कहा गया है कि सबसे मीठे गीत वो हैं जो दर्द से गहरे वाबस्ता होते हैं । कोई पूछे कि ग़ज़ल क्या है तो मैं कहूँगा, यह अदब की वो शय है जो इंसानी जज़्बातों को, उसके दर्द को शब्दों में पिरो देती है और जिसे गुनगुनाते हुए आपको बराबर महसूस होता है कि जैसे शायर ने कितनी ख़ूबसूरत बात कह दी है । ग़ज़ल का हर शेर जब सुनने वाले को अपने ही दिल की बात लगे तो वह एक ख़ूबसूरत ग़ज़ल होती है । ठीक है कि ग़ज़ल के अपने नियम कायदे होते हैं मगर यह आखिरकार एक बात ही तो होती है । इसी बात को कहने का उसका अंदाज़ शायर को बड़ा बनाता है । विजय की शायरी में वो बात है जो सीधे आपके दिल से जुड़ती है और आप दाद दिये बगैर नहीं रह पाते । बिलकुल नौजवान उम्र के इस शायर की मादरी ज़बान उर्दू नहीं है लिहाजा इसने न सिर्फ उर्दू ज़बान से मुहब्बत की बल्कि उसे बकायदा सीखा भी है और ये मुहब्बत उसकी शायरी में दिखती है । ग़ज़ल से जुड़े अदबी कायदे की बात मैं यहाँ नहीं करूँगा । मैं यहाँ ग़ज़ल के बहर, उसके काफिये और रदीफ़ की बात भी नहीं करूँगा । मैं यहाँ सिर्फ इतना ही अर्ज़ करूँगा ये ग़ज़लें सच्ची ग़ज़लें हैं । इन्हें पढ़ा जाए । ये एक सच्चे दिल की पुकार हैं ।
ज़िन्दगी की कशमकश का आलम यह है कि शायर अब उसकी खुशामदी से तंग आ चुका है और कहता है - "ऐ ज़िन्दगी ! कभी इनकार का सबब भी सुन / मैं थक गया हूँ तेरी हाँ में हाँ मिलाते हुए" । यह इनकार अचानक से पैदा नहीं हुआ । इससे पहले हाँ में हाँ मिलाने का एक ऊब पैदा करने वाला सिलसिला है जो अब नाकाबिलेबर्दाश्त हो चला है । इसलिये यह इनकार है जिसका सबब ज़िन्दगी को बताने के लिये यह शेर कहा गया ।
रात का हुस्न विजय की शायरी में कुछ यूँ दर्ज हुआ कि - "यहीं प रात ठहरती है पूरे हुस्न के साथ / चराग़ तक भी नहीं इस ग़रीबख़ाने में" । एक ग़रीबखाना है जहाँ कोई चराग़ मयस्सर नहीं । ऐसी हालत में जो रात है वह अभावों की रात है । इस रात में भी लेकिन शायर आपको वह हौसला देता है कि चराग़ न हुआ तो क्या यह रात देखो अपने पूरे हुस्न में आई है पास तुम्हारे । यह महज एक नज़रिया नहीं है । यह एक कभी न थकने वाली उम्मीद भी है ।
विजय अपने खास अंदाज़ में एक जगह रवीन्द्रनाथ ठाकुर और कादम्बरी देवी को भी याद करते हैं और कहते हैं - "रविन्द्र की भली नज़्मों का मोल क्या देता / इक अपनी रूह को कादम्बरी किया मैंने" । रवींद्र की कविताओं का मोल लगाते हुए यह शायर अपनी रूह को ही कादम्बरी बना लेता है । यह विजय की शायरी की ख़ूबसूरती है जो उसे हिन्दी ग़ज़ल परम्परा के साथ ही भारतीय वांगमय से भी जोड़ती है ।
