभी भी जीवन का हिसाब 

हाथों पर जोड़ लेता है 


आओ, चलेंगे खोजने उस छोटे शहर में 

ऐसी खिड़कियाँ और ऐसे खंडहर 

ऐसी बावली और ऐसे हँसते घर 

जहाँ बसा हो अंतस में जिसके कोई गाँव 

मेरे साथी

लौट चलो

कि

ओसारे में आज भी देख रहा है तुम्हारी राह

घड़े में जीवन-भर जल और हथेली-भर गुड़

जो सुला देगा मीठी नींद में

जो तुम इतनी दूर से थक के जो आये हो,

और भर लेगी अपने अँकवार में

ऐसी दुआओं में बसी

जीवन थामते हाथों से सहलायी गई ताज़ी फसल ।



8. थोड़े में जीवन कितना बड़ा ..

कहाँ जाउंगा 

जब दुपहरिया बहुत गर्म हो जाएगी

नदी के पास मिलता रहेगा आसरा


विषाद की भाषा का भ्रम कहाँ टूटेगा ? 


गौरैया के स्वर में, 

चावल के दानों की मिठास में 


भाषा के ओसारे में जब नहीं मिलेगी सत्य ध्वनि 

कहाँ भटकूंगा


सील-लोढ़े के तादात्म्य में पा जाउँगा 

बिसरे अक्षर

जीवन की सहज भूख के


जब टूट रही होगी पुरानी लाल ईंट, अतीत की, 

खंडहरों के पुराने ताखों को सहेजता मिलूँगा


आतिथ्य के लिए काफ़ी होगी 

थोड़ी शक्कर, दूध और पुराने चाउर की थाती


प्रेम के लिए रखूँगा 

बिछोह के अनगिनत पलों का मीठा सुख

अभाव के सुख को धर थामूंगा अंगोछे में


घाट की निर्जनता पर क्या करूँगा 

बन जाउँगा मछेरे के गाए बिरहे का हर एक शब्द 


कहता रहूँगा 

कि रात एक टमटम में बैठे तय की गई सफ़र की 

कहानी है 


याद रखूँगा नीम के बीजों के पक जाने की मिठास

और महुआ बीनते हाथों के श्रम को


आईने के सत्य को सहेजूँगा 

छद्म की मैल में में नहीं जोडूंगा कोई विशेषण 


आदमी की गंध और इतर की कृत्रिमता को 

समझता रहूँगा भिन्न संज्ञाएँ


तुम मिलोगे तो जान लूँगा 

तुम्हें बिना स्पर्श किए 

अगर एक रेशा भी भीतर आदमी होने के धागे का 

तुमने बचाकर रखा साबुत


"जाने" की क्रिया पर रो लूँगा 

बटोर लूँगा आखिरकार खुद को 

परिचित मुस्कुराहटों के लिफ़ाफ़े में, महफूज़

धीरे से दुहरा लूँगा 

कजरी, सोहर, चैता, निर्गुन और मंगलाचरण


करता रहूँगा ख़ूब बातें

बावली, नहर, प्रेम और कहानियों की


ज्यादा नहीं चाहिए होगा जीवन में 

जीवन के लिए 

जैसे नहीं था कभी भी 


सरल चीज़ों की ओर लौटता रहूँगा. 

आग की विराट व्याख्या की ओर नहीं 

हथेलियों की गर्म थापों की ओर

बार-बार

चिट्ठियों के लिखावट के सम्पूर्ण भावों 

और 

विहगों से भरते आसमान की ओर

मटमैले सतह की वर्णमाला की ओर


और फिर 

इतने से थोड़े में 

कितना जीवन बटोर लिया जा सकेगा ।



9. ज़िद ..


क्योंकि होने को अपना होना याद रहना चाहिए

चूल्हे को याद रहे अपनी राख 


क्योंकि राख़ को राख़ होने से पहले की स्मृति और बाद भी याद रह जाना चाहिए

राख़ को यात्रा रहे याद 

कि कुछ का होना उसी राख़ से फिर उठे


क्योंकि यात्रा को यात्रा में बटोरे गए चित्र याद रहने चाहिए 

पाँव को याद रहे पत्थर 


क्योंकि पत्थर को पत्थर होने का दबाव याद होना चाहिए कि कुछ दबा है उसके नीचे 

हटाना भी पत्थरों का याद रहे 


क्योंकि याद को याद के होने का इल्म रह जाना चाहिए बदस्तूर

अमलतास की याद रहे बरकरार 

कि वो करता रहे जोड़ने को याद 

भूलता रहे हर वो जो उसे घटाती रहीं 

कि हासिल का हासिल होना याद रहे ।



10. थोड़ा सा ही जतन चाहिए ..