जीवन, उसके स्वप्न और उसके दुःख विजय की शायरी में जिस तरह बयान होते हैं उसे यहाँ दी गई ग़ज़लों से पाठक समझ सकते हैं । विजय उम्मीद का शायर है । वह ग़ज़ल की लम्बी परम्परा से वाकिफ़ है । वह अपने लिये आसन की माँग नहीं करता अदब की इस दुनिया में लेकिन चाहता है कि उसे उसके नाम से जाना जाए और इसलिये कहता है - "मैं बहुत दूर से आया हूँ इक उम्मीद लिए / बैठने मत दो मगर नाम तो बतलाने दो" ।
विजय शर्मा 'अर्श' की ग़ज़लें यहाँ प्रस्तुत हैं :
ज़िन्दगी की कशमकश का आलम यह है कि शायर अब उसकी खुशामदी से तंग आ चुका है और कहता है - "ऐ ज़िन्दगी ! कभी इनकार का सबब भी सुन / मैं थक गया हूँ तेरी हाँ में हाँ मिलाते हुए" । यह इनकार अचानक से पैदा नहीं हुआ । इससे पहले हाँ में हाँ मिलाने का एक ऊब पैदा करने वाला सिलसिला है जो अब नाकाबिलेबर्दाश्त हो चला है । इसलिये यह इनकार है जिसका सबब ज़िन्दगी को बताने के लिये यह शेर कहा गया ।
रात का हुस्न विजय की शायरी में कुछ यूँ दर्ज हुआ कि - "यहीं प रात ठहरती है पूरे हुस्न के साथ / चराग़ तक भी नहीं इस ग़रीबख़ाने में" । एक ग़रीबखाना है जहाँ कोई चराग़ मयस्सर नहीं । ऐसी हालत में जो रात है वह अभावों की रात है । इस रात में भी लेकिन शायर आपको वह हौसला देता है कि चराग़ न हुआ तो क्या यह रात देखो अपने पूरे हुस्न में आई है पास तुम्हारे । यह महज एक नज़रिया नहीं है । यह एक कभी न थकने वाली उम्मीद भी है ।
विजय अपने खास अंदाज़ में एक जगह रवीन्द्रनाथ ठाकुर और कादम्बरी देवी को भी याद करते हैं और कहते हैं - "रविन्द्र की भली नज़्मों का मोल क्या देता / इक अपनी रूह को कादम्बरी किया मैंने" । रवींद्र की कविताओं का मोल लगाते हुए यह शायर अपनी रूह को ही कादम्बरी बना लेता है । यह विजय की शायरी की ख़ूबसूरती है जो उसे हिन्दी ग़ज़ल परम्परा के साथ ही भारतीय वांगमय से भी जोड़ती है ।
जीवन, उसके स्वप्न और उसके दुःख विजय की शायरी में जिस तरह बयान होते हैं उसे यहाँ दी गई ग़ज़लों से पाठक समझ सकते हैं । विजय उम्मीद का शायर है । वह ग़ज़ल की लम्बी परम्परा से वाकिफ़ है । वह अपने लिये आसन की माँग नहीं करता अदब की इस दुनिया में लेकिन चाहता है कि उसे उसके नाम से जाना जाए और इसलिये कहता है - "मैं बहुत दूर से आया हूँ इक उम्मीद लिए / बैठने मत दो मगर नाम तो बतलाने दो" ।
विजय शर्मा 'अर्श' की ग़ज़लें यहाँ प्रस्तुत हैं :
तमाम दर्द किसी लय में गुनगुनाते हुए
वो खो गया कहीं शिवरंजनी सुनाते हुए
क़ुसूर वक़्त का, लैला का था न दुनिया का
वो क़ैस था जो रहा बारे जाँ उठाते हुए
हमीं ने चार गिरह रंग रख दिया दर पर
हमीं ने याद किया ख़ुशबूओं को जाते हुए
धुएँ में हो गयी तब्दील रंग ओ बू खो कर
बयार सब्ज़ बनों से नगर को आते हुए
ऐ ज़िन्दगी !कभी इनकार का सबब भी सुन
मैं थक गया हूँ तेरी हाँ में हाँ मिलाते हुए
■
2.
आख़िरश ढूँढ ही ली तेरी गली ख़ुशबू से
तू भी पहचान मेरे ज़ख्म कभी ख़ुशबू से
तेरा एहसास दिलाती है मुझे बादे- बहार,
तुझको रचना है मेरी जान ! तेरी ख़ुशबू से
शाख़ पर कोई दिया तुमने रखा था शायद,
रौशनी आयी थी कमरे में जभी ख़ुशबू से
हर्फ़ या रंग ठहरते ही कहाँ थे तुझ पर,
जिस्म पर तेरे ग़ज़ल मैंने लिखी ख़ुशबू से
बस यही सोच के, बाक़ी है सफ़र ख़ुशबू का,
इक गिला था जो न कर पायी कली ख़ुशबू से
नींद आ जाती है पर ख़्वाब के बाइस, हर शब,
आँख खुल जाती है आहट तो कभी ख़ुशबू से
■
3.
मैं सोचता था किसी गुल-बदन का साया है
मगर ये जिस्म उदासी के घन का साया है
ये शाम तेरे बदन का है इस्तियारा और,
उफ़ुक़ का रंग तेरे पैरहन का साया है
यक़ीन जान मुझे मौत से अक़ीदत है,
सो ये वजूद नहीं है, कफ़न का साया है
अजीब तौर से तनहा रखे है कोई मुझे,
ये साथ कौन है, ये किसके तन का साया है
मैं दिन ब दिन हूँ उसी ख़्वाब की तरफ़ माइल,
वो एक ख़्वाब जो पतझड़ के बन का साया है
■
4.
तेरा ख़याल तो कुछ यूँ है इस ज़माने में
के जैसे धूल उड़े बच्चे प' कारख़ाने में
जहाँ प देख सकूँ रंगे-सद-लिबासे-क़ज़ा
जहाँ प देख सकूँ रंगे-सद-लिबासे-क़ज़ा
गँवा दी ज़िन्दगी ऐसी फ़ज़ा बनाने में
यहीं प रात ठहरती है पूरे हुस्न के साथ
यहीं प रात ठहरती है पूरे हुस्न के साथ
चराग़ तक भी नहीं इस ग़रीबख़ाने में
फिर उसके बाद तो दोनों को मुस्कुराना पड़ा
फिर उसके बाद तो दोनों को मुस्कुराना पड़ा
नज़र तो मिल ही गई थी नज़र बचाने में
हम अपने ऐब प करते हैं सब्र ऐसे 'अर्श'
हम अपने ऐब प करते हैं सब्र ऐसे 'अर्श'
ये देखते हैं के क्या ऐब है फ़लाने में
■
5.
भुला के फ़स्ले मुनाफ़िक़ का रास्ता मैंने
ख़ुद अपनी ज़ात को इक दिन किया हवा मैंने
मैं इस वजूद के चौबीसवे नरक में हूँ,
सो लग रहा है कि काफ़ी ही जी लिया मैंने
तुम्हारी प्यास तलक और किस तरह आता,
कोई नदी थी जिसे रास्ता किया मैंने
अजीब दुख था कि वो कैनवस रहा ख़ाली,
तेरे ख़याल का हर रंग खो दिया मैंने
रविन्द्र की भली नज़्मों का मोल क्या देता,
इक अपनी रूह को कादम्बरी किया मैंने
किसी भी सम्त वो चेहरा नज़र न आए तो क्या
ज़मीने दिल प वो साया तो पा लिया मैंने
बली चढ़ाई गई इक निरीह प्राणी की
लहू का दान भी हो ख़ुदगरज़ किया मैंने
■
6.
तिलिस्मे साया ए हसरत फ़ज़ा ए हैरानी
फिर आज तपने लगी है हमारी पेशानी
ये बुत भी ठीक ये तौहीद भी ये कुफ़्र भी ठीक,
कहीं प बर्फ़ कहीं भाप वो कहीं पानी
धँसा हुआ किसी बनफूल का कोई काँटा,
हमारी रूह में करता है ख़ुशबू ए जानी
हज़ार फूल मेरे बे धड़कते सीने पर,
मगर गई न कहीं दो जहाँ की वीरानी
न छेड़ मुझको मैं उकता चुका हूँ दुनिया से,
मैं अपने आप का मूरख ख़ुद अपना मैं ज्ञानी
■
7.