बोल रही है कोयल 

काक-पिक वाचाल हैं 

मैं हूँ उदास 

पर मैं मुस्कुरा देता हूँ 

मेरी उदासी से 

कोई और उदास नहीं होना चाहिए 


कहने को तो बस एक दरवाजा है 

चिड़ियाघर में बहुत भीड़ है 

लेकिन मैं प्रवेश करने से पहले 

ठिठक जाता हूँ 

नहीं कर पाता तय 

एक कैदी दूसरे को कैद 

कैसे देख पाएगा

फिर भी चल देता हूँ भीतर 

घास और झील के पास 

मेरे द्वंद से 

घास और झील परेशान नहीं होने चाहिए 


दो लोग झगड़ रहे हैं 

उन्हें समझाया नहीं जा सकता 

सभी विमर्श 

सभी ज्ञान 

उनके समक्ष बेमानी हैं 

मैं उनके बीच नहीं जाता 

बस चाहता हूँ 

ज़ोर से बजाना ताली 

गुनगुनाना ज़ोर से 

कि उन दोनों की बातों में खलल पड़े


घर के बड़े कहते हैं 

आज भोजन अच्छा नहीं पका

माँ क्या उत्तर दे 

चुप रह जाती है 

मैं चुपचाप सुनता हूँ 

रसोईघर में मसालों के डब्बों की बातचीत 

मेथी के दाने कम थें 

लेकिन माँ के हाथों में स्वाद कभी कम नहीं था

कोई नहीं पूछता 

घर में खाने की सामग्री से अधिक 

माँ के मन में उसके बचपन 

और अबतक के जीवन का स्वाद कैसा है ? 

माँ जब साग बनाती है 

दुपहरिया हरी हो जाती है

माँ जब उदास होती है 

समूचा व्याकरण ही नष्ट हो जाता है 

भाषा कैसे बचेगी!

लेकिन भाषा बचती है 

रोटियों की गोलाई के मध्य में

माँ के हँसते चेहरे में


मौसम मेरे लिए सुखद है 

बरसात उतनी हुई है 

कि देख सकूँ 

पत्तों पर अटके जल को 

घास में जा बसी नमी को 

छत के पोर से झूलते पानी के तिनके को 

लेकिन रमुआ उदास है 

उसका खाला खेत पानी से भर गया है 

तो मैं भला कैसे भर जाऊँ आनन्द से 

जबतक उसके खेत में लहलहाती फसल 

निहोरा न करे रमुआ की मुस्कान को 

मैं इंतेज़ार कर लेता हूँ 


एक शाम नए तरबूज की फ़सल 

नेनुए और टमाटर के खेतों के आर पार बैठे

हम दोनों जीम रहे हैं 

रमुआ सुना रहा है मुझे 

बंसीधर कुम्हार के घड़ों की कहानी 

मैं उसे चुपचाप सुनता हूँ 

जबतक बंसीधर की तरह 

मेरे हाथ भी मटमैली सुघड़ता से भर नहीं जाते


आम के बगीचे में पिरितिया चाची 

बटोर रही हैं आँधी से गिरे चटक टिकोरे कच्चे आम के

चाची आम के अचार के स्वाद की विदूषी हैं 

उनको बिन घड़ी समय का टोह धरना आता है 

पिरितिया चाची के सूने हाथों की टीस मगर 

उनके आँगन में चुपचाप चावल बटोरती गौरैया जानती है

चाची के चेहरे में उजास देखते मैं अघा जाता हूँ 

जब गाँव के नौनिहाल उनकी गोद में अपलक सो जाते हैं


दुःख बस दुख नहीं होता 

कोई नहीं कहता 

कि किसी का दुःख कम है 

और सुख बहुत ज्यादा 

यहाँ सुख बताने में लोग कंजूस हो जाते हैं 

और दुःख बताने में सबसे उदार

लेकिन जीवन में फूलों को तोड़ने से ज्यादा 

फूलों को भर प्रेम निहारने में जो सुख मिलता है 

उसके लिए बस थोड़ा सा ही तो जतन चाहिए ।



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