ये सानहा है भला और किसके सर जाना
हवा का वक़्त से चलना फ़ज़ा ठहर जाना
नई नहीं है ये तन्हाई मेरे हुजरे की
मरज़ हो कोई भी है चारागर से डर जाना
यही है ज़ीस्त की पहचान मौत से पहले
तमाम तर'ह की तन्हाईयों से भर जाना
तमाम उम्र गुज़रना सियाह लम्हों से
फिर एक शाम नई रौशनी से भर जाना
किसी के ख़्वाब से चलना किसी के ख़्वाब तलक
किसी की जागती आँखों में घुट के मर जाना
अजीब रंज है साँसों का आज धड़कन से
कि इक नफ़स के लिए हर नफ़स है मर जाना
तमाम शौक़ से काटे गए दरख़्त यहाँ
तमाम दर्द से है आदमी को भर जाना
■
8.
आदमियत का दीन मेरे ख़्वाब
मिस्ले- आबो-ज़मीन मेरे ख़्वाब
हो गए हर नज़र से वाबस्ता
छीन पाए तो छीन मेरे ख़्वाब
इक मुहब्बत भरे सिनेमा में
मेरे मरने का सीन मेरे ख़्वाब
मेरी मौजूदगी है कोई गुमाँ
जिस गुमाँ का यक़ीन मेरे ख़्वाब
मौत जितनी हसीन है यारो
उससे बढ़कर हसीन मेरे ख़्वाब
अपने ख़्वाबों में रक़्स करता हूँ
आफ़रीन आफ़रीन मेरे ख़्वाब
■
9.
वही निबाह के काँटे, वही गुलाब के फूल
मेरे नसीब में कब आए मेरे ख़्वाब के फूल
सुकून ए ज़ब्त प ठहरा वो दर्द का मौसम,
जुनूँ के रंग में खिलते रहे अज़ाब के फूल
तिलिस्म कैसा बँधा है हवा ए सहरा से,
महक रहे हैं मेरी ज़ात में सराब के फूल
ब-शक्ले - बुत मिली सहरा में देवी पतझड़ की,
ये सोचता हूँ चढ़ाऊँ उसे मैं आब के फूल?
नहीं है कोई तवाज़ुन वफ़ा ओ हुस्न के बीच,
न अब वो हिज्र न सूखे हुए किताब के फूल
महक रही है मेरे सह'न की नई मिट्टी,
बरस रहे हैं बड़ी देर से सहाब के फूल
■
10.
ज़ख्म महसूस न हो,नींद ज़रा आने दो
फिर किसी ख़्वाब में मर जाऊँ तो मर जाने दो
कितना लम्बा है सफ़र ख़ुद से गुज़र होने का
थक चुका हूँ मैं, कहीं चैन से सो जाने दो
मैं बहुत दूर से आया हूँ इक उम्मीद लिए,
बैठने मत दो मगर नाम तो बतलाने दो
फिर शबे वस्ल कुछ इस तौर से आबाद हुई
जैसे मिलने को हुए दश्त के वीराने दो
■
■
5.
भुला के फ़स्ले मुनाफ़िक़ का रास्ता मैंने
ख़ुद अपनी ज़ात को इक दिन किया हवा मैंने
मैं इस वजूद के चौबीसवे नरक में हूँ,
सो लग रहा है कि काफ़ी ही जी लिया मैंने
तुम्हारी प्यास तलक और किस तरह आता,
कोई नदी थी जिसे रास्ता किया मैंने
अजीब दुख था कि वो कैनवस रहा ख़ाली,
तेरे ख़याल का हर रंग खो दिया मैंने
रविन्द्र की भली नज़्मों का मोल क्या देता,
इक अपनी रूह को कादम्बरी किया मैंने
किसी भी सम्त वो चेहरा नज़र न आए तो क्या
ज़मीने दिल प वो साया तो पा लिया मैंने
बली चढ़ाई गई इक निरीह प्राणी की
लहू का दान भी हो ख़ुदगरज़ किया मैंने
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6.
तिलिस्मे साया ए हसरत फ़ज़ा ए हैरानी
फिर आज तपने लगी है हमारी पेशानी
ये बुत भी ठीक ये तौहीद भी ये कुफ़्र भी ठीक,
कहीं प बर्फ़ कहीं भाप वो कहीं पानी
धँसा हुआ किसी बनफूल का कोई काँटा,
हमारी रूह में करता है ख़ुशबू ए जानी
हज़ार फूल मेरे बे धड़कते सीने पर,
मगर गई न कहीं दो जहाँ की वीरानी
न छेड़ मुझको मैं उकता चुका हूँ दुनिया से,
मैं अपने आप का मूरख ख़ुद अपना मैं ज्ञानी
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7.
ये सानहा है भला और किसके सर जाना
हवा का वक़्त से चलना फ़ज़ा ठहर जाना
नई नहीं है ये तन्हाई मेरे हुजरे की
मरज़ हो कोई भी है चारागर से डर जाना
यही है ज़ीस्त की पहचान मौत से पहले
तमाम तर'ह की तन्हाईयों से भर जाना
तमाम उम्र गुज़रना सियाह लम्हों से
फिर एक शाम नई रौशनी से भर जाना
किसी के ख़्वाब से चलना किसी के ख़्वाब तलक
किसी की जागती आँखों में घुट के मर जाना
अजीब रंज है साँसों का आज धड़कन से
कि इक नफ़स के लिए हर नफ़स है मर जाना
तमाम शौक़ से काटे गए दरख़्त यहाँ
तमाम दर्द से है आदमी को भर जाना
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8.
आदमियत का दीन मेरे ख़्वाब
मिस्ले- आबो-ज़मीन मेरे ख़्वाब
हो गए हर नज़र से वाबस्ता
छीन पाए तो छीन मेरे ख़्वाब
इक मुहब्बत भरे सिनेमा में
मेरे मरने का सीन मेरे ख़्वाब
मेरी मौजूदगी है कोई गुमाँ
जिस गुमाँ का यक़ीन मेरे ख़्वाब
मौत जितनी हसीन है यारो
उससे बढ़कर हसीन मेरे ख़्वाब
अपने ख़्वाबों में रक़्स करता हूँ
आफ़रीन आफ़रीन मेरे ख़्वाब
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9.
वही निबाह के काँटे, वही गुलाब के फूल
मेरे नसीब में कब आए मेरे ख़्वाब के फूल
सुकून ए ज़ब्त प ठहरा वो दर्द का मौसम,
जुनूँ के रंग में खिलते रहे अज़ाब के फूल
तिलिस्म कैसा बँधा है हवा ए सहरा से,
महक रहे हैं मेरी ज़ात में सराब के फूल
ब-शक्ले - बुत मिली सहरा में देवी पतझड़ की,
ये सोचता हूँ चढ़ाऊँ उसे मैं आब के फूल?
नहीं है कोई तवाज़ुन वफ़ा ओ हुस्न के बीच,
न अब वो हिज्र न सूखे हुए किताब के फूल
महक रही है मेरे सह'न की नई मिट्टी,
बरस रहे हैं बड़ी देर से सहाब के फूल
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10.
ज़ख्म महसूस न हो,नींद ज़रा आने दो
फिर किसी ख़्वाब में मर जाऊँ तो मर जाने दो
कितना लम्बा है सफ़र ख़ुद से गुज़र होने का
थक चुका हूँ मैं, कहीं चैन से सो जाने दो
मैं बहुत दूर से आया हूँ इक उम्मीद लिए,
बैठने मत दो मगर नाम तो बतलाने दो
फिर शबे वस्ल कुछ इस तौर से आबाद हुई
जैसे मिलने को हुए दश्त के वीराने दो
